भारत-अमेरिका के बीच दोस्ती का नया दौर, यूक्रेन युद्ध की तपिश ने भी भारत के हितों पर नहीं आने दी आंच
विश्व के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देशों के बीच बढ़ती नजदीकी तेजी से बदल रहे वैश्विक ढांचे को भी प्रभावित कर रही है। सोमवार को व्हाइट हाउस ने भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता एवं गतिशीलता का उदाहरण दिया है कि विश्व भारत से सीखे कि लोकतंत्र को कैसे संचालित किया जाता है।
हर्ष वी. पंत: इस महीने अमेरिका जा रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यात्रा को लेकर दोनों देशों में खासा उत्साह है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन बीते दिनों जापान में जी-7 सम्मेलन के दौरान मोदी के दौरे को लेकर अपनी उत्सुकता भी व्यक्त कर चुके हैं। अमेरिकी दौरे पर मोदी कई प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल होंगे और महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समझौतों को अंतिम रूप देंगे। इस दौरान मोदी अमेरिकी संसद यानी कांग्रेस को दो बार संबोधित करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बन जाएंगे। यह सब भारत-अमेरिका रिश्तों के निरंतर आ रही प्रगाढ़ता और गर्मजोशी का संकेत है।
विश्व के सबसे पुराने और सबसे विशाल लोकतांत्रिक देशों के बीच बढ़ती नजदीकी तेजी से बदल रहे वैश्विक ढांचे को भी प्रभावित कर रही है। सोमवार को व्हाइट हाउस ने भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता एवं गतिशीलता का उदाहरण दिया है कि विश्व भारत से सीखे कि लोकतंत्र को कैसे संचालित किया जाता है। व्हाइट हाउस की यह टिप्पणी कुछ पक्षों द्वारा भारतीय लोकतंत्र को बदनाम करने वालों और अमेरिका में उसे गलत स्वरूप में पेश करने वाले तत्वों को आईना दिखाने वाली है। अतीत में दोनों देशों के बीच रिश्तों में आड़े आने वाली हिचक भी अब बीती बात हो गई है।
वहीं पाकिस्तान जैसे पहलुओं ने भी भारत-अमेरिकी रिश्तों की प्रकृति को प्रभावित करना बंद कर दिया है, क्योंकि वर्तमान स्थिति में पाकिस्तान स्वयं अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है और वह वाशिंगटन में बैठे अमेरिकी नीति-नियंताओं के साथ किसी भी प्रकार की सौदेबाजी की स्थिति में नहीं। वहीं चीन की उभरती शक्ति के जवाब में अमेरिका को भी भारत जैसे साझेदार की कहीं अधिक आवश्यकता है। यही कारण है कि अमेरिकी संसद ने एक संकल्प पारित कर भारत को ‘नाटो प्लस’ का सदस्य बनाने की पेशकश की है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में अमेरिका के साथ भारत के संबंध एक नए दौर में दाखिल हुए। इसमें मोदी की निजी सक्रियता और आत्मीय भाव ने अहम भूमिका निभाकर भारत के सामरिक, कूटनीतिक एवं व्यापारिक हितों को पोषित किया है। पीएम मोदी ने द्विपक्षीय रिश्तों में विश्वास की ऐसी ढाल बनाई, जिसने यूक्रेन युद्ध की तपिश में भी भारत के हितों पर आंच नहीं आने दी। यूक्रेन युद्ध को लेकर पश्चिम विशेषकर अमेरिका का काफी कुछ दांव पर लगा है, लेकिन उसके बावजूद रूस के मामले में भारत वाशिंगटन से आवश्यक ढील हासिल करने में सफल रहा।
वैश्विक ढांचे को हिला देने और विश्व को ध्रुवीकृत कर देने वाले इस युद्ध में भारत सभी खेमों के साथ सहज रहा है। वस्तुत:, व्यावहारिकता की कसौटी दोनों देशों के रिश्तों को प्रगाढ़ बना रही है। दोनों एक दूसरे को अपरिहार्य मान रहे हैं। जहां चीन की बढ़ती आक्रामकता और जल्द से जल्द महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा अमेरिका की चिंता बढ़ा रही है और उस चिंता के निदान में उसे भारत एक अहम साझेदार दिख रहा है, वहीं भारत भी आत्मनिर्भर बनने के लिए अमेरिकी मदद से उम्मीद लगाए बैठा है।
रक्षा सहयोग और आर्थिक प्रगति का आधार भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा निर्धारित करने में निर्णायक पहलुओं की भूमिका निभा रहे हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्री लायड आस्टिन का हालिया भारत दौरा इसे पुन: रेखांकित करने वाला रहा। आस्टिन का यह दौरा एक प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा की आधारशिला रखने वाला सिद्ध हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि वैश्विक विनिर्माण महाशक्ति बनने और ‘मेक इन इंडिया’ जैसी अपनी मुहिम को सफल बनाने के लिए भारत को अमेरिकी आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग की आवश्यकता है। आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को साकार रूप देने के लिए भी अमेरिकी सहयोग महत्वपूर्ण है।
आर्थिक मोर्चे से इतर सामरिक स्तर पर अमेरिका का साथ भी भारत के लिए उतना ही आवश्यक है। न केवल घरेलू रक्षा उत्पादन, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र से लेकर हिमालयी मोर्चे पर चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए भारत को अमेरिका की आवश्यकता है तो चीन की काट के लिए अमेरिका को भारत की। चीनी हेकड़ी के शिकार जापान, ताइवान और आस्ट्रेलिया जैसे अपने रणनीतिक सहयोगियों के बीच अपनी साख को कायम रखने के लिए अमेरिका के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह चीन के विरुद्ध एक विश्वसनीय साथी के रूप में दिखे। इसमें डोकलाम से लेकर लद्दाख में चीन के सामने मजबूती से अड़ा रहा भारत उसके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
भारत और अमेरिका की साझेदारी और चीन के विरुद्ध मोर्चाबंदी अब द्विपक्षीय परिधि से बाहर निकलकर बहुपक्षीय स्तर पर भी असर दिखा रही है। क्वाड से लेकर आइटू-यूटू जैसे मंच इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इन कूटनीतिक मंचों से इतर अमेरिका भारत की रक्षा आवश्यकताओं की संवेदनशीलता को भी बखूबी समझ रहा है। वह इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि अपनी सामरिक आपूर्ति के लिए रूस पर निर्भरता ने यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के रुख को प्रभावित किया। वहीं भारत भी इसे अनदेखा नहीं कर सकता कि रूसी तकनीक समय की कसौटी पर सवालों के घेरे में है। इसीलिए वह भी अमेरिका, फ्रांस और इजरायल जैसे सामरिक साझेदारों के साथ संभावनाएं तलाश रहा है।
इसी साल जनवरी में अमेरिका ने महत्वपूर्ण (क्रिटिकल) एवं उभरती हुई तकनीकों के मोर्चे पर भारत के साथ सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई। इसके साथ ही दोनों देश रक्षा सहयोग में साझा-विकास एवं साझा-उत्पादन की दिशा में भी आगे बढ़ रहे हैं। इसकी पुष्टि आस्टिन के दौरे से भी हुई, जिस दौरान भविष्य में रक्षा उत्पादन की अत्याधुनिक तकनीक के शीघ्र हस्तांतरण के साथ ही सुरक्षा बलों की आवश्यकता के अनुसार हथियारों के निर्माण की योजना को अंतिम रूप दिया गया।
माना जा रहा है कि इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिकी दौरे पर युद्धक विमानों में उपयोग होने वाले इंजनों के भारत में निर्माण के लिए अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक और देसी दिग्गज हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड के बीच अनुबंध को हरी झंडी दिखाई जा सकती है। आस्टिन का यह बयान कि ‘भारत के साथ रक्षा सहयोग में कई चुनौतियां, लेकिन उससे कहीं ज्यादा अवसर हैं’,भी काफी कुछ कहता है।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में अध्ययन एवं विदेश नीति प्रभाग के उपाध्यक्ष हैं)