Kendriya Vidyalaya : केंद्र सरकार सच्चाई को स्वीकार करे और हर ब्लाक में खोले केंद्रीय विद्यालय
बेशक एक सांसद के सामने संकट होता था कि वह लाखोंं की आबादी वाले अपने क्षेत्र में मात्र दस प्रवेश कूपन के साथ कैसे न्याय करे? ऐसे में केंद्र को चाहिए था कि वह केंद्रीय विद्यालय में सांसद कोटे को बढ़ाकर 50 कर देती। भले ही इसमें शर्त जोड़ देती।
डा. अजय खेमरिया। केंद्रीय विद्यालय संगठन ने केंद्र सरकार के निर्देश पर प्रवेश संबंधी कुछ कोटे खत्म कर दिए हैैं, जिनमें सांसद, मंत्री, चेयरमैन, डीएम के साथ ग्रैैंड चिल्ड्रेन कोटा भी शामिल हैैं। इस निर्णय के साथ ही केंद्रीय विद्यालयों में इस साल करीब 40 हजार ऐसे बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाएगा, जो केंद्रीय या रक्षा सेवा संवर्ग और शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) के दायरे में नहीं आते हैैं। कोटा सिस्टम खत्म करने के अपने-अपने पक्ष हैैं, जो सही भी हैं, लेकिन बुनियादी सवाल यह भी है कि वे 40 हजार बच्चे कौन थे, जिन्हें इस कोटे से देश भर के केंद्रीय विद्यालयों में दाखिला मिलता था? क्या यह निर्णय वास्तविक अर्थों में संगठन की प्रवेश प्रक्रिया को समावेशी बनाने वाला है? बेशक तकनीकी रूप से यही लगता है, लेकिन इसका व्यावहारिक पक्ष यह है कि सांसद/डीएम/मंत्री कोटे से प्रवेश पाने वाले करीब 80 प्रतिशत निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले पार्टी के कार्यकर्ता हुआ करते थे। वे कार्यकर्ता, जो अपने बच्चों को महंगे कान्वेंट स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते, लेकिन केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से शिक्षा दिलाने का सपना देखते हैैं।
बेशक एक सांसद के सामने संकट होता था कि वह करीब 20 से 25 लाख की आबादी वाले अपने क्षेत्र में मात्र दस प्रवेश कूपन के साथ कैसे न्याय करे? ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए था कि वह सांसद के कोटे को बढ़ाकर 50 कर देती। साथ ही इसमें शर्त जोड़ देती कि किसी आयकरदाता अभिभावक के बच्चों को इस कोटे से प्रवेश नहीं दिया जाएगा। केंद्रीय विद्यालय की स्पांसरशिप एजेंसी के नाते सशस्त्र सेना, अर्धसैनिक बल भी सांसद की तरह एक कोटा का उपयोग करते थे। बदले में स्कूल के प्रबंधन और अन्य कार्यों से यह एजेंसी से जुड़ी रहती थी। अब इस चेयरमैन कोटे को भी खत्म कर दिया गया है। लिहाजा स्थानीय स्तर पर इन एजेंसियों का लगाव स्कूलों से क्यों होगा? हालांकि सरकार ने नए कोटा सिस्टम में कुछ अच्छे प्रविधान भी किए हैैं। जैसे अब सशस्त्र बलों-थल सेना, वायु सेना, नौ सेना अपने कोटे से अधिकतम छह नाम प्रवेश के लिए दे सकेंगे। परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र, अशोक चक्र, कीर्ति चक्र, शौर्य चक्र, सेना मेडल अर्जित करने वाले सैनिकों के बच्चों को सीधे प्रवेश मिलेगा। ऐसे बच्चे जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा वीरता पदक से सम्मानित किया गया हो, स्काउट एंड गाइड्स एवं खेल में जिन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त किया हो, वे प्रवेश के पात्र होंगे। एकल बालिका, राष्ट्रीय बालश्री पुरस्कार प्राप्त बच्चे और कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले बच्चे भी कोटे में शामिल किए गए हैं। केंद्रीय विदेश मंत्रालय के कर्मचारियों के 60 बच्चों को प्रवेश देने की पात्रता होगी। भारत की खुफिया एजेंसी रा के कर्मचारियों के लिए भी 15 एडमिशन नए कोटा सिस्टम में मिलेंगे। हर जिले में कोविड में अनाथ हुए 10 बच्चों को भी अलग से प्रवेश दिया जाएगा। इन बच्चों के लिए सभी प्रकार की फीस भी मुफ्त कर दी गई है। कश्मीर से विस्थापित परिवारों के लिए भी अब नए कोटे में प्रवेश की व्यवस्था की गई है।
बेहतर होगा कि केंद्र सरकार आजादी के अमृत महोत्सव पर इस सच्चाई को स्वीकार करे कि देश में सीबीएसई और केंद्रीय विद्यालय एक अति विशिष्ट शिक्षा तंत्र के रूप में खड़े हो गए हैैं। आखिर क्यों स्वाधीनता के 75 साल बाद भी देश अपने नागरिकों को समुन्नत और जनाकांक्षाओं के अनुरूप समावेशी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध नहीं करा पा रहा है? क्या कारण है कि सात सौ से अधिक जिलों वाले इस देश में केवल 1,047 केंद्रीय विद्यालय हैैं? क्या अमृत महोत्सव में सरकार यह संकल्प नहीं ले सकती कि हर बड़े राज्य में 75 नए केंद्रीय विद्यालय खोले जाएं? यह स्पष्ट है कि राज्य बोर्डों के मामले में 80 प्रतिशत बोर्ड फिसड्डी हैैं। देश का आम आदमी मजबूरी में अपने बच्चों को राज्यों के स्कूलों में पढ़ाता है। वैसे इस बात को नीति नियोजक बखूबी समझते हैैं। इसके बावजूद वे केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल, मिलिट्री स्कूल जैसे नवाचारों पर चुप रहते हैैं। सरकारें चाहें तो देश के प्रत्येक विकास खंड या तहसील इकाई पर भी केंद्रीय विद्यालय खोले जा सकते हैैं। साथ ही डिफेंस, पैरा मेडिकल, विदेश मंत्रालय आदि के लिए एक अलग विंग स्थापित की जा सकती है। इन स्कूलों में प्रवेश के लिए आयकरदाता और आरटीई के प्रविधान अमल में लाए जा सकते हैं।
केंद्र सरकार चाहे तो राज्य सरकारों के तुलनात्मक रूप से बेहतर स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय के रूप में भी अधिग्रहित कर सकती है। शिक्षा मंत्री को यह सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि मौजूदा सीबीएसई पैटर्न आधारित शिक्षा देश के आम आदमी के लिए महंगी और दुरूह सपने जैसी ही है। हर आदमी अपने बच्चे को इसी पैटर्न में पढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह हर स्तर पर त्याग करने को तैयार रहता है। सवाल यह है कि राज्यों की शैक्षणिक नाकामी के लिए क्या 75 साल के अनुभव अभी भी कम हैैं? केंद्र सरकार का यह दायित्व है कि अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत को एक राष्ट्र-एक शिक्षा व्यवस्था के संकल्प की ओर उन्मुख करे। यह जो भेदभावपूर्ण शैक्षिक ढांचा है, उसे खत्म किया जाना चाहिए। अभी 11 लाख बच्चे केंद्रीय विद्यालयों में अध्ययनरत हैैं। सरकार चाहे तो यह आंकड़ा प्रति वर्ष दो करोड़ भी हो सकता है। सवाल इच्छाशक्ति का है। उस हीनभाव को महसूस करने का है, जो करोड़ों बच्चे अपने घर, गली, स्कूल में सीबीएसई और राज्य बोर्ड के भेदभाव के चलते झेलते रहते हैं।
(लेखक लोकनीति विशेषज्ञ हैैं)