केसी त्यागी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा जातिगत जनगणना के आंकड़े उजागर करने के बाद जाति, आरक्षण और उसके वर्गीकरण पर बहस पहले से तेज हो चली है। उल्लेखनीय है कि वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू करने के समय पिछड़ों की संख्या 52 प्रतिशत आंकी गई थी, लेकिन बिहार की जातिवार गिनती में इसके 65 प्रतिशत रहने का अनुमान है।

यह सही है कि वर्तमान में इस मुद्दे को लेकर वीपी सिंह के दौर वाली कटुता नहीं, लेकिन विपक्षी दल अवश्य इस मुद्दे पर आक्रामक हैं। मंडल आयोग की रपट लागू होते समय राजीव गांधी नेता प्रतिपक्ष थे। उन्होंने न सिर्फ वीपी सिंह सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्तुत किया, बल्कि जाति आधारित आरक्षण का भी विरोध किया।

बेहतर हो कि कांग्रेस अपनी सरकार के दौरान कर्नाटक में कराई गई जातिगत गणना के आंकड़े सार्वजनिक करे और अपने शासन वाले अन्य राज्यों में भी जातिगत गणना कराए। तभी राहुल गांधी की मुहिम में ईमानदारी झलकेगी।

अपने देश में जाति पर विमर्श लंबे समय से चला आ रहा है। जिस प्रकार डा. आंबेडकर जाति व्यवस्था को प्रगति के खिलाफ मानते थे, उसी प्रकार समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया जाति को एक ऐसी जकड़न मानते थे, जिसमें मेहनत एवं गुण की अपेक्षा जन्म किस जाति में हुआ है, उसके आधार पर व्यक्ति का समाज में स्थान निर्धारित होता है।

ऐसी व्यवस्था में कौशल, गुण और प्रतिभा जैसे सभी पहलू दब जाते हैं। चूंकि इस व्यवस्था में कुछ विशिष्ट तबकों को ही खास हुनर सीखने का अधिकार दिया जाता है, इसलिए समाज के बहुसंख्यक लोगों की प्रतिभा को न तो उभरने दिया जाता है न ही उसका सदुपयोग होता है। ऐसे समाज में प्रगति एवं विकास के रास्ते भी अवरुद्ध हो जाते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने इन्हीं अवरोधों को दूर करने के उपाय किए थे।

संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रविधान 10 वर्षों के लिए किया था, लेकिन कतिपय कारणों से इसे विस्तार दिया जाता रहा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि समाज में आज भी सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी मौजूद है। कुछ लोग समय-समय पर यह भी तर्क देते रहते हैं कि भारतीय राजनीति में जातिवाद बढ़ता जा रहा है।

लगता है कि ऐसा कहने वाले यह नहीं समझ पाते कि संसद और राज्य की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए राजनीतिक आरक्षण की जो व्यवस्था की गई उसी कारण से इन वर्गों के इतने सांसद और विधायक चुनकर आते हैं।

यदि इन समुदायों के लिए राजनीतिक आरक्षण न होता तो संसद और विधानसभाओं में उनके सदस्यों की जो संख्या दिखाई देती है, शायद वह नहीं दिखाई पड़ती।

देश में जातीय राजनीतिक तस्वीर को सबसे पहले भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर ने बदला, जिन्होंने वंचित तबकों में राजनीतिक चेतना जागृत की थी। हालांकि इसका खामियाजा उन्हें बिहार में अपनी सत्ता गंवाने के रूप में भुगतना पड़ा।

जहां बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने यह अलख जगाई, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर जातीय राजनीतिक तस्वीर बदलने का श्रेय वीपी सिंह को जाता है, जिन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया। हालांकि वीपी सिंह का भी वही राजनीतिक हश्र हुआ, जो कर्पूरी ठाकुर का हुआ था।

राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी के अनुसार भारत में जाति के राजनीतीकरण ने दलीय राजनीति के विकास में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने साबित किया कि जाति का राजनीतीकरण एक दोहरी प्रक्रिया है। जाति को राजनीति की उतनी ही जरूरत है, जितनी राजनीति को जाति की। जब जाति समूह राजनीति को अपनी गतिविधियों का क्षेत्र बनाते हैं, तभी उन समूहों को अपनी पहचान स्थापित करने और स्थिति बदलने का मौका मिलता है।

जो वंचित समुदाय सदियों से सामजिक-आर्थिक वंचना के शिकार थे, उनके लिए राजनीति में आने के लिए जाति एकमात्र औजार था। उनके पास अन्य कोई सामाजिक पूंजी नहीं थी। इसलिए बसपा के संस्थापक कांशीराम की मान्यता थी कि जब तक पिछड़ों और दलितों को सत्ता नहीं मिलेगी, तब तक उनके लिए सामाजिक-आर्थिक अवसर उपलब्ध नहीं होंगे।

यही कारण है कि उन्होंने राजनीति में जाति की कीमियागिरी बनाई और सरकार बनाने के साथ-साथ राजनीति में स्थापित वर्चस्ववाद को चुनौती भी पेश की। इस प्रकार राजनीति के माध्यम से जातिगत पहचानों ने अभिव्यक्ति के नए रूप ग्रहण कर लिए, जिसने सामाजिक व्यवस्था की मूल नैतिकता को बदलने का काम किया।

वर्तमान में देखें तो जाति आज भी राजनीतिक यथार्थ से ज्यादा सामाजिक यथार्थ है। यदि ऐसा न होता तो जिस कांग्रेस के राजीव गांधी ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के खिलाफ सदन में लंबा भाषण दिया था, उसी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने 2024 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए सामूहिक आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को खत्म करने के लिए संविधान संशोधन तक का वादा किया।

उन्होंने जातिगत जनगणना के साथ ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ देने का भी वादा किया है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसका कई राजनीतिक दल समर्थन करते हैं। भले ही वे इसे अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हों, लेकिन इसे सामाजिक न्याय के उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

अगर आज भी भारत की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में जाति का प्रश्न महत्वपूर्ण न होता तो सभी राजनीतिक दल संसद में जातिगत भेदभाव को लेकर बहस नहीं कर रहे होते। याद रहे कि आज भी जातिगत भेदभाव जारी है और यह भेदभाव तभी खत्म हो सकता है, जब वंचित तबकों का हरसंभव तरीके से प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और वे अपने लिए नीतियां बना पाएंगे।

(लेखक पूर्व सांसद और जदयू के वरिष्ठ नेता हैं)