फिर चांद को छूने चला चंद्रयान, सफलता चंद्रमा को अंतरिक्ष की दुर्लभ सूचनाओं के केंद्र के रूप में करेगी विकसित
मून मिशन चंद्रयान-3 का फोकस चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित लैंड करने पर है। 2019 में चंद्रयान-2 की नाकामी लैंडिंग की समस्याओं से ही जुड़ी थी। चंद्रयान-2 का लैंडर चंद्रमा की सतह से झटके के साथ टकराया था जिसके बाद पृथ्वी के नियंत्रण कक्ष से उसका संपर्क टूट गया था।
अभिषेक कुमार सिंह: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का तीसरा चंद्रयान अभियान पृथ्वी के इकलौते प्राकृतिक उपग्रह यानी चंद्रमा की नई खोज के मिशन पर रवाना होने को तैयार है। मून मिशन चंद्रयान-3 का फोकस चंद्रमा की सतह पर सुरक्षित लैंड करने पर है। वजह यह कि 2019 में चंद्रयान-2 की नाकामी लैंडिंग की समस्याओं से ही जुड़ी थी। चंद्रयान-2 का लैंडर चंद्रमा की सतह से झटके के साथ टकराया था, जिसके बाद पृथ्वी के नियंत्रण कक्ष से उसका संपर्क टूट गया था।
कह सकते हैं कि चंद्रयान-3 को उसी अधूरी कहानी को पूरा करने के लिए भेजा जा रहा है। चंद्रयान-3 के लैंडर को चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक उतारने के बाद उसमें से रोवर को संचालित किया जाएगा, जो चंद्र-भूमि पर भ्रमण करेगा। चंद्रयान-2 की तरह इस तीसरे मिशन के लैंडर का नाम विक्रम और रोवर का प्रज्ञान ही रखा गया है। उद्देश्य है कि इनकी सहायता से हमारे विज्ञानी चंद्रमा के बारे में और अधिक जानकारी जुटा सकें। खास तौर से चंद्रमा के उस अंधेरे पहलू को चंद्रयान-3 से और रोशन करने की कोशिश होगी, जिसे डार्क साइड आफ मून कहा जाता है। यह डार्क साइड चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की है। उल्लेखनीय है कि भारत, चीन और इजरायल के अलावा जापान भी चांद पर जाने की तैयारियों में लगे हैं और इन सबके निशाने पर चंद्रमा की अनछुई जमीन है।
असल में चांद के दक्षिणी ध्रुव को कई मायनों में भावी चंद्रमिशनों के द्वार खोलने वाला माना जाता है। इसकी कुछ ठोस वजहें हैं। पहली तो यह कि हमेशा छाया में रहने वाले इस हिस्से के बेहद ठंडे क्रेटर्स (गड्ढों) में जमी हुई बर्फ के भंडार हो सकते हैं, जो पानी के बड़े स्रोत होंगे। यहां जीवाश्मों का खजाना मिल सकता है। हीलियम-3 जैसा बहुमूल्य खनिज मिलने की भी आशा जताई जा रही है। एक टन हीलियम की मौजूदा कीमत करीब पांच अरब डालर हो सकती है। अनुमान है कि चंद्रमा से ढाई लाख टन हीलियम-3 पृथ्वी तक ढोकर लाया जा सकता है। इसरो ने दक्षिणी ध्रुव की चट्टानों में लोहे के अलावा मैग्नीशियम, कैल्शियम आदि की मौजूदगी का अंदाजा लगाया है।
चंद्रमा को लेकर दुनिया में मची हलचल का ही नतीजा है कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने चंद्रमा पर दोबारा नहीं जाने की अपनी कसम तोड़ दी है। आर्टेमिस मून मिशन के रूप में चंद्रमा पर इंसान को भेजने की व्यापक योजना की शुरुआत मानवरहित यान ओरियन के प्रक्षेपण के साथ की जा चुकी है। पिछले साल शुरू किए गए इस मिशन के तहत नासा ने आठ देशों के साथ एक बहुत महत्वपूर्ण समझौता कर रखा है, जिसमें सभी देश मिलकर चंद्रमा के अन्वेषण में सहयोग करेंगे।
हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भी आर्टेमिस मिशन से इसरो को जोड़ने की योजना पर पहल हुई है। आर्टेमिस के अंतरिक्ष यात्रियों को भी चंद्रमा की भूमध्य रेखा के बजाय इसके दक्षिणी ध्रुव पर उतारने की योजना है, जो अभी तक इंसान के कदमों की छाप के मामले में अनछुआ है। अपोलो-11 और आर्टेमिस मिशनों के बीच यदि सबसे ज्यादा कुछ बदला है तो वह चंद्रमा को लेकर विज्ञानियों की अवधारणा है। अपोलो मिशन के समय नासा के अंतरिक्ष यात्रियों समेत विज्ञान बिरादरी और पूरी दुनिया को लगता था कि चंद्रमा की सतह बिल्कुल सूखी है, लेकिन अब सभी को पता है कि कम से कम चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भारी मात्रा में बर्फ और भाप के रूप में पानी मौजूद है।
चूंकि मंगल ग्रह और सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी चंद्रमा को सर्वाधिक संभावना वाले अंतरिक्षीय पिंड के रूप में देखा जा रहा है, इसलिए विज्ञानी पानी की मौजदूगी वाले इलाके पर दांव लगा रहे हैं। यदि वहां इंसानी बस्तियां नहीं भी बस सकीं तो भी चंद्रमा पर ऐसे उपकरण लगाए जा सकते हैं, जो सुदूर अंतरिक्ष की टोह लेने में हमारी मदद कर सकते हैं। साथ ही वहां मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाली हाइड्रोजन का इस्तेमाल दूसरे ग्रहों को जाने वाले राकेट के ईंधन के रूप में किया जा सकता है।
असल में पृथ्वी से प्रक्षेपित किए जाने वाले राकेटों की अधिकतम ऊर्जा इस ग्रह के वायुमंडल और गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने में ही खर्च हो जाती है। ऐसे में चंद्रमा के रीफ्यूलिंग स्टेशन राकेटों को सौरमंडल के ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचाने में सहायक बन सकते हैं।
अमेरिका, रूस, चीन, भारत, जापान और यूरोपीय संघ की चंद्रमा के प्रति दिलचस्पी बढ़ने की एक बड़ी वजह यह भी है कि आगे चलकर चंद्रमा को दुर्लभ अंतरिक्षीय सूचनाओं के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। यानी चंद्रमा पर पानी, खनिजों की मौजूदगी के साथ मानव रिहाइश की संभावनाओं से जुड़े जो तथ्य वहां भेजे जा रहे यानों के जरिये मिलेंगे, उनसे हमें अंतरिक्ष के जन्म से लेकर ब्रह्मांड में और आगे बढ़ने से जुड़ी वे सारी सूचनाएं मिल सकेंगी, जो शायद इस पूरी सृष्टि के रहस्य खोलकर रख देंगी।
कुल मिलाकर, भारत जिस तरह चंद्रयान, गगनयान और सूर्य के अध्ययन के लिए आदित्य मिशन आदि योजनाओं पर काम कर रहा है, उससे हमारा देश अंतरिक्ष में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। यह संभव है कि जिस तरह अभी गणित के शून्य पर होने वाली कोई भी बातचीत भारत के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती, उसी तरह आगे चलकर चंद्रमा पर कोई भी वैज्ञानिक चर्चा भारत के बिना अधूरी रहे।
(तकनीकी मामलों के विशेषज्ञ लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)