समान नागरिक संहिता की राह में बाधाएं, मजहबी और जातीय मान्यताओं की सबसे बड़ी चुनौती
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा। यह भ्रांति है क्योंकि यह परिस्थिति तभी निर्मित हो सकती है जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपा जाए।
[प्रमोद भार्गव]। भाजपा ने कहा है कि अगर वह हिमाचल प्रदेश में फिर से सरकार बनाती है तो प्रदेश में समान नागरिक संहिता लागू करेगी। गुजरात में भी उसकी सरकार समान नागरिक संहिता की दिशा में बढ़ती दिखाई दे रही है। पिछले चुनाव के समय उत्तराखंड में भी भाजपा ने ऐसा ही वादा किया था, लेकिन इस दिशा में अभी ठोस परिणाम देखने में नहीं आया है। हिमाचल में भाजपा की पहल पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि कांग्रेस इस संहिता के पक्ष में है, लेकिन सरकार को इस दिशा में राजनीति करने के बजाय आम सहमति बनाने की जरूरत है।
उनके इस बयान से संकेत मिलता है कि कांग्रेस उन रूढ़ियों को तोड़ती दिखाई दे रही है, जो उसने शाहबानो, अनुच्छेद-370, तत्काल तीन तलाक और राम मंदिर के मामलों के समय दिखाई थी। अब यह आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी भी देश में समान नागरिक संहिता लाने की वकालात करते हुए केंद्र सरकार से आग्रह करें कि वह इस संदर्भ में प्रारूप तैयार कर संसद में पेश करे।
संविधान में दर्ज राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत यही अपेक्षा रखते हैं कि देश में समान नागरिक संहिता लागू हो, जिससे हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून अस्तित्व में आ जाए, जो सभी संप्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घुमंतू जातियां भी इसके दायरे में आएंगी। केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार से उम्मीद इसलिए है, क्योंकि यह विषय भाजपा के मूल मुद्दों में शामिल है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं हैं, जो क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं।
इनमें सबसे ज्यादा भेद महिलाओं से बरता जाता है। जैसे कि मुस्लिमों के कई पर्सनल कानून पूरी तरह पुरुषों के पक्ष में हैं। वे न्यायपालिका के लिए भी मुश्किल पेश करते हैं। पारिवारिक विवाद के मामलों में अदालतों को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का मजहब कौन-सा है और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर विवाद का निराकरण करती हैं। इससे व्यक्तियों का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद 44 की भावना का भी अनादर होता है।
ब्रिटिश कालीन भारत में सभी समुदायों के लिए विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े अलग-अलग कानून बने थे, जो आजादी के बाद भी अस्तित्व में हैं। हालांकि अब तत्काल तीन तलाक को खत्म कर दिया गया है। वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परंपराएं और पंथनिरपेक्ष राज्य असमानता को बनाए रखने का काम करते रहे हैं। इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं।
इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं। अनुच्छेद-44 में कहा गया है कि राज्य देश के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता है। यह प्रविधान विरोधाभासी है, क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-26 में विभिन्न मतावलंबियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं, जो पंथसम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा संबंधित संस्थाओं को देते हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता की डगर कठिन है।
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा। यह एक भ्रांति है, क्योंकि यह परिस्थिति तभी निर्मित हो सकती है, जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय नजरिया अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप दिया जाए, लेकिन पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह कतई संभव नहीं है। विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है, जहां एक समुदाय के लोग रहते हों।
भारत जैसे बहुलवादी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि पंथनिरपेक्षता के मायने हैं कि विभिन्न पंथ के अनुयायियों को उनके मजहब के अनुसार जीवन जीने की छूट हो। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है, किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है। इस दृष्टि से देश में समान दंड प्रक्रिया संहिता तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू है, लेकिन समान नागरिकता संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है।
हालांकि, जैसे-जैसे समुदाय शिक्षित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे निजी कानून और मान्यताएं निष्प्रभावी होती जा रही हैं। अधिकांश पढ़े-लिखे मुस्लिम अब शरिया कानून के अनुसार न तो चार-चार शादियां करते हैं और न ही तीन बार तलाक बोलकर पति-पत्नि में संबंध विच्छेद हो रहे हैं। हिंदू समाज का जो पिछड़ा तबका शिक्षित होकर मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसने भी लोक में व्याप्त मान्यताओं से छुटकारा पा लिया है।
कुछ मामलों में उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने भी ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं, जिनके चलते प्रत्येक मतावलंबी के लिए व्यक्तिगत रूप से संविधान-सम्मत पंथनिरपेक्ष कानूनी व्यवस्था के अनुरूप कदमताल मिलाने के अवसर खुलते जा रहे हैं। समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत तो है ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली लोक-परंपराओं और मान्यताओं में समानताएं तलाशते हुए उन्हें भी विधि-सम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है। यदि ऐसी तरलता बरती जाती है तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन कानूनी पेचिदगियों का सामना करना पड़ता है, वे दूर हो जाएंगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)