राहुल गांधी की एक और यात्रा, कांग्रेस अपनी समानांतर राजनीति-रणनीति पर कायम
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए की जाने वाली यात्रा में मित्र दलों से भीड़ जुटाने और नारे लगाने भर के लिए भागीदारी की अपेक्षा राजनीतिक संवेदनशीलता और परिपक्वता की परिचायक नहीं है। भारत जोड़ो न्याय यात्रा सबसे ज्यादा 11 दिन उत्तर प्रदेश में रहेगी जहां से लोकसभा के 80 सदस्य चुने जाते हैं लेकिन सोनिया गांधी वहां से कांग्रेस की इकलौती सांसद हैं।
राज कुमार सिंह। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी एक और यात्रा पर निकलने वाले हैं। उनकी पिछली 140 दिवसीय यात्रा को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नाम दिया गया था। प्रस्तावित नई यात्रा ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा होगी।’ इससे इनकार नहीं कि निराश-हताश कांग्रेस संगठन में पिछली यात्रा से कुछ चेतना आई, लेकिन कोई बड़ा चुनावी लाभ नहीं मिला। पिछली यात्रा में राहुल ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लंबा समय गुजारा, लेकिन तीनों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गई।
जबकि 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इन राज्यों की सत्ता भाजपा से छीनी थी। वहीं कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की जीत में राहुल की यात्रा से ज्यादा भूमिका वहां पार्टी की संगठनात्मक सक्रियता और तत्कालीन राज्य सरकारों के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान की रही। तब भी कांग्रेस ने यात्रा को चुनाव से जोड़ने से इन्कार किया था, जैसे अब किया जा रहा है, लेकिन सभी जानते हैं कि राजनीति में असली खेल तो सत्ता का है। कन्याकुमारी से कश्मीर की पिछली यात्रा का मार्ग हो या 14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होकर 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होने वाली भारत जोड़ो न्याय यात्रा का मार्ग, उसमें चुनावी राजनीति का गणित ही मुख्य पहलू है।
पिछली यात्रा को दक्षिण से उत्तर की यात्रा करार दिया गया था तो इसे पूर्व से पश्चिम की यात्रा बताया जा रहा है। बेशक मणिपुर में चुनाव नहीं हैं, लेकिन वहां जारी जातीय हिंसा राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक के विरुद्ध विपक्ष का बड़ा मुद्दा है। 67 दिनों में 6,713 किमी की यह यात्रा 15 राज्यों के 110 जिलों और 100 लोकसभा क्षेत्रों से गुजरेगी। ऐसे में यात्रा के दौरान उठाए जाने वाले मुद्दे राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक, जो भी हों, उनके निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा ही रहेंगे। जब लोकसभा चुनाव बमुश्किल तीन महीने दूर हों, तब ऐसा होना अप्रत्याशित भी नहीं, लेकिन राहुल गांधी की प्रस्तावित यात्रा ने खुद उनके सहयोगी दलों एवं नेताओं को असहज कर दिया है। ध्यान रहे कि भारत जोड़ो यात्रा को अराजनीतिक बताया गया था और तब तक विपक्षी गठबंधन भी नहीं बना था। जबकि इस नई यात्रा को बाकायदा कांग्रेस का राजनीतिक कार्यक्रम कहा गया है। पिछली यात्रा का हवाला देते हुए ही इसमें ‘भारत जोड़ो’ शब्द शामिल किया गया है।
यह समझना भी मुश्किल नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान और उसके बाद भी राहुल गांधी और कांग्रेस द्वारा भाजपा और उसकी सरकारों पर लगाए जाते रहे आरोप ही नई यात्रा में सुनाई पड़ेंगे। कायदे से आइएनडीआइए के घटक दलों को राहुल गांधी की नई यात्रा से उत्साहित होना चाहिए, लेकिन ‘बरातियों’ जैसा व्यवहार उन्हें आहत कर रहा है। आइएनडीआइए बन जाने के बावजूद नवंबर में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने घटक दलों को भाव नहीं दिया। नतीजतन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आप, सपा और जदयू जैसे साथी दलों ने भी अपने प्रत्याशी उतारे। भाजपा की जीत इतनी बड़ी रही कि आइएनडीआइए के आपसी टकराव को ही उसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि घटक दल आपस में नहीं टकराते तो शायद कई सीटों का परिणाम अलग होता। चुनाव परिणामों के बाद लगा था कि शायद कांग्रेस को मित्र दलों से तल्खी का अफसोस है, लेकिन राहुल गांधी की यात्रा का एकतरफा फैसला यही बताता है कि आइएनडीआइए में होते हुए भी कांग्रेस अपनी समानांतर राजनीति-रणनीति पर काम कर रही है। बेशक गठबंधन में रहते हुए सभी दल अपनी-अपनी राजनीति करते ही हैं, लेकिन जिस मुख्य चुनावी चुनौती के लिए विपक्षी एकता की कवायद की गई, उससे तीन महीने पहले भी अलग-अलग राग अलापने से जनता में सकारात्मक संदेश नहीं जाएगा।
यह ठीक है कि कांग्रेस राहुल की नई यात्रा की तैयारियों के साथ ही आइएनडीआइए के घटक दलों से सीट बंटवारे पर चर्चा भी कर रही है, पर गठबंधन धर्म ही नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति की दृष्टि से भी बेहतर होता कि यात्रा के निर्णय में मित्र दलों को शामिल किया जाता। संभव है कि यात्रा के बजाय संयुक्त चुनावी अभियान का सुझाव आता, जो रणनीतिक रूप से गलत भी नहीं होता। इसे कांग्रेस या राहुल की यात्रा के बजाय आइएनडीआइए की यात्रा का रूप देने का सुझाव भी आ सकता था। वह भी एक तरह से अघोषित चुनावी अभियान होता, मगर एक बड़ा फर्क यह होता कि तब घटक दल सार्वजनिक रूप से न्योते गए ‘बराती’ की तरह महसूस नहीं करते और उनके संगठन भी जोरशोर से जुटते। उससे जनता के बीच विपक्षी एकता का बड़ा संदेश जाता और शायद उसके पक्ष में माहौल भी बनता।
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए की जाने वाली यात्रा में मित्र दलों से भीड़ जुटाने और नारे लगाने भर के लिए भागीदारी की अपेक्षा राजनीतिक संवेदनशीलता और परिपक्वता की परिचायक नहीं है। भारत जोड़ो न्याय यात्रा सबसे ज्यादा 11 दिन उत्तर प्रदेश में रहेगी, जहां से लोकसभा के 80 सदस्य चुने जाते हैं, लेकिन सोनिया गांधी वहां से कांग्रेस की इकलौती सांसद हैं। सपा वहां सबसे बड़ा विपक्षी दल है। विधायक संख्या की दृष्टि से तो रालोद भी कांग्रेस से बड़ी पार्टी है। क्या सपा-रालोद अपने कार्यकर्ताओं-समर्थकों को इस यात्रा में भागीदार बनने के लिए प्रेरित कर पाएंगे? बिहार में भी कांग्रेस महागठबंधन में तीसरे नंबर की पार्टी है।
आखिर अपेक्षित सम्मान के बिना राजद या जदयू के कार्यकर्ता-समर्थक यात्रा में क्यों आना चाहेंगे? बंगाल में भी कांग्रेस की जमीनी हालत किसी से छिपी नहीं है। फिर ममता बनर्जी को विश्वास में लिए बिना यात्रा को वहां तृणमूल का साथ कैसे मिल पाएगा? महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में विभाजन से पहले कांग्रेस विपक्ष में तीसरे नंबर की ही पार्टी थी, लेकिन दोनों में विभाजन के बाद अब वह बड़े भाई की तरह व्यवहार करना चाहती है। मित्र दलों के मन में एक बड़ा सवाल यह भी है कि राहुल गांधी की यात्रा की सफलता के लिए दिन-रात एक कर देने वाली कांग्रेस के पास क्या इतनी संगठनात्मक क्षमता है कि वह लोकसभा चुनाव के लिए समानांतर तैयारियां कर सके, क्योंकि यात्रा 20 मार्च को समाप्त होगी। चुनावों की घोषणा उससे पहले ही हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)