जागरण संपादकीय: जाति प्रधान देश बनने की होड़, संस्कारों की रासायनिक प्रतिक्रिया में इंसान खत्म
भारत पहले राजा-महाराजा और जमींदार प्रधान देश था। आजादी के बाद कृषि प्रधान हो गया। धीरे-धीरे कुछ किसानों का खेती से मोहभंग हो गया और वे राजनीति में उतर आए। इस बीच सियासी दलों ने उगना शुरू कर दिया जिससे देश नेता और राजनीति प्रधान हो गया। तत्पश्चात विकास का क्रम प्रारंभ हुआ। सबसे पहले नेताओं ने अपना विकास किया।
कमल किशोर सक्सेना। कबीरदास जी कह गए हैं-'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान...', लेकिन जमाना ऐसा आ गया है कि जाति पूछनी पड़ती है। अभी इतनी गनीमत है कि गिरेबां पकड़कर या जमीन पर पटककर नहीं पूछी जाती। ज्ञान का क्या है, वह तो हमारे देश के कण-कण में बिखरा पड़ा है। यहां हर आदमी ज्ञानी, दूसरा महाज्ञानी, तीसरा घनघोर ज्ञानी और चौथा पहुंचा हुआ होता है। मगर जाति के बिना काम नहीं चलता। न चुनाव में और न चुनाव के बाद संसद में। ऊपर वाला जब किसी को दुनिया में भेजता है तो सिर्फ इंसान बनाकर। उसे जाति और मजहब का चोला वे लोग पहनाते हैं, जिन्हें पहले इंसान बनाकर भेजा गया था। इस प्रकार संस्कारों की रासायनिक प्रतिक्रिया में इंसान खत्म हो जाता है और सिर्फ जाति और मजहब रह जाता है।
भारत पहले राजा-महाराजा और जमींदार प्रधान देश था। आजादी के बाद कृषि प्रधान हो गया। धीरे-धीरे कुछ किसानों का खेती से मोहभंग हो गया और वे राजनीति में उतर आए। इस बीच सियासी दलों ने उगना शुरू कर दिया, जिससे देश नेता और राजनीति प्रधान हो गया। तत्पश्चात विकास का क्रम प्रारंभ हुआ। सबसे पहले नेताओं ने अपना विकास किया। तत्पश्चात भाई-भतीजा-पत्नी आदि स्वजनों का। देश में 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया गया और अपनी सात पुश्तों तक की गरीबी हटा दी गई। जात पांत के खिलाफ जितनी बातें की गईं, जाति को उतना ही मजबूत किया गया। इसी क्रम में देश भ्रष्टाचार, अपराध-दंगा और बेरोजगारी से होता हुआ अंततः जाति प्रधान की श्रेणी में आने को तत्पर है। जाति का राग अलाप रहे लोग कह रहे हैं कि ये अच्छे लक्षण हैं। अब हमें विकसित देश होने से कोई नहीं रोक सकता।
विकसित देशों में अभी ज्यादा जातिवाद हावी नहीं है, लेकिन जाति की राजनीति करने वाले कहते हैं कि यह उनका पिछड़ापन है। उनकी दलील है कि जब हमारा देश जाति गिनते-पूछते और बताते हुए विकसित देशों की पंक्ति में शामिल हो जाएगा तो उन्हें भी जातिवाद का महत्व समझ आ जाएगा। उसके बाद संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद के प्रमुख पदों पर भी जाति देखकर नियुक्तियां हों तो कोई आश्चर्य नहीं। संभव है कि विश्व बैंक कर्ज देने से पहले पिछड़े, दलित और अनुसूचित देशों में जातियों का संतुलन देखे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में पाकिस्तान जैसे राष्ट्रों को कर्ज देकर भूल जाने का नियम बना दिया जाए। किसी शासनाध्यक्ष की मौत पर शोक संदेश भी संबंधित उसकी जाति देखकर जारी किए जाएं। हो सकता है कि जातिवादी अनिवार्यता भविष्य की विदेश यात्राओं पर भी लागू हो जाए।
अभी हमारे यहां स्कूल और कालेजों में जातिवाद नहीं है। संभव है कि आगे चलकर जाति के अनुसार छात्र-छात्राओं को कक्षाओं में बिठाया जाए। शिक्षकों को भी अपनी जाति के छात्रों को पढ़ाने का आदेश मिले। अस्पतालों में डाक्टर अपनी ही जाति के मरीज का इलाज करें। खून चढ़ाते वक्त मरीज के ब्लड ग्रुप के स्थान पर उसकी जाति मैच करने को प्राथमिकता दी जाए। इमरजेंसी वार्ड में मरीज की गंभीर स्थिति के बजाय उसकी जाति को प्राथमिकता दी जाए। इसी तरह हो सकता है कि जातिवार होटल और रेस्तरां खुल जाएं, जिनमें गैर जाति के लोगों का प्रवेश निषेध हो। यदि कोई बेशर्मी से घुस ही आए तो उसे खाने में जमालघोटा मिलाकर खिला दिया जाए, ताकि उसे याद रहे कि कहां नहीं जाना चाहिए।
जातियों का यही वर्गीकरण पुलिस तथा अन्य सरकारी विभागों में भी कर दिया जाए। थाने के मुंशी जी केवल अपनी जाति वालों की रिपोर्ट दर्ज करें। दरोगा जी भी अपनी जाति के पीड़ित के यहां विवेचना के लिए जाएं और दूसरी जाति वालों को झूठे मुकदमे में फंसा दें। लूट, अपहरण, डकैती तथा अन्य अपराधों में अभी कोई पक्षपात नहीं किया जाता। इस मामले में पूरा समाजवाद है। देश का प्रत्येक नागरिक किसी भी जाति के किसी अपराधी से, किसी भी स्थान पर, किसी भी समय, लुटने-पिटने के लिए स्वतंत्र है। संभव है कि भविष्य में इस पर रोक लग जाए। अपनी जाति के गुंडों से हाथ-पैर तुड़वाने और दूसरी जाति के बदमाशों की सेवाएं लेने पर जुर्माने का प्रविधान हो जाए। इसी प्रकार सजातीय अपराधी उपलब्ध न होने पर विजातीय अपराधी के लिए ऊंची सिफारिशें भी लगवानी पड़ें। जाति जो न कराए, कम है।