सार्वजनिक परिवहन की सुध ली जाए, हवा को सबसे ज्यादा खराब कर रहा वाहनों से होने वाले उत्सर्जन
पश्चिमी देशों में भारतीय महानगरों की तुलना में वाहन ज्यादा हैं लेकिन उनकी निर्भरता सार्वजनिक वाहनों पर ज्यादा है। उन्होंने कम उत्सर्जन वाली गाड़ियों के उपयोग और उत्पादन पर जोर दिया है। बढ़ते कार्बनिक उत्सर्जन और उससे होने वाले प्रदूषण के प्रति विश्व सचेत भी हो रहा है लेकिन भारत में इसे लेकर जितनी चिंता जताई जाती है जमीनी हकीकत उससे कहीं दूर है।
उमेश चतुर्वेदी। चाहे शहरी परिवहन की चर्चा हो या फिर शहरों को प्रदूषण मुक्त बनाने का विचार, हर बार सार्वजनिक परिवहन पर जोर देने की बात होती है, लेकिन लगता है कि सार्वजनिक परिवहन को लेकर हमारे पास कोई ठोस रणनीति नहीं है। यह स्थिति तब है, जब जलवायु परिवर्तन पर हुए प्रत्येक सम्मेलन के दौरान यह संकल्प लिया गया था कि वर्ष 2035 तक परिवहन के जरिये होने वाले उत्सर्जन से मुक्ति पा ली जाएगी।
सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने से होने वाले फायदे को समझने से पहले हमें परिवहन से हो रहे पर्यावरण के नुकसान पर ध्यान देना चाहिए। हवा की गुणवत्ता पर खराब असर डालने में सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले उत्सर्जन का है, जो करीब 30 प्रतिशत है। एक वाहन पूरे साल में करीब 290 गीगाग्राम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता है। दिल्ली-एनसीआर के लोग इन दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रदूषण मानक से करीब 20 गुना ज्यादा जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं।
सिर्फ दिल्ली ही नहीं, समूचे उत्तर भारत का वायु गुणवत्ता सूचकांक खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। पिछले कुछ वर्षों से यह स्थिति नवंबर-दिसंबर में ज्यादा दिखने लगी है। जब ऐसी स्थिति होती है, तब वायु प्रदूषण के लिए पंजाब, हरियाणा आदि में जलाई जाने वाली पराली को जिम्मेदार ठहराया जाने लगता है। इसमें दोराय नहीं कि पराली जलाने से प्रदूषण बढ़ता है, लेकिन हकीकत यह भी है कि यह प्रदूषण मौसमी है। जबकि कुल प्रदूषण में औद्योगिक उत्सर्जन के बाद वाहनों से होने वाले उत्सर्जन की हिस्सेदारी काफी है। इन्हीं कारणों से दुनिया सार्वजनिक परिवहन का महत्व समझ रही है।
पश्चिमी देशों में भारतीय महानगरों की तुलना में वाहन ज्यादा हैं, लेकिन उनकी निर्भरता सार्वजनिक वाहनों पर ज्यादा है। उन्होंने कम उत्सर्जन वाली गाड़ियों के उपयोग और उत्पादन पर जोर दिया है। बढ़ते कार्बनिक उत्सर्जन और उससे होने वाले प्रदूषण के प्रति विश्व सचेत भी हो रहा है, लेकिन भारत में इसे लेकर जितनी चिंता जताई जाती है, जमीनी हकीकत उससे कहीं दूर है। परिवहन व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी जिस सरकारी तंत्र पर है, वह सार्वजनिक वाहनों के प्रति सही नजरिया नहीं रखता। इस प्रवृत्ति को पूरे देश में देखा जा सकता है। तंत्र का यह सोच सामने तब आता है, जब कोई वीआइपी हस्ती किसी इलाके से गुजरती है। ऐसी किसी वजह से नियंत्रण के दायरे में सिर्फ सार्वजनिक परिवहन ही आते हैं।
दिल्ली में ही जब पुलिस कहीं परिवहन प्रतिबंधित करती है तो उस इलाके में बसें और आटो पर रोक होती है, लेकिन निजी कारों पर वह रोक नहीं लगाती। इससे दो तरह का नुकसान होता है। सार्वजनिक परिवहन से यात्रा करने वाले यात्री संबंधित क्षेत्र में स्थित अपने दफ्तर नहीं जा पाते। फिर उन्हें लगता है कि पेट काटकर ही सही, कार या बाइक खरीद लेनी चाहिए। इससे सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था हतोत्साहित होती है।
दूसरी गड़बड़ी होती है कि एक बस में औसतन जहां 40-50 यात्री सवार होते हैं, वहीं एक कार में औसतन एक ही व्यक्ति होता है। जाहिर है कि प्रति व्यक्ति प्रदूषण भी बढ़ता है। ज्यादा कारों का मतलब है ज्यादा प्रदूषण, लेकिन प्रदूषण पर चिंतित होने और सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की दुहाई देने वाली व्यवस्था का इस पर ध्यान नहीं रहता। अव्वल तो होना यह चाहिए कि नियंत्रण वाली स्थिति के दौरान सार्वजनिक परिवहन को उस रास्ते से गुजरने देना चाहिए। जबकि कारों या ऐसे ही दूसरे निजी वाहनों के आवागमन को नियंत्रित करना चाहिए। इसके अलावा सड़कों को ट्रैफिक जाम और अतिक्रमण से भी मुक्त किया जाना चाहिए, क्योंकि जब वाहन धीमी गति से चलते हैं, तो उनसे होने वाला उत्सर्जन भी बढ़ जाता है।
दुनिया में आटोमोबाइल उद्योग में जब उछाल आता है तो इसे आर्थिकी के विकास के तौर पर स्थापित किया जाता है। इसके दूसरे पक्ष को भुला दिया जाता है। वह पक्ष इन वाहनों से होने वाले प्रदूषण का होता है। इंटरनेशनल रोड फेडरेशन के अनुसार 2020 में भारत में 32.63 करोड़ वाहन थे। इनमें करीब 75 प्रतिशत दोपहिया थे। तब से लेकर जुलाई 2023 तक इस संख्या में करीब दो करोड़ से ज्यादा नए वाहन जुड़ गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा निजी वाहन हैं, जबकि सार्वजनिक वाहनों की संख्या बेहद कम है। इसीलिए कई बार न चाहते हुए भी लोग अपने काम के लिए निजी वाहनों का इस्तेमाल करने को मजबूर होते हैं। इसकी पुष्टि बीते सितंबर में हुआ एक सर्वेक्षण भी करता है।
एक सार्वजनिक परिवहन एप के सर्वे के मुताबिक, देश के ज्यादातर यात्री भीड़भाड़ के चलते सार्वजनिक परिवहन से बचना चाहते हैं। देश में ऐसे यात्रियों की संख्या करीब 37 प्रतिशत है। इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि सार्वजनिक परिवहन विशेषकर बसों का कोई विश्वसनीय टाइम टेबल नहीं है। शहरी वर्ग के करीब 28 प्रतिशत यात्री इसी वजह से बस परिवहन से बचते हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन की तो हालत पूछना भी बेकार है। यही वजह है कि जैसे ही व्यक्ति की आर्थिक हैसियत ठीक होती है या फिर वह कर्ज लेकर भी वाहन लेने लायक स्थिति में आता है, निजी वाहन खरीदना पसंद करता है, ताकि सहज तरीके से वह और उसका परिवार यात्रा कर सके।
इन सब वजह से भारतीय सड़कें, विशेषकर शहरी सड़कें भीड़ से त्रस्त तो हैं ही, ध्वनि और वायु प्रदूषण से भी बदहाल हैं। अगर सार्वजनिक परिवहन दुरुस्त होता तो ऐसी स्थिति नहीं आती। अगर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुरक्षित होती तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ती, सड़कों पर दबाव कम होता, वाहनों का शोर कम होता और प्रदूषण में वाहन उत्सर्जन की हिस्सेदारी भी कम होती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)