[ पंकज चतुर्वेदी ]: इन दिनों दिल्ली और उसके आसपास ताकीद कर दी गई है कि जल्द ही पंजाब-हरियाणा के किसान खेतों में धान की फसल के अवशेष या पराली जलाएंगे जिससे राजधानी के दो सौ किलोमीटर में फैली आबादी के लिए सांस लेना दूभर हो जाएगा। दिल्ली सरकार ने तो हवा को शुद्ध रखने के लिए अगले महीने सड़क पर वाहनों को कम लाने के इरादे से ‘ऑड-इवेन’ की भी घोषणा कर दी है। हालांकि खेतों में पराली जलाना गैरकानूनी है, फिर भी धान उगाने वाला किसान इस कुरीति से खुद को मुक्त नहीं कर रहा है। यह सभी जानते हैं कि हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाय खेत में ही जला देते हैं। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है, लेकिन किसान यदि थोड़ी समझदारी दिखाएं तो वे फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता को बढ़ा सकते हैं।

हर साल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली जलाई जाती है

एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली जलाई जाती है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाईऑक्साइड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किलो कार्बन डाईऑक्साइड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेष जलते हैैं तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत एवं बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांश हिस्सा खेत में ही रह जाता है। फसल से बचे अंश का इस्तेमाल मिट्टी में जीवांश पदार्थों की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। खासतौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृषि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। खेत की जैव-विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है।

आपराधिक कृत्य घोषित होने के बावजूद किसान मान नहीं रहे

सरकार ने पराली जलाने को आपराधिक कृत्य घोषित किया है और किसानों को इसके लिए प्रोत्साहन राशि आदि भी दी जा रही है, लेकिन इसके निपटान में बड़े व्यय के चलते किसान मान नहीं रहे हैैं। किसान चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर अपने खाद के खर्चे एवं दुष्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेशियों के लिए चारे की कमी नहीं है वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोड़ने के बजाय कम्पोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू, मूंगफली, मूंग एवं उड़द जैसी फसलों के अवशेषों को भूमि में जोतकर मिला सकते हैं। केले की फसल के बचे अवशेषों से यदि कंपोस्ट तैयार कर लें तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन, 3.43 फीसद फॉस्फोरस तथा 0.45 फीसद पोटाश प्राप्त किए जा सकते हैं। यह बात किसानों तक पहुंचानी जरूरी है कि जिन इलाकों में जमीन की नमी कम हो रही है और भूजल घटता जा रहा है वहां रासायनिक खाद के मुकाबले कंपोस्ट ज्यादा कारगर है और पराली जैसे अवशेष बिना किसी व्यय के आसानी से कंपोस्ट में बदले जा सकते हैं।

पराली जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति घटती है

दरअसल यदि मिट्टी में नमी कम हो जाए तो जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है। यदि पराली को ऐसे ही खेत में कुछ दिनों तक पड़े रहने दिया जाए तो इससे मिट्टी की नमी बढ़ती है और कम सिंचाई से काम चल जाता है। फसल अवशेष को जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्मजीव और मित्र कीट के अंडे आदि होते हैं, आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है। वहीं फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन कर कंपोस्ट बनाया जा सकता है या फिर अवशेषों को खेत में ही सड़ने के लिए छोड़ा जा सकता है। खेत में पराली छोड़ने से वह नमी संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण एवं बीज के सही अंकुरण के लिए मल्चिंग (आधी सड़ी घास) का कार्य करती है।

सरहद पार से पराली का धुआं रोकने का कोई उपाय नहीं

उधर किसानों का पक्ष है कि पराली को मशीन से निपटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार रुपये का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय नहीं होता कि वे गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। फिर भारत के किसान मान भी जाएं तो सरहद पार से पराली का धुआं रोकने का कोई उपाय नहीं है। जाहिर है कि पाकिस्तान के पंजाब में भी धान की खूब खेती होती है और वहां की सरकार इस मसले में बेहद लापरवाह है। चूंकि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से जो हवाएं चलती हैं, अक्सर उनका रुख उस तरफ से हमारी ओर ही होता है। ऐसे में वह भयंकर धुआं दिल्ली तक की आबोहवा को दूषित करता है।

पराली जलाने से सांस लेने में तकलीफ होती है

किसान तो वैसे भी समाज को जीवन देने के लिए अन्न उगाता है, लेकिन अनजाने में ही पराली जलाने से भी सांस लेने से जुड़ी गंभीर तकलीफें और कैंसर तक का वाहक बना हुआ है। इससे उनका अपना परिवार भी नहीं बचता है। हालांकि केंद्र सरकार को भरोसा है कि इस साल पराली की मार कम ही होगी। इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने खेतों में फसलों के कटने के बाद बचे अवशेषों को जलाने पर पाबंदी लगाई है। पराली जलाने पर सजा का भी प्रावधान किया गया है। यदि कोई किसान अपने खेतों में फसल अवशेष जलाते हुए पाया जाता है तो दो एकड़ रकबे वाले कृषक से 2500 रुपये, दो से पांच एकड़ वाले कृषक से पांच हजार रुपये एवं पांच एकड़ से अधिक रकबे वाले कृषक से 15 हजार रुपये हर्जाना वसूलने का प्रावधान किया गया है।

पराली रोकने के लिए पंजाब एवं हरियाणा के किसानों पर निगरानी

इसके अलावा इसकी रोकथाम के लिए केंद्र ने पिछले साल पंजाब एवं हरियाणा के किसानों को 1150 करोड़ रुपये दिए और निगरानी शुरू की। 20,000 से अधिक मशीनें भी किसानों को दी गईं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2018 में पंजाब और हरियाणा के 4500 गांवों ने खुद को पराली जलाने से मुक्त घोषित कर दिया था। इन गांवों में अब तक पराली जलाने की एक भी घटना नहीं हुई है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से इस योजना से अलग भी किसानों को कई तरह की सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं ताकि पराली जलाने पर रोक लगाई जा सके। इनका असर भी इस बार दिख रहा है। उम्मीद है कि देश पराली जलाने की समस्या से जल्द ही मुक्त हो जाएगा।

( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैैं )