राजनीति से रंगा इतिहास लेखन: शिक्षा संस्थानों के जरिये वामपंथियों का अपनी विचारधारा को आगे रखने का प्रयत्न
वास्तव में वामपंथियों ने शिक्षा संस्थानों के जरिये एक सोची-समझी रणनीति के तहत अपनी विचारधारा को आगे रखने का प्रयत्न किया। उन्हें लगा कि यदि इतिहास और समाजशास्त्र को उनकी इच्छानुसार लिखा जाए तो भावी पीढ़ी माक्र्स-लेनिन-माओ को पूरी तरह स्वीकार कर लेगी।
जगमोहन सिंह राजपूत: अपने देश में इतिहास से जुड़े प्रसंगों को लेकर होने वाली बहस कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती। किसी न किसी बहाने यह बहस जारी ही रहती है। यह सिलसिला खत्म नहीं होने वाला, लेकिन यह स्मरण रहे कि जो इतिहास बन चुका है, उसका सही तथ्य-आधारित वर्णन इतिहास लिखने वालों की बुद्धि, विद्वता, वस्तुनिष्ठता, ईमानदारी और नए ज्ञान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है।
किसी की प्रशंसा किसी के दबाव में या किसी विचारधारा के पोषण के लिए लिखा गया इतिहास वास्तव में इतिहास और नई पीढ़ियों के प्रति अन्याय ही कहा जाएगा। दुख की बात है कि अनेक कारणों से स्वतंत्र भारत में ऐसा ही होता रहा है। यहां वस्तुनिष्ठ इतिहास की उपलब्धता दुर्लभ रही है। वस्तुनिष्ठ इतिहास वही लिख सकता है, जो अपनी व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं से ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से भी मुक्त हो। अपेक्षा तो यह थी कि प्रजातंत्र आने के बाद भारत में इतिहास लेखन की एक जागृत, सत्य-निष्ठ तथा विद्वतापूर्ण परंपरा जन्म लेगी और भारत का इतिहास सत्य-शोधक व्यक्तियों के प्रयास से ईमानदारी से लिखा जाएगा, लेकिन ऐसा हो न सका।
यह भावी पीढ़ियों के लिए विडंबना ही मानी जाएगी कि स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस सरकार वामपंथी विचारधारा से अत्यंत प्रभावित रही है। शिक्षा और शोध के क्षेत्र में भी इसी विचारधारा का पोषण करने वालों को लगातार प्रोत्साहन दिया गया। इनका एक वर्ग स्थापित हो गया, जिसने अपने वर्चस्व का पूरा उपयोग किया। इसका सीधा अर्थ था कि जो हमारे विचारों के अनुसार न चले, वह त्याज्य है। न उसे नियुक्ति मिलेगी, न ही कोई प्रोत्साहन या सहायता। परिणामस्वरूप सारा इतिहास लेखन एकांगी हो गया। 1961 में स्कूली शिक्षा और अध्यापक शिक्षा पर केंद्र एवं राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए एनसीईआरटी की स्थापना हुई। इसने जो पाठ्यक्रम बनाए और पाठ्य पुस्तकें लिखीं, वे सारे देश में स्वीकार्य हुईं। एनसीईआरटी की पुस्तकों का सारा कार्य केवल वामपंथियों ने ही किया।
वास्तव में वामपंथियों ने शिक्षा संस्थानों के जरिये एक सोची-समझी रणनीति के तहत अपनी विचारधारा को आगे रखने का प्रयत्न किया। उन्हें लगा कि यदि इतिहास और समाजशास्त्र को उनकी इच्छानुसार लिखा जाए तो भावी पीढ़ी माक्र्स-लेनिन-माओ को पूरी तरह स्वीकार कर लेगी। इसी कड़ी में एनसीईआरटी की इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के लेखक प्रख्यात इतिहासकार बने। उन्हें सरकारों का अपेक्षा से भी अधिक सहयोग मिला। सारे देश को बताया गया कि इन 'प्रगतिशील वैज्ञानिक सोच’ के इतिहासकारों के हाथों में शिक्षा सुरक्षित है, जबकि वास्तविकता कुछ और थी।
बच्चे जो इतिहास पढ़ रहे थे, उसमें भारत की गौरवशाली परंपराओं, उपलब्धियों, मान्यताओं को कोई स्थान नहीं दिया गया था। यही नहीं, उनका उपहास उड़ाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी गई। 1977 में इन पुस्तकों में सुधार और बदलाव के लिए अनेक इतिहासकारों, शोधकर्ताओं द्वारा समय-समय पर अनेक सुझाव दिए गए, प्रमाण प्रस्तुत किए गए, लेकिन वामपंथी लेखकों ने इन पर ध्यान नहीं दिया। 1999 में यह प्रकरण फिर से उठाया गया, लेकिन अनेक दशकों बाद सत्ता और संस्थानों पर नियंत्रण से अलग हुए इतिहास लेखक इस कार्य को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते थे। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की कि शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है और हिंदुत्व को बढ़ावा दिया जा रहा है, इसे तुरंत रोका जाए। एनसीईआरटी ने अपना पक्ष न्यायालय के समक्ष पूरी ईमानदारी से रखा। परिणामस्वरूप सितंबर, 2002 को सर्वोच्च न्यायालय की तीन-जजों की बेंच ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए एनसीईआरटी द्वारा प्रस्तावित सभी संस्तुतियों को पूरी स्वीकृति प्रदान कर दी। फिर इतिहास की भी नई पुस्तकें बनीं। वामपंथियों ने उनकी आलोचना करने में मीडिया का भरपूर उपयोग किया। अलीगढ़ में एक पुस्तक छापी गई, जिसमें नई पाठ्य पुस्तकों में 'गलतियों’ को उजागर किया गया था।
एनसीईआरटी ने पुस्तक का उत्तर एक पुस्तक से ही दिया। दुर्भावना से तैयार की गई पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों के तोड़ने-मरोड़ने के प्रयास को शोध और खोजों के आधार पर देश के समक्ष प्रस्तुत किया। आखिर स्कूली शिक्षा के किसी भी विषय में 40-50 वर्ष पहले लिखी गई पुस्तक कब तक चल सकती है? उसे कभी बदलना तो पड़ेगा ही। किसी भी राजनीतिक विचारधारा का पोषण करने वाले इतिहास लेखन में सुधार तो अवश्यंभावी है। 2011 में आई कक्षा 11 की इतिहास की पुस्तक 'मध्यकालीन भारत’ में औरंगजेब का महिमामंडन किया गया और गुरु तेगबहादुर को संदेह की दृष्टि से देखा गया। औरंगजेब की यह जो छवि गढ़ी गई, उसके दुष्परिणाम आज भी देश के सामने आते रहते हैं। इस पर हैरानी नहीं कि औरंगाबाद का नाम बदले जाने का विरोध शुरू हो गया है। इसके पहले दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने का भी विरोध हुआ था।
कक्षा 11 की एक पाठ्य पुस्तक में लिखा गया है, 'आरंभ के अधिकांश तीर्थंकर अर्थात 15वें तीर्थकर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के बताए गए हैं, इसीलिए उनकी ऐतिहासिकता नितांत संदिग्ध है। मध्य गंगा का कोई भाग ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पहले ठीक से आबाद नहीं हुआ था। स्पष्ट है कि इन तीर्थंकरों की मिथक कथा जैन-संप्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई है। स्पष्ट है कि जो ऐसा इतिहास पढ़ेगा, वही सर्वोच्च न्यायालय में यह शपथ-पत्र दाखिल करेगा कि राम कभी हुए ही नहीं थे। देश को राजनीति से रंगे इस इतिहास से छुटकारा तो पाना ही होगा।
(एनसीईआरटी के निदेशक रहे लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)