प्रदीप सिंह : लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत कुछ कहा, लेकिन कुछ अनकहा रह गया। उनके विरोधियों को इसी अनकहे से उम्मीद थी। मोदी ने उन्हें हमला करने का औजार नहीं दिया। उन्होंने लाल किले से न तो विपक्षी दलों पर हमला किया और न ही लोकसभा चुनाव की बात की। बहुत से लोगों को लग सकता है कि यह संबोधन राजनीतिक था, मगर वास्तविकता यही है कि यह संबोधन भारत के भविष्य की झलक दिखाने वाला था।

प्रधानमंत्री ने बताया कि वह 2047 में भारत की आजादी के शताब्दी वर्ष में देश को कहां देखना चाहते हैं और उसका रास्ता क्या होगा। मोदी के विरोधी उन्हें 2024 में उलझा हुआ देखना चाहते हैं। मोदी ने 77वें स्वतंत्रता दिवस पर देश और अपने विरोधियों को बताया कि वह 2024 की चिंताओं को कब का पीछे छोड़कर आगे निकल गए हैं। हां, उन्होंने देशवासियों को चेताया जरूर कि एक हजार साल पहले एक राजा हारा था और देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया। चेतावनी थी कि इतिहास से सबक सीखो और उस गलती को दोहराना मत, क्योंकि अगले पांच साल में मोदी जो कुछ करने की योजना बनाए हुए हैं वह आने वाले हजार सालों तक प्रभाव डालने वाले कामों की नींव रखेगा। देश अमृत महोत्सव से अमृतकाल में पहुंच गया है।

प्रधानमंत्री ने जब तीन चुनौतियों-भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टीकरण का उल्लेख किया तो लगा कि विपक्ष पर हमला कर रहे हैं। हालांकि, ऐसा सोचना उनके संबोधन की गुरुता को कम करने जैसा होगा। मोदी देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियों की बात कर रहे थे। ये चुनौतियां देश के विकास, सामाजिक न्याय और सबको समान अवसर देने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा हैं। यह अलग बात है कि देश के अधिकांश विपक्षी दल इन बुरी प्रवृत्तियों के शिकार हैं। प्रधानमंत्री देश के बारे में सोच रहे हैं और विपक्ष दलीय आग्रह से ऊपर उठने को तैयार नहीं है। मोदी की नजर में विपक्ष कोई चुनौती नहीं है। हां, इन बुरी प्रवृत्तियों को दूर करने में बाधक जरूर है।

मोदी के सोच में 2024 का लोकसभा चुनाव एक लंबे सफर में छोटा सा पड़ाव है, जहां बहुत देर तक रुकने की जरूरत नहीं है। विपक्ष के लिए यह पड़ाव नहीं लक्ष्य है। यह है दोनों के सोच का अंतर। एक देश से कम कुछ सोचने को तैयार नहीं है और दूसरे दलगत हित से ऊपर उठने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री देश में दो करोड़ महिला लखपति बनाने का लक्ष्य जल्द से जल्द हासिल करना चाहते हैं और उनके विरोधी सीटों के तालमेल की समस्या में उलझे हुए हैं। मोदी 2047 में भारत को विकसित देश की श्रेणी में देखना चाहते हैं और अगले पांच साल में देश को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी दे रहे हैं। विपक्ष कह रहा है कि वह तो अपने आप हो जाएगा। उसका सपना तो मोदी को सत्ता से हटाना है। प्रधानमंत्री को इस बात की प्रसन्नता और संतोष है कि पिछले पांच साल में साढ़े तेरह करोड़ देशवासी गरीबी से निकलकर नव मध्यवर्ग में शामिल हो गए। विपक्ष गदगद है कि कर्नाटक में भाजपा को हरा दिया।

जनतांत्रिक व्यवस्था में नेता का कद तय करने वाले तत्वों में एक महत्वपूर्ण तत्व होता है उसकी दृष्टि, उसके सपने देखने और उन्हें साकार करने की क्षमता। विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी हैं, क्योंकि उनकी पार्टी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है। संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल गांधी का भाषण और प्रधानमंत्री मोदी का भाषण बताता है कि दोनों के बीच के अंतर को पाटने के लिए 2047 तक का समय भी बहुत कम है। मणिपुर के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद का सत्र नहीं चलने दिया, लेकिन इसी मुद्दे पर गृहमंत्री अमित शाह की तथ्यात्मक और तार्किक बातों का जवाब देने का साहस भी किसी विपक्षी नेता में नहीं हुआ।

सत्तारूढ़ दल और आज के विपक्ष में सबसे बड़ा अंतर यही है कि एक सकारात्मक सोच से आगे बढ़ रहा है और दूसरा नकारात्मकता में जकड़ा हुआ है। विपक्ष अभी तक भविष्य के भारत की अपनी दृष्टि को देशवासियों के समक्ष रखने में असफल रहा है। एक पूरे देश को अपना परिवार मानता है और दूसरा परिवार को ही देश मानता है। पहले को लगता है कि देश बढ़ेगा तो देश भर के परिवार बढ़ेंगे, क्योंकि देश ही उसका परिवार है। दूसरे को लगता है कि उसके परिवार के विकास पर ही देश का विकास निर्भर है। एक की नजर में सामाजिक न्याय का अर्थ है सबको समानता की दृष्टि से देखना और समान अवसर देना। दूसरे को लगता है कि एक वर्ग के तुष्टीकरण से वोट मिलता है तो कोई बुराई नहीं है। एक की नजर में भ्रष्टाचार वह दीमक है जो देश के विकास को खोखला कर देता है। दूसरे को लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कहना करना सीधा उस पर हमला है। ऐसे में रहीम दास जी याद आते हैं। जो लिख गए कि-‘कहु रहीम कैसे निभै बेर केर को संग, वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।’

दोनों पक्षों में बुनियादी अंतर यही है कि मोदी जिन बुराइयों से लड़ने की बात करते हैं, विपक्ष को उन बुराइयों में कोई बुराई दिखती ही नहीं। शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच संवादहीनता है। संवाद के लिए सबसे आवश्यक शर्त है कि दोनों पक्षों में कुछ मुद्दों पर सहमति हो। इससे पहले कभी ऐसा नहीं रहा। देश के प्रधानमंत्री के लिए विपक्ष के बड़े नेता जिस तरह की भाषा का उपयोग करते हैं वह किसी तरह के संवाद की संभावना ही खत्म कर देती है।

हालांकि, विपक्षी दलों की सबसे बड़ी समस्या संवादहीनता नहीं कुछ और है। विपक्षी दलों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी में कोई अच्छाई दिखती नहीं और देश का मतदाता मोदी की कोई बुराई देखने को तैयार नहीं है। इसकी काट विपक्ष को खोजे नहीं मिल रही। इसलिए विपक्षी नेता आपको हर समय खीझे हुए दिखाई देंगे। वे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की आलोचना कम और उनके विरुद्ध बोलने के लिए अपशब्द खोजने में ज्यादा समय लगाते हैं। इसलिए संसद नहीं चलने देते कि सत्तारूढ़ दल को बोलने का मौका मिलेगा। इस चक्कर में अपना कितना मौका गंवा देते हैं, इसका आकलन भी नहीं करते। संसद के सत्र दर सत्र विपक्ष की एक ही रणनीति है कि संसद को ठप कर दो।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)