धर्म और राजनीति का संबंध: अपनी-अपनी मर्यादा में मिलकर काम करने ही होगा सही विकास
भारत का धर्म ईसाईयत या इस्लाम की तरह पंथ नहीं है। यह प्रकृति और मनुष्यता की आदर्श आचार संहिता है। यहां आदिकाल से धर्म और राजनीति सहगामी रहे हैं। समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने धर्म और राजनीति को एक ही बताया था। कहा था ‘राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति। धर्म का काम है शुभ की स्थापना और अच्छाइयों की ओर प्रेरित करना।
हृदयनारायण दीक्षित। धर्म और राजनीति का सहअस्तित्व लोकमंगलदाता है। श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर सैकड़ों वर्ष से राष्ट्रीय अभिलाषा है। अनेक प्रयास हुए। अनेक जीवन गए। व्यापक संघर्ष हुआ, लेकिन तत्कालीन राजनीति धर्म के साथ नहीं खड़ी हुई। अब राजनीति और धर्म के कर्तव्यपालन से करोड़ों लोगों का स्वप्न पूरा हुआ है। स्वतंत्र भारत में धर्म और राजनीति के बीच शत्रुता का भाव था। यहां धर्म और आधुनिक राजनीति के रिश्ते यूरोपीय माडल से संचालित होते रहे थे। यूरोप में राजव्यवस्था और चर्च के मध्य अधिकारों को लेकर लंबा संघर्ष चला। संघर्ष टालने के लिए चर्च और राजा के कार्यों में विभाजन हुआ। सांसारिक कार्य राजनीति और राजव्यवस्था के हिस्से आए और पंथिक कार्य चर्च को मिले। यही माडल भारत आया। यहां पंथ का अर्थ धर्म हो गया। राजनीति और धर्म अलग हो गए। राजनीति निंदित क्षेत्र हो गया और धर्म सांप्रदायिक। सामान्य घटनाओं पर भी लोग टिप्पणी करते हैं कि इस काम में राजनीति नहीं होनी चाहिए। संप्रति राजनीतिक-संवैधानिक संस्थाओं और धर्म के मध्य अच्छे संबंध नहीं हैं। जबकि कायदे से प्रत्येक चुनौतीपूर्ण काम में आदर्श राजनीति होनी चाहिए।
भारत का धर्म ईसाईयत या इस्लाम की तरह पंथ नहीं है। यह प्रकृति और मनुष्यता की आदर्श आचार संहिता है। यहां आदिकाल से धर्म और राजनीति सहगामी रहे हैं। समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने धर्म और राजनीति को एक ही बताया था। कहा था, ‘राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति। धर्म का काम है शुभ की स्थापना और अच्छाइयों की ओर प्रेरित करना। राजनीति का काम है बुराइयों से लड़ना। धर्म अच्छाई न करे और स्तुति करता रहे तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराइयों से नहीं लड़ती, केवल निंदा करती है, तो वह झगड़ालू हो जाती है।’ लोहिया ने धर्म और राजनीति के मूल तत्वों के सम्मिलन पर जोर दिया कि दोनों एक दूसरे से संपर्क न तोड़ें। हालांकि सेक्युलर धारणा के यूरोपीय माडल में राजनीति में धर्म प्रेरणा की कोई गुंजाइश नहीं। इस्लाम और ईसाईयत पंथ या रिलीजन हैं। पंथ मजहब धर्म नहीं हैं, लेकिन इन्हें भी धर्म कहा जाता है। धर्म एक है, लेकिन सर्व धर्म समभाव की चर्चा होती है। पंथनिरपेक्षता को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। सभी धर्मों को समान बताया जाता है। जबकि बृहदारण्यक उपनिषद में धर्म की परिभाषा है कि धर्म प्रकृति के सभी भूतों का मधुसार है और समस्त भूत धर्म के मधुसार हैं।
धर्म में ब्रह्मांड की सभी गतिविधियां सम्मिलित हैं। सभी जीवों के प्रति आदर्श व्यवहार धर्म संहिता का ही भाग है। मनुष्य आदिम काल से ही आनंद अभिलाषी है। वह सुंदर, सुरक्षित, सुखी और संपन्न भूक्षेत्र में रहना चाहता है। ऋग्वेद में स्तुति है कि ‘जहां आनंद, मुद, मोद एवं प्रमोद हैं। जहां कामनाएं तृप्त होती हैं, हमें वहां स्थान दें।’ ऐसे सुखों के लिए आदर्श राजव्यवस्था एवं राजनीति चाहिए। प्रार्थना है, ‘जहां विवस्वान का पुत्र राजा है, सदानीरा नदियां हैं, आनंद का द्वार है। हमें वहां स्थान दें।’ राजव्यवस्था विहीन भूक्षेत्रों में अराजकता होती है। वाल्मीकि और व्यास ने राजव्यवस्था विहीन क्षेत्रों की दुर्दशा का वर्णन किया है। यह हाब्स के सामाजिक संविदा सिद्धांत से मिलता-जुलता है। भारत में धर्म प्रेरित राजधर्म और राजनीति का विकास ईसा के लगभग 5000 वर्ष पहले ही शुरू हो गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र की राजनीति राष्ट्रधर्म प्रेरित है। इसकी तुलना मैकियावली की ‘प्रिंस’ से होती है।
भारत में धर्म और राजनीति के मध्य आत्मीय संबंध रहे हैं। गांधीजी की राजनीति धर्म प्रेरित थी। उन्होंने ‘धर्म को एक’ बताया था। लोकमान्य तिलक की राजनीति का अधिष्ठान धर्म था। पुरुषोत्तम दास टंडन धर्म प्रेरित थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री की आपत्ति के बावजूद सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में सम्मिलित हुए थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी धर्म से प्रेरित थे और बिपिन चंद्र पाल भी। पंडित मदन मोहन मालवीय की राजनीति धर्म प्रेरित थी। राजनीति धर्म निर्देशित नहीं, अपितु धर्म प्रेरित थी। वैदिक काल में राजा की शपथ धार्मिक विद्वानों द्वारा कराई जाती थी। ऋग्वेद में शपथ का उल्लेख है, ‘आपको अधिपति नियुक्त किया गया है। प्रजा आपकी अभिलाषा करे। आपके माध्यम से राष्ट्र का यश कम न हो।’ शपथ में राजकर्तव्य भी बताए गए हैं कि ‘हम सब कृषि, लोकमंगल, समृद्धि और सबके पोषण के लिए आपको स्वीकार करते हैं।’ राजा शपथ लेने के बाद प्रतिज्ञा करता था कि ‘मैं इस प्रतिज्ञा को तोड़ता हूं तो जीवन की सभी उपलब्धियां नष्ट हो जाएं।’ यहां धर्म और राजनीति साथ-साथ हैं।
स्वतंत्र भारत की राजनीति में पंथ-मजहब भी धर्म हो गए और राज्य धर्मनिरपेक्ष। शाहजहां धर्म-दर्शन से प्रभावित था। शाहजहां ने अपने पुत्र औरंगजेब को दर्शन पढ़ाने के लिए अध्यापक मुल्ला साहब की नियुक्ति की थी। औरंगजेब कट्टरपंथी मजहबी था। उसने अपने अध्यापक को पत्र लिखा, ‘तुमने वस्तुओं को लेकर अव्यक्त प्रसंग समझाए, जिनसे मन को कोई संतोष नहीं होता। इनका मानव समाज के लिए कोई उपयोग नहीं। तुमने यह नहीं सिखाया कि किसी शहर को कैसे घेरा जाता है या सेना कैसे व्यवस्थित होती है?’ डॉ. राधाकृष्णन ने ‘ए ट्रेजरी आफ वर्ड्स ग्रेट लेटर्स’ में संकलित इस पत्र का उल्लेख 1942 में ‘धर्म की आवश्यकता’ व्याख्यान में किया। डॉ. राधाकृष्णन धर्म दर्शन प्रेरित राजनेता थे। उनके व्यक्तित्व में राजनीति-धर्म का मिलन है। उन्होंने पंथनिरपेक्षता को अपने युग की मुख्य दुर्बलता बताया।
प्राचीन भारत में राजनीति शास्त्र के कई नाम प्रचलित थे। इसे दंडनीति, अर्थशास्त्र, राजधर्म, राजशास्त्र कहा जाता था। नीति शास्त्र सर्वाधिक प्रचलित था। नीति का अर्थ मार्गदर्शन होता है। वैदिक काल में सभा समितियों के संचालन के नियम धर्म प्रेरित थे। शुक्रनीति के अनुसार ‘धर्म रक्षा’ भी राजा का कर्तव्य था। जनक जैसे तमाम राजा धार्मिक गोष्ठियां कराते थे। धर्मविहीन राजनीति ने मजहबी तुष्टीकरण को सेक्युलरवाद कहा और सेक्युलर धर्म हो गया। स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा धर्म तत्व था। धर्म और राजनीति अपनी-अपनी मर्यादा में मिलकर काम करें। धर्मविहीन राजनीति लोकमंगल का उपकरण नहीं बन सकती।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)