राज कुमार सिंह। अपने आलोचकों को विपक्षी दल खुद ही सही साबित कर रहे हैं। चंद महीने पहले ही 28 विपक्षी दलों ने इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (आइएनडीआइए) का गठन किया था। तब दावा किया गया था कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को केंद्र की सत्ता से बेदखल करना ही इस गठबंधन का एकमात्र लक्ष्य है। यह भी कहा गया था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दल त्याग करने में भी कोई संकोच नहीं करेंगे, क्योंकि राष्ट्रीय हित में यह जरूरी है, पर हो उसके एकदम उलट रहा है। कम-से-कम तीन पार्टियां-कांग्रेस, आप (आम आदमी पार्टी) और सपा आपस में तलवारें भांजती नजर आ रही हैं।

आइएनडीआइए के गठन के बाद अगले महीने होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव विपक्ष की पहली बड़ी चुनावी परीक्षा हैं। तेलंगाना और मिजोरम में क्षेत्रीय दल क्रमश: बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) और मिजो नेशनल फ्रंट सत्ता में हैं। ये दल नए विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन शेष तीनों राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता के लिए मुख्य संघर्ष भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होना है। यही इतिहास भी है, लेकिन भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल करने के एकमात्र लक्ष्य के साथ गठबंधन बनाने वाले विपक्षी दलों में दो दल-आप और सपा ऐसे भी हैं, जिनकी इन राज्यों में राजनीतिक दिलचस्पी है।

वैकल्पिक राजनीति के वादे के साथ बनाई गई आम आदमी पार्टी भी दिल्ली और पंजाब में सत्ता पा लेने के बाद उन्हीं राजनीतिक दांवपेचों को आजमाने लगी है, जिनके लिए कल तक वह परंपरागत दलों-नेताओं को कोसती थी। यह नए विपक्षी गठबंधन के आंतरिक विरोधाभासों का प्रमाण भी है कि उसमें अगर कांग्रेस है तो दिल्ली-पंजाब में उससे सत्ता छीन लेने वाली आम आदमी पार्टी भी। ऐसे में यह अस्वाभाविक भी नहीं कि मोदी विरोध में एकजुट होने वाले इन दलों में अपने दलीय हितों को लेकर परस्पर टकराव हो।

अगले लोकसभा चुनाव तो अभी छह महीने दूर हैं, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनावों में ही यह टकराव न सिर्फ सतह पर आ गया है, बल्कि मुखर भी है। गठबंधन की बैठकों में ही यह सहमति बनी थी कि सीट बंटवारे पर बातचीत शुरू की जाए, लेकिन कर्नाटक में सत्ता मिलने से उत्साहित कांग्रेस पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सीट बंटवारे को टाल रही है। कांग्रेस की रणनीति यही है कि अगर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह 2018 की सफलता की पुनरावृत्ति कर सके तो अन्य सहयोगी दलों पर उसका मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ जाएगा। ध्यान रहे कि पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इन तीनों राज्यों की सत्ता भाजपा से छीन ली थी। कांग्रेस का मानना है कि अगर तीन में से दो राज्यों में भी जीत गई तो गठबंधन में उसकी ही चलेगी। अन्य दल भी कांग्रेस की इस रणनीति को समझ रहे हैं। फिर भी सपा ने कांग्रेस की ओर से पहल का इंतजार किया, जबकि आम आदमी पार्टी ने पहले ही अपने उम्मीदवार घोषित करना शुरू कर दिया है।

जिस तरह आम आदमी पार्टी ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उन सीटों पर भी उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, जहां पिछले चुनावों में कांग्रेस जीती थी, उससे साफ है कि गठबंधन के बावजूद दोनों में अविश्वास मिटा नहीं है और शह-मात का खेल जारी है। राजस्थान में भी आम आदमी पार्टी का इरादा बड़ी संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ने का है। ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि उसकी मौजूदगी किसे लाभ और किसे नुकसान पहुंचाएगी?

सपा का मामला थोड़ा अलग है। मध्य प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में सपा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ मिलकर 125 सीटों पर लड़ी थी। एकमात्र सीट सपा ही जीत पाई थी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव की मानें तो कांग्रेस से सीट बंटवारे पर बातचीत हुई, छह सीटों का आश्वासन भी मिला, लेकिन परिणाम शून्य रहा। जैसे इतना भर काफी न हो, प्रेस कांफ्रेंस में पूछे जाने पर कमल नाथ ने टिप्पणी भी कर दी कि छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को…। जवाब में सपा ने कांग्रेस को चेतावनी दी कि वह अपने चिरकुट नेताओं को बोलने से रोके। इशारा उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष अजय राय की ओर था।

सपा ने यह भी कह दिया कि वह अपने साथ हुए व्यवहार को भूलेगी नहीं। ध्यान रहे कि 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 41 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट पाकर लगातार दूसरी बार सरकार बनाई। यहां सपा को भी 32 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले, लेकिन अतीत की आत्ममुग्धता से बाहर न निकलने वाली कांग्रेस ढाई प्रतिशत वोट भी नहीं पा सकी। इस प्रकार वह देश के सबसे बड़े राज्य में कितनी सीटों की दावेदारी कर पाएगी?

बसपा हालांकि किसी भी गठबंधन का हिस्सा नहीं है, लेकिन इन तीनों ही राज्यों में उसका थोड़ा-बहुत असर है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में तो कांग्रेस की सरकारें बनीं भी छोटे दलों और निर्दलियों की बदौलत ही थीं। ऐसे में बसपा तो कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी ही, आप और सपा भी उसके ही वोट बैंक में सेंध लगाएंगे, पर इसके लिए इन दलों को ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। बड़े दल के नाते कांग्रेस की यह जिम्मेदारी थी कि वह सीट बंटवारे की पहल करती और सहयोगियों को विश्वास में लेती। ऐसा न करने का राजनीतिक खामियाजा कांग्रेस को इन आगामी विधानसभा चुनावों में भुगतना पड़ सकता है, जो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले सत्ता का सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। कहना नहीं होगा कि इस चुनावी परिदृश्य से विपक्ष की विश्वसनीयता पर अक्सर लगने वाला सवालिया निशान भी और गहरा गया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)