संतोष त्रिवेदी। नए साल से बड़ी उम्मीदें थीं। एक साथ कई संकल्प उठा रखे थे। अभी तीन दिन भी नहीं बीते थे कि एक-एक कर सारे संकल्प खेत हो गए। पहला संकल्प टूटने के बाद आधे घंटे तक अफसोस मनाया था। तब जाकर नैतिकता को संतोष हुआ था। आखिरी वाला जब टूटाआख़िरीस ‘दो मिनट’ का मौन रख लिया। इससे अंतरात्मा को शांति मिली। पिछला साल उससे पिछले की तरह ही अच्छा नहीं रहा। इसलिए नए साल की आहट पाते ही हमने उसका चाक-चौबंद इंतजाम करने की ठान ली थी। साल का आख़िरी दिन था। फोन पर पिताजी से बात हुई। उन्होंने नए साल की शुभकामनाएं देने के साथ पहला संकल्प हाथ में थमा दिया। रोज सुबह नहा-धोकर शंख बजाया करो। इससे फेफड़े खुलते हैं। तुम्हें आत्मिक शांति मिलेगी। मैंने उनका मान रखते हुए संकल्प-सूची में इसे पहले स्थान पर रख लिया। उन्हें केवल शंख बजाने से फेफड़े खुलने की बात पता थी। मैंने उन्हें यह नहीं बताया कि कोरोना प्रभाव के चलते आए दिन खुल गए फेफड़ों से कई प्राणियों के बैकुंठ में बसने की ख़बर आती रहती है, क्योंकि इससे एकाध संकल्प और बढ़ता।

श्रीमती जी को जब इस संकल्प के बारे में बताया तो वे तमक उठीं। ‘पिताजी का कहना तो मान लिया, अब कान खोलकर मेरी भी सुन लो। फेफड़े से अधिक दिमाग खोलने की जरूरत है। सुबह दौड़ लगाने से शरीर की चर्बी कम होगी और बंद दिमाग भी खुलेगा।’ ‘यह ज्यादा हो गया। अगर दिमाग़ नहीं होता तो बड़ा अफसर कैसे बन जाता?’ मैंने अफसरी रौब को घर में रिचार्ज करने की कोशिश की। श्रीमती जी तपाक से बोलीं, ‘दूसरे अफसरों को देखिए, छापा मारने जाते हैं तो भी उसकी रील बना लेते हैं। नौकरी से ज़्यादा उससे कमाते हैं। तुमसे तो एक रील तक नहीं बनती। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। सुबह कम से कम पांच किमी की दौड़ भी लगाओ।’ उनका यह संकल्प मेरे लिये अध्यादेश जैसा था।

मैं इन संकल्पों की योजना बना ही रहा था कि साहित्यकार-मित्र का फ़ोन आ गया। कहने लगे, ‘अफसरी बहुत कर ली।समाज का भला भी हो गया। अब अपना भी कर लो। नए साल में साहित्य में घुसने का संकल्प उठा लो। हम दोनों मिलकर साहित्य का भला करेंगे।’ शुभकामनाओं के सिलसिले में मैं कोई ख़लल नहीं डालना चाहता था, इसलिए यह संकल्प भी सिर-माथे ले लिया। नए साल का रोमांच अब डर में बदलने लगा था।

नववर्ष की सुबह उठते ही सैर पर निकल गया। मौसम के सिवा सब कुछ खुला था।दिमाग़ का तो पता नहीं पर धुंध में नाक पूरी तरह खुल गई थी। श्रीमती जी ने हौसला बढ़ाया कि योजना सही काम कर रही है। आज नाक खुली है, कल दिमाग भी खुलेगा। बस डटग़ रहो। मैं नहा-धोकर शंख बजाने को उतावला था। सात बजे से पहले ही पूरी सोसायटी मेरे शंखनाद से गूंज उठी। गार्ड दौड़ कर मेरे पास आया। उसके पीछे-पीछे वर्माजी थे। नए साल का भी लिहाज़ नहीं किया। बिगड़ उठे, ‘भाई, बच्चे नौ बजे तक सोते हैं। आपने उन्हें सात बजे ही उठा दिया। यह नहीं चलेगा।’ उन्हें संकल्प के बारे में बताना चाह रहा था, पर श्रीमती जी ने बात संभाल ली। पूर्ण आश्वस्त करके उन्हें भेज दिया। मेरा पहला संकल्प ढेर हो चुका था।

साल का दूसरा दिन था। अलार्म बजने के बाद भी जब मैं बिस्तर से नहीं हिला तो श्रीमती जी को थोड़ी चिंता हुई। मैं सुन्न पड़ा था। उन्होंने डाक्टर को बुला लिया। उसने आते ही सलाह दी, ‘इन्हें सर्दी लगी है। ठंड भर सुबह की सैर न करने का संकल्प लें।’ इस तरह यह संकल्प मौसम की भेंट चढ़ गया। अपने संकल्पों के इस तरह शहीद होने पर मित्र को करके बताया कि साहित्यिक-संकल्प का भी परित्याग कर रहा हूं। मुझसे नहीं होगा। उन्होंने बड़ी सहजता से संभाला, ‘काहे चिंता करते हो। तुम इकलौते नहीं हो, जिनके संकल्प टूटे हैं। यह साल कइयों के संकल्प टूटने का है। विपक्ष ने सरकार बदलने का संकल्प लिया है तो सरकार ने साल की शुरुआत में ही ड्राइवरों के सामने अपना संकल्प तोड़ दिया। अभी देखो, आगे क्या-क्या टूटता है! तुम नहीं भी लिखोगे, तो भी मैं तुम्हें लेखक बनवा दूंगा। यह मेरा संकल्प है।’ यह सुनते ही मैं फिर से सिहर उठा।