धर्म के बगैर विज्ञान और विज्ञान के बगैर धर्म अधूरा है। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे से जुड़ने के बाद ही पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। दोनों को एक दूसरे का पूरक कहा जा सकता है और दोनों ही मनुष्य के लिए जरूरी हैं। धर्म मनुष्य को भीतर से सुंदर बनाता है और विज्ञान बाहर से। इस तरह दोनों का विवेकपूर्ण तालमेल मनुष्य को हर प्रकार से सुंदर बना सकता है और मानवता का कल्याण कर सकता है। धर्म और विज्ञान का समन्वय आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां धर्म आ जाता है, वहां विज्ञान की आवश्यकता कम हो जाती है और जहां विज्ञान की मात्रा बढ़ जाती है वहां धर्म को उतना स्थान छोड़ना पड़ता है। मनुष्य के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही अलग-अलग स्तर पर आवश्यक हैं। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे को अधिक उपयोगी बनाने में भारी योगदान दे सकते हैं। जितना सहयोग और आदान-प्रदान दोनों के बीच होगा, इनकी उपयोगिता उतनी बढ़ती जाएगी। धर्म और विज्ञान का परस्पर तालमेल जितना भारत में देखने को मिलता है, उतना कहीं और नहीं। हमारे ऋषि-मुनियों ने वर्षों पहले विज्ञान को न केवल धर्म के साथ जोड़ा, बल्कि लोगों को इसके व्यावहारिक ज्ञान के बारे में भी बतलाया। उनका मानना था कि यदि विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से संवारकर मनुष्य के कल्याण में लगाया जाए तो यह धर्म बन जाता है। यही वजह है कि हमारे वेद, उपनिषद, दर्शन आदि जितने धर्मग्रंथ हैं, उनमें विज्ञान पिरोया हुआ है।
हालांकि वर्तमान में समाज का एक वर्ग विज्ञान को चमत्कार और धर्म को आडंबर समझने लगा है और उसका मानना है कि विज्ञान और धर्म साथ-साथ नहीं रह सकते, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि विज्ञान और धर्म दोनों का ही उद्देश्य मानव जाति का कल्याण करना है, तब दोनों एक-दूसरे के विरोधी कैसे हो सकते हैं। तथ्य यह है कि दोनों का स्वरूप और कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए वे एक-दूसरे पर आधारित नहीं हैं, लेकिन दोनों ही एक-दूसरे का समर्थन पाए बगैर अपनी उपयोगिता में कमी महसूस करते हैैं। विज्ञान को जानने वाला यह भी जान लेता है कि धर्म के बगैर विज्ञान अधूरा है। अल्बर्ट आइंस्टीन का कथन है कि धर्म के बगैर विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बगैर धर्म अंधा है। इस संबंध में स्वामी विवेकानंद का कथन है कि जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से अध्यात्म आरंभ होता है।
[ शंभूनाथ पांडेय ]