हृदयनारायण दीक्षित: ज्ञान का उद्देश्य जानकारी पाना ही नहीं होता। ज्ञान, विज्ञान और दर्शन में समस्त मानवता का हित निहित है। भारत में लगभग 5,000 वर्ष पहले से ही लोकमंगल हितैषी ज्ञान परंपरा है। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त में उल्लेख है, ‘प्रारंभिक दशा में पदार्थों के नाम रखे गए। यह ज्ञान का पहला चरण है। इनका दोष रहित ज्ञान पदार्थों का गुण, धर्म आदि अनुभूति की गुफा में छुपा रहता है और अंतःप्रेरणा से ही प्रकट होता है।’ वैदिक काल ज्ञान दर्शन का अरुणोदय काल है। यही परंपरा ऋग्वेद सहित चार वैदिक संहिताओं में विश्व की पहली ज्ञान सारिणी बनती है।

उत्तर वैदिक काल के उपनिषद दर्शन में खिलती है। फिर छह प्राचीन दर्शनों में जिज्ञासा एवं तर्क के साथ प्रकट होती है। यही बुद्ध और जैन दर्शनों में अभिव्यक्त होती है। इसी परंपरा में पाणिनि विश्व का पहला व्याकरण लिखते हैं। पतंजलि योगसूत्र और भाषा अनुशासन लिखते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र लिखते हैं। वात्स्यायन कामसूत्र लिखते हैं। भरतमुनि नाट्यशास्त्र लिखते हैं। चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्विज्ञान के आधारभूत ग्रंथ बनती हैं। ऐसे सभी विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हैं। वे अपने कार्य को प्राचीन ज्ञान परंपरा से जोड़ते हैं।

विज्ञान के विकास में गणित का विशेष महत्व होता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार शून्य का अविष्कार संभवतः हिंदुओं ने किया था। शून्य और शून्य के स्थानगत मूल्यों की जानकारी वैदिक काल में थी। प्राचीन भारत में गीत, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य सहित सभी ज्ञान अनुशासन फल-फूल रहे थे। ब्रिटिश राज में भारतीय ज्ञान परंपरा का सुनियोजित तिरस्कार हुआ। पश्चिमी ज्ञान और सभ्यता का प्रभाव बढ़ा। पश्चिम की प्रशंसा और भारतीय ज्ञान के प्रति हीन भाव पढ़ाया जाने लगा। इतिहास का विरूपण हुआ। समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि मानविकी विषयों का आरंभ लैटिन उद्धरणों से होने लगा।

वेदों को ‘चरवाहों के गीत’ कहा गया। भारतीय दर्शन को भाववादी बताया गया। ब्रिटिश विद्वानों और उनके समर्थक भारतीयों ने दावा किया कि अंग्रेजी राज के पहले भारत राष्ट्र नहीं था और अंग्रेजों ने ही उसे राष्ट्र बनाया। गांधीजी ने इसका खंडन किया। ब्रिटिश सत्ता भारत को असभ्य बता रही थी। उन्होंने अपनी संसद को संसदीय व्यवस्था की जननी बताया। जबकि उसके हजारों वर्ष पहले वैदिक काल के दौरान भारत में सभा थी। समितियां थीं। राजव्यवस्था थी। राजा निर्वाचित होता था।

यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय कला और सौंदर्यबोध का भी उपहास उड़ाया। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटक को विश्व के लिए इस प्रकार उपयोगी बताया था कि, ‘यह नाट्य संसार में वेदों, विद्याओं और इतिहास की गाथाओं की परिकल्पना करने वाला लोगों के मनोविनोद का भी कर्ता होगा।’ नाट्य में समस्त लोकों का अनुकीर्तन होता है। भरतमुनि ने नाटक के अभिनय पक्ष की प्रशंसा की। प्लेटो ने नाटक के अभिनय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। भरतमुनि ने संगीत और नृत्य परंपरा का भी उल्लेख किया है। महाभारत में अर्जुन अज्ञातवास के समय गीत, संगीत और नृत्य सीखते हैं। श्रीकृष्ण जैसे नृत्य अनुरागी देवता किसी अन्य सभ्यता-संस्कृति में नहीं मिलते। वाल्मीकि रामायण में किष्किंधा नगरी में नृत्य का उल्लेख है। उसमें कई आश्रमों में पेड़-पौधों को भी नाचते हुए बताया गया है।

भारत में सभी ज्ञान अनुशासनों का विस्तार वैदिक काल में हो चुका था। नाट्यशास्त्र में नारद एवं स्वाति के नाम हैं। स्वाति के विषय में उल्लेख है, ‘कमलपत्रों पर वर्षा की बूंदों से होने वाली धुन को सुनकर उनके मन में वाद्य निर्माण का विचार आया था।’ ऋग्वेद में नाट्य और संगीत से जुड़े तमाम यंत्रों और गीत-संगीत की चर्चा है। यह सब यूनानी दर्शन में नदारद है। भारतीय दर्शन में जो सुंदर है वह सत्य है और जो सत्य है वह शिव है। सुकरात ने सुंदर और शिव को एक ही बताया था। प्लेटो ने कहा कि सुंदर परम और पूर्ण है। सुंदर का नैतिक होना आवश्यक है।

योगी अरविंद ने यूरोपीय और भारतीय कला के भेद पर लिखा, ‘पश्चिमी मानस रूप के आकर्षण जाल में है। वह रूप सौंदर्य के कारण उसके प्रति आसक्त रहता है। भारतीय दृष्टि में रूप आत्मा का सृजन है।’ प्राचीन भारतीय कला के साक्ष्य ऋग्वेद में है। संगीत के सात सुरों की चर्चा है। सामवेद ज्ञान गान है। यजुर्वेद में भी छंद विधान है। अथर्ववेद में भरा पूरा संसार है। सौंदर्यशास्त्री केएस रामास्वामी ने ‘इंडियन एस्थेटिक्स’ में लिखा, ‘भारत में सौंदर्य शास्त्र की हजारों वर्ष पुरानी ज्ञान परंपरा है।’

ब्रिटिश राज में आदर्श मनुष्य की रचना का काम बाधित हुआ। विद्वान भी पश्चिमी विद्वानों के संदर्भों पर आश्रित हो गए। ब्रिटिश सत्ता ने पूरा पाठ्यक्रम बदला। शिक्षा का उद्देश्य ब्रिटिश प्रभुवर्ग के आज्ञाकारी सेवक तैयार करना हो गया। भारतीय ज्ञान परंपरा हाशिये पर धकेल दी गई। स्वतंत्र भारत में भी निरुपयोगी पाठ्यक्रम चलता रहा। चूंकि ऐसी पढ़ाई समग्र विकास में उपयोगी नहीं रही तो यह स्वीकार करने में कोई संदेह नहीं कि ज्ञान परंपरा के अनुसरण में पूरा पाठ्यक्रम बदलने की जरूरत है।

संप्रति नई शिक्षा नीति के अंतर्गत भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रशिक्षण का कार्यक्रम बनाया गया है। शिक्षक छात्रों को भारतीय ज्ञान से जुड़े उदाहरण ही देंगे। छात्रों के साथ विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थाओं के शिक्षकों को ज्ञान परंपरा की जड़ों से जोड़ने की पहल की गई है।

जड़ों से उखड़े वृक्षों पर फूल नहीं खिलते। पक्षी ऐसे वृक्षों पर गीत नहीं गाते। भारत की ज्ञान परंपरा विश्व में अनूठी और प्रथम है। समय और परिस्थितियों के कारण इस ज्ञान परंपरा के प्रवाह में बाधाएं आईं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान परंपरा बताई, ‘यह प्राचीन ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु को। मनु ने इक्ष्वाकु को। परंपरा से यही ज्ञान ऋषि जानते आए हैं। काल प्रवाह में यह ज्ञान नष्ट हो गया। हे अर्जुन! वही पुरातन ज्ञान मैं तुमको बता रहा हूं।’ श्रीकृष्ण प्राचीन ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने की बातें कर रहे थे। संप्रति यही काम नरेन्द्र मोदी की सरकार कर रही है। यह स्वागतयोग्य है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)