राहुल वर्मा। भारतीय राजनीति और राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान का रिश्ता बड़ा पुराना है। इस मैदान में हुए जमावड़े सरकारों को बदलते रहे हैं। इंदिरा गांधी सरकार के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए रामलीला मैदान के महाजुटान के बाद मध्यरात्रि को ही देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया था। उसके बाद हुए चुनाव में इंदिरा सरकार की सत्ता से विदाई हो गई थी। वीपी सिंह के नेतृत्व में हुए रामलीला मैदान के आयोजन ने राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को मिले ऐतिहासिक जनादेश पर ऐसा ग्रहण लगाने की बुनियाद रखी कि उसके बाद कांग्रेस कभी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई। इसी तरह, दस साल की संप्रग सरकार की विदाई में रामलीला मैदान में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की अहम भूमिका मानी जाती है, जिसने ऐसा माहौल बनाया कि तीन दशकों के बाद भाजपा के रूप में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। ऐसे में बीते दिनों रामलीला मैदान में हुए विपक्षी दलों के जुटान के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस रैली के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध माहौल बनाने में कोई मदद मिलेगी? क्या इससे विपक्षी दलों को आवश्यक राजनीतिक संजीवनी मिली है?

रामलीला मैदान में विपक्ष की महारैली का तात्कालिक संदर्भ देखें तो यह आम आदमी पार्टी के मुखिया एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के विरोध में विपक्षी एकजुटता दिखाने के लिए आयोजित की गई। पिछले साल विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष में बिखराव के बाद इस रैली के माध्यम से एकता प्रदर्शित करने का भी प्रयास हुआ। सोरेन और केजरीवाल दोनों की गिरफ्तारी भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में हुई है और विपक्ष उनकी गिरफ्तारी को राजनीति से प्रेरित बता रहा है। विपक्षी दलों की कोशिश इस मामले में भाजपा को घेरकर सहानुभूति पाने की है। जहां भ्रष्टाचार के मामलों में त्वरित जन सहानुभूति मिलनी मुश्किल होती है, वहीं ऐसे आरोपों के पक्ष में साक्ष्य न मिलने पर वे खोखले भी साबित हो जाते हैं। गत दिवस ही एक अंग्रेजी दैनिक की रपट के अनुसार विपक्ष के 25 में से 23 ऐसे नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में राहत मिल गई, जो भाजपा में शामिल हो गए। ऐसे में विपक्षी दलों द्वारा भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा पर जवाबी हमले में दम तो दिख रहा है, लेकिन विपक्षी खेमे में कई ऐसे दागी नेता हैं, जो इस लड़ाई में उसका आधार कमजोर कर देते हैं।

ऐसा नहीं है कि भाजपा को घेरने के लिए मुद्दों की कमी है, लेकिन इस मामले में विपक्ष सही रणनीति नहीं बना पा रहा। भाजपा के विरुद्ध कुछ सत्ता विरोधी रुझान भी हो सकता है, जो उन मतदाताओं को प्रभावित करने में सक्षम है, जो वैचारिक रूप से पार्टी के लिए प्रतिबद्ध नहीं। महंगाई से लेकर बेरोजगारी के मुद्दे भारत जैसे देश में शाश्वत रूप से प्रभावी रहते हैं। इसके बावजूद विपक्षी दल भाजपा की घेराबंदी करने में नाकाम दिख रहे हैं। विपक्ष कभी अदाणी-अंबानी का मामला उठाता है तो कभी राफेल का और कभी इलेक्टोरल बांड का, लेकिन वह ऐसा व्यूह नहीं रच पा रहा, जो भाजपा की मुश्किलें बढ़ा सके।

विपक्षी दलों को याद रखना होगा कि अतीत में जब भी विपक्ष सरकार को हटाने में सफल रहा तो तभी, जब उसने अपने विरोध को एक दिशा में केंद्रित रखा। विपक्ष को यह भी याद रखना होगा कि उसका मुकाबला ऐसी ताकतवर भाजपा से है, जिसके पास प्रधानमंत्री मोदी जैसा सक्षम नेतृत्व है। मोदी की लोकप्रियता को लेकर भी कोई संदेह नहीं। भाजपा का सांगठनिक ढांचा भी बेहद मजबूत है। संसाधनों के मामले में भी वह विपक्षी दलों से मीलों आगे है। वैचारिक आधार पर भी प्रखर है। बीते दस वर्षों में गिनाने के नाम पर उसके पास कई उपलब्धियां भी हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं, जिसने पार्टी के वैचारिक आधार को और विस्तार दिया है। इसकी तुलना में विपक्षी मोर्चे को देखें तो वह कुछ दिशाहीन दिख रहा है।

विपक्ष को यह सोचना होगा कि चुनाव केवल बयानबाजी करके नहीं जीता जा सकता। चूंकि मोदी भाजपा और सरकार का चेहरा हैं तो उनका विरोध स्वाभाविक है, लेकिन केवल मोदी-विरोध के

भरोसे चुनावी नैया पार लगने की उम्मीद नहीं की जा सकती। विपक्षी दलों को बेहतर भविष्य के लिए अपना एक सार्थक, सकारात्मक एवं वैकल्पिक एजेंडा भी प्रस्तुत करना होगा, लेकिन वह अभी तक ऐसा कोई विमर्श खड़ा करने में सफल नहीं हो सका। इसके उलट मोदी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होकर मतदाताओं के बीच मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने की जुगत कर रहे हैं। वह बार-बार अपने तीसरे कार्यकाल में भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिकी बनाने की बात कर रहे हैं। उन्होंने अपने संभावित तीसरे कार्यकाल के शुरुआती सौ दिनों का एजेंडा तक बनाने की बात कही है। इसकी तुलना में विपक्ष कोई साझा एजेंडा पेश करने में अभी तक सफल नहीं हो सका है। विपक्षी खेमे की ओर से जो लुभावनी घोषणाएं की जा रही हैं, उनकी आर्थिक व्यावहारिकता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।

इस समय भाजपा भले ही कई पैमानों पर बढ़त की स्थिति में दिख रही हो, लेकिन ऐसा नहीं कि विपक्ष उसकी राह में मुश्किलें नहीं खड़ी कर सकता। चुनावी प्रक्रिया औपचारिक रूप से शुरू हो गई है, लेकिन यदि विपक्षी दल अभी भी भाजपा की कमजोरियों पर निशाना लगाने में सफल होते हैं तो भाजपा के लिए जीत की राह कठिन हो जाएगी। भाजपा ने अपने सौ से अधिक सांसदों का टिकट काटा है। यह दांव कारगर भी साबित हो सकता है और नहीं भी। इससे पार्टी में आंतरिक स्तर पर कुछ असंतोष के संकेत दिख सकते हैं, जो दलबदलुओं के अलावा गैर-राजनीतिक लोगों को टिकट दिए जाने से और बढ़ सकता है। महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य में भाजपा अभी तक अपने गठबंधन से जुड़ी गुत्थियों को नहीं सुलझा सकी है। हालांकि इन कई मोर्चों पर विपक्षी दलों की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है। ऐसे में अगले कुछ दिन आम चुनाव की तकदीर तय करने के लिहाज से महत्वपूर्ण सिद्ध होने जा रहे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)