तय समय से पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित संसद के अंतिम दिन राज्यसभा में सपा सांसद जया बच्चन और सभापति जगदीप धनखड़ के बीच जो तीखी तकरार हुई, वह यही बताती है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच संबंध कितने अधिक कटुतापूर्ण हो गए हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कटु संबंध केवल राज्यसभा में ही नहीं, बल्कि लोकसभा में भी देखने को मिल रहे हैं। गत दिवस जया बच्चन सभापति जगदीप धनखड़ से इसलिए नाराज हो गईं, क्योंकि उन्हें उनका लहजा पसंद नहीं आया। उन्होंने उनके लहजे पर आपत्ति जताई तो सभापति ने भी उन्हें मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ा दिया। इससे वह आपे से बाहर हो गईं। संसद के भीतर और बाहर उनकी तुनकमिजाजी नई नहीं है।

वह कभी अपने आधिकारिक नाम जया अमिताभ बच्चन कहे जाने से चिढ़ जाती हैं और कभी इस पर गर्व करने लगती हैं। इस पर हैरानी नहीं कि विपक्ष ने जया बच्चन का साथ देना बेहतर समझा। उसने न केवल सदन का बहिष्कार कर दिया, बल्कि सभापति को हटाने के लिए प्रस्ताव लाने पर भी विचार करने लगा। इसके जवाब में नेता सदन जेपी नड्डा विपक्ष के आचरण के खिलाफ निंदा प्रस्ताव ले आए। फिलहाल कहना कठिन है कि विपक्ष सभापति को हटाने को लेकर कितना गंभीर है और इस मामले में वह कहां तक जाएगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में दोनों पक्षों के रिश्तों में और अधिक कड़वाहट घुल सकती है। यह कड़वाहट पहले भी थी, लेकिन लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद वह और अधिक बढ़ गई है। इसका असर संसद के कामकाज पर भी पड़ रहा है।

अब संसद में ऐसे सदस्यों की संख्या बढ़ती दिख रही है, जो हंगामा करने की कोशिश में रहते हैं और संसद के नियम-कानूनों और पीठासीन अधिकारी के आदेश-निर्देश की कहीं कोई परवाह नहीं करते। संसद में अब किसी भी विषय पर कठिनाई से ही कोई सार्थक बहस होती है। अधिकांश समय पक्ष-विपक्ष के सदस्य आपस में उलझे रहते हैं। किसी विषय पर धीर-गंभीर चर्चा करने के बजाय वे छींटाकशी करने, मिथ्या आरोप लगाने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में रहते हैं।

अब तो संसद में अपनी बात कहने के स्थान पर नारेबाजी करने पर अधिक जोर दिया जाने लगा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि यह सब इस कारण अधिक होता है, क्योंकि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होता है। चूंकि संसद में सार्थक चर्चा करने और कराने की कोई ठोस पहल नहीं होती, इसलिए वहां हंगामा और शोर-शराबा ही अधिक होता है। यदि संसद में लोक महत्व के विषयों पर गंभीर चर्चा नहीं होगी तो जनता से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वह उसे अपनी आकांक्षाओं का मंच और लोकतंत्र का मंदिर माने। यह भी तय है कि यदि संसद में सार्थक चर्चा नहीं होगी तो उसका असर विधेयकों की गुणवत्ता पर भी पड़ेगा।