संजय गुप्त: स्‍वतंत्रता के बाद जब समान नागरिक संहिता को लेकर संविधान सभा में चर्चा हुई तो उस पर सहमति नहीं बन पाई, लेकिन उसकी आवश्यकता महसूस की गई और इसीलिए संविधान के नीति निदेशक तत्वों में यह लिखा गया कि सरकार देश के सभी लोगों के लिए समान नागरिक संहिता का निर्माण करेगी। संविधान लागू होने के कुछ ही समय बाद कई हिंदू संगठनों के विरोध के बाद भी हिंदू कोड़ बिल ले आया गया और उसे पारित भी करा लिया गया। इसके जरिये हिंदुओं में बहुविवाह जैसी प्रथाओं को निषेध किया गया और हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार देने के साथ उन्हें संपत्ति में भी हक दिया गया। माना जा रहा था कि हिंदू कोड़ बिल लाने के बाद समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में कदम उठाए जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। संकीर्ण राजनीतिक कारणों और वोट बैंक की सस्ती राजनीति के कारण इस विषय को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

हालांकि समय-समय पर उच्च न्यायालयों के साथ सर्वोच्च न्यायालय समान नागरिक संहिता की आवश्यकता जताता रहा, लेकिन किसी भी सरकार ने इस दिशा में ठोस पहल नहीं की। ऐसा तब हुआ, जब महिला अधिकारों की अनदेखी के मामले सामने आने पर समान नागरिक संहिता का विषय सतह पर आता रहा। ऐसा ही एक मामला शाहबानो का था। तलाक का शिकार मध्य प्रदेश की महिला शाहबानो ने जब भरण पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया तो उसने 20 रुपये प्रति माह गुजारा भत्ता देने के आदेश दिए।

शाहबानो के वकील पति अहमद खान, जो अच्छा-खासा कमाते थे, ने फैसले को चुनौती दी, लेकिन हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा और गुजारा भत्ता की राशि भी बढ़ा दी। मामला सुप्रीम कोर्ट आया। यहां भी शाहबानो के पक्ष में फैसला हुआ। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि अनुच्छेद 44 मृतपाय होकर रह गया है। ज्ञात हो कि इसी अनुच्छेद में समान नागरिक संहिता का निर्माण करने की बात कही गई है। तब सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पति का पक्ष लेने मुस्लिम पर्सनल बोर्ड की कड़ी आलोचना की थी और एक रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं किस तरह दयनीय दशा में रह रही हैं।

शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम संगठनों को रास नहीं आया। उन्होंने राजीव गांधी सरकार पर इस फैसले को पलटने का दबाव बनाया। प्रबल बहुमत के बाद भी राजीव गांधी सरकार कट्टरपंथी तत्वों के दबाव में आ गई और उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। इसके चलते मुस्लिम महिलाओं की अनदेखी का सिलसिला कायम रहा। जब राजीव गांधी सरकार को समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ाने चाहिए थे, तब उन्होंने संविधान की भावना के खिलाफ काम करते हुए कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के सामने हथियार डाल दिए। उच्‍चतम न्‍यायालय कई बार यह कह चुका है कि समान नागरिक संहिता बनाना उसका नहीं, विधायिका का काम है, लेकिन किसी सरकार ने इस बारे में नहीं सोचा। इसका एक कारण रहा मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति।

2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से लगातार समान आचार संहिता पर चर्चा हो रही है। इसलिए और भी, क्योंकि राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 के खात्मे के साथ समान आचार संहिता उसके मूल मुद्दों में शामिल है। 2018 में 21वें विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी कर समान नागरिक संहिता की पैरवी तो नहीं की, लेकिन पारिवारिक कानूनों में सुधार की आवश्यकता जताई। इसका मतलब था कि शादी, तलाक, भरण–पोषण, उत्‍तराधिकार एवं गोद लेने संबंधी कानूनों में सुधार किए जाएं। 22 वें विधि आयोग ने जबसे समान नागरिक संहिता पर सुझाव मांगे हैं, तबसे यह चर्चा चल पड़ी कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता बनाएगी। इस चर्चा को तब बल मिला, जब भोपाल में प्रधानमंत्री ने समान नागरिक संहिता की जोरदार पक्षधरता की। इसके बाद से राजनीतिक दल इस पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए हैं।

माना जा रहा है कि बेंगलुरु में विपक्षी दलों की जो बैठक होनी है, उसमें समान नागरिक संहिता पर भी चर्चा होगी। आम आदमी पार्टी ने समान नागरिक संहिता को सैद्धांतिक समर्थन देकर विपक्षी दलों के सामने एक मुसीबत खड़ी कर दी है। विपक्षी दल जो भी कहें, उन्होंने अपने रवैये से अपने लिए परेशानी खड़ी कर ली है, क्योंकि वर्तमान में कोई प्रगतिशील देश अपने नागरिकों के लिए अलग-अलग निजी कानूनों की पैरवी नहीं कर सकता।

प्रधानमंत्री की ओर से समान नागरिक संहिता की पैरवी किए जाने के पहले उत्तराखंड, गुजरात आदि भाजपा शासित प्रदेश इस तरह की संहिता के निर्माण की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान रहे कि गोवा में समान नागरिक संहिता पहले से ही लागू है। यह ठीक नहीं कि हर राज्य अपनी अलग समान नागरिक संहिता बनाए। यह केंद्रीय स्तर पर ही बननी चाहिए।

देश के सभी नागरिक बराबर हैं तो फिर उनके लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार आदि के कानून भी एक जैसे होने चाहिए। ऐसा होने से राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा, सभी नागरिकों में बराबरी का भाव पैदा होगा और महिलाओं के हितों की अनदेखी का सिलसिला थमेगा। अनेक मुस्लिम संगठन और विशेष रूप से मुस्लिम पर्सनल ला समान नागरिक संहिता के पक्ष में नहीं। वह अपने समाज को सदियों पुरानी शरिया के हिसाब से चलाना चाहता है। आज के युग में सदियों पुराने पारिवारिक कानूनों के लिए कोई जगह नहीं।

जहां यह अच्छी बात है कि कुछ मुस्लिम संगठन समान नागरिक संहिता पर सकारात्मक रुख दिखा रहे हैं, वहीं यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुस्लिम वोटों के कारण अनेक विपक्षी दल इस संहिता का विरोध कर रहे हैं या फिर ऐसे कुतर्क दे रहे हैं कि आखिर अभी इसकी बात क्यों की जा रही है? समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले इससे अपरिचित नहीं कि कई वर्गों और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन हो रहा है, लेकिन वे वोट बैंक के लालच में एक जरूरी सुधार से मुंह मोड़ रहे हैं। उनके पास ऐसे सवालों का कोई जवाब नहीं क्या आज के आधुनिक युग में बहुविवाह जारी रहना चाहिए या फिर क्या बेटे-बेटियों को संपत्ति में बराबर का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? विपक्षी दलों को यह आभास हो तो अच्छा कि वे समान नागरिक संहिता का विरोध करके अपना राजनीतिक नुकसान तो करेंगे ही, समाज सुधार में भी बाधक साबित होंगे।'

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]