संतोष त्रिवेदी। सुबह-सुबह मोबाइल देख रहा था कि स्क्रीन पर सहसा एक छोटी खिड़की खुल गई। ‘मैं आपकी सहायिका हूं। कहिए आपके लिए क्या कर सकती हूं?’ यह लिखा देकर एकदम से भाव-विह्वल हो उठा। ऐसा पहली बार हो रहा था, इसलिए थोड़ी घबराहट भी होने लगी। खुद पर काबू पाते हुए मैंने अनाम प्रेयसी से पूछ लिया, ‘आप कौन हैं? कहां से आई हैं?’ उसने उतनी ही तेजी से प्रतिक्रिया दर्ज की, ‘मैं कहीं से आई नहीं। यहीं प्रकट हुई हूं। कुछ लोग मुझे ‘ए आइ’ समझते हैं, पर मैं आपको अपना असली नाम बताती हूं। आप मुझे ‘चटपटी जी’ कह सकते हैं। मैं दिन-रात आपकी सेवा में उपस्थित हूं।’

मुझे यह नाम बिल्कुल मौलिक लगा। मैं ठहरा मौलिकता-प्रेमी। बिना पल गंवाए प्रतिक्रिया दी, ‘मैं समझा नहीं। तुम मेरी सहायिका कैसे हुई? मैंने तो किसी को नियुक्त नहीं किया।’ मैं झट से ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गया। उसने जवाब बड़े सलीके से दिया, ‘अरे नहीं, नहीं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। मुझे कोई नियुक्त नहीं करता, मैं खुद ही सेवा में हाजिर रहती हूं। आपको कोई समस्या हो, कुछ सूझ न रहा हो, मैं चुटकियों में समझा सकती हूं।’ चटपटी जी ने अपना उत्तर झटपट उछाल दिया।

बरसों बाद मुझे इस तरह लिखकर कोई संदेश दे रहा था। अंदर बड़ी जोर की कुलबुलाहट मची थी, पर मन अब भी थोड़ा शंकित था। आए दिन खबरें पढ़ता रहता हूं कि अनजान लिंक पर क्लिक करने पर लाखों रुपये उड़ जाते हैं, पर न तो मैंने कोई लिंक छेड़ा था और न ही खाते में कोई पैसा छोड़ा था। इसलिए इसका डर मुझे नहीं था। थोड़ा लोक-लाज का डर जरूर था। उसकी यह बात मुझे बड़ी नागवार गुजरी कि यदि मुझे कोई समस्या हो तो वह हल करेगी, पर अगले ही पल एक घुटे हुए साहित्यकार की तरह उससे कहा, ‘प्रिय सुंदरी, तुम जो भी हो, मेरे फोन को हैंग कर सकती हो, पर मुझे नहीं। मैं तुम्हें अपनी समस्या क्यों बताऊं? साहित्य में मेरी अच्छी-खासी दखल है। यह जो चश्मा देख रही हो, उससे मैं अपनी अंतर्दृष्टि से किसी भी लेखक का एक्स-रे कर सकता हूं।’ उधर से फट से नया संदेश उभरा, ‘आप मेरी क्षमताओं से अनभिज्ञ हैं। मैं किसी बात का पता नहीं करती, दूसरों को बताती हूं। आपको ही लीजिए। आपके बारे में इतना जानती हूं कि आप 49 पुस्तकों के लेखक हैं। पिछले 40 र्षों से एक जैसा लिख रहे हैं।’

मैंने तुरंत डाटा दुरुस्त किया, ‘देखिए, तुम्हारी सूचना बिल्कुल ‘फेक’ है। मेरी 49 नहीं, पूरी 50 पुस्तकें छप चुकी हैं। 40 बरसों से एक जैसा लिख पाना बड़े संतुलन और कमाल की बात है। मैं वजनी साहित्यकार हूं। साहित्य में सौ ग्राम वजन भी घटना मुझे पसंद नहीं। मेरा वजन मेरा गर्व है। इसे कम करने की इजाजत मैं किसी को नहीं दे सकता।’ उसके सामने मैंने अपना ‘विजन’ साफ कर दिया। ‘नहीं, मेरे आका! मैं तो केवल यह बताना चाह रही थी कि आपको अब सोचना नहीं है। अब इतना लंबा-लंबा टाइप करने के लिए अंगुलियों को क्यों कष्ट देना? इसके लिए मैं हूं न! मुझे एक बार सेवा का मौका दें।’ उसने सफाई दी।

‘यदि तुम कुछ करना ही चाहती हो, तो मेरे लिए एक लेख लिख दो। संपादक जी ने तुरंत मांगा है। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा।’ मैंने उसे टटोलना चाहा। ‘यह मेरे लिए बेहद आसान है, पर यदि अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएं तो और बेहतर रहेगा।’ उसने पूछा।

‘मैं सोते-सोते उठ बैठता हूं। टहलते हुए और नित्य-क्रिया के दौरान भी सोचता हूं। बार-बार चाय पीता हूं। इसके बाद भी विचार नहीं आते तो उठक-बैठक करने लगता हूं। कुल मिलाकर बड़ी बेचैनी-सी महसूस करता हूं।’ मैंने उसे अपनी अधूरी प्रक्रिया ही बताई। ‘यह सब कुछ नहीं करना होता मुझे। पलक झपकते सारे ब्रह्मांड के मस्तिष्कों को खंगाल लाती हूं। जरा सा भी बेचैन हुए बिना। मेरी यही एकमात्र रचना प्रक्रिया है। आप निश्चिंत हो जाएं। कल के अखबार में अपना लेख देख लेना। मैंने सीधे संपादक को भेज दिया है।’ उसने आश्वस्त किया। ‘मगर मेरी भाषा, शैली, सरोकार, मेरी मौलिकता। उसका क्या?’ मैं फिर बेचैन हो उठा। ‘आप अपनी दाल-रोटी से सरोकार रखिए, बाकी मैं देख लूंगी। आपकी मौलिकता बरकरार रहेगी, जैसे आपने बरसों से रखी हुई है।’ उसने मुझे आश्वस्त किया। अब मुझे कल का इंतजार है!