क्षमा शर्मा। इन दिनों अभिनेत्री और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर का एक फोटो वायरल हो रहा है। वह अपना बेबी बंप दिखा रही हैं। यानी जल्दी ही मां बनने वाली हैं। इस खबर को मीडिया ने भी महत्व दिया। अतीत में अनुष्का, फरहा खान, करीना कपूर आदि भी ऐसा कर चुकी हैं। एक समय ऐसा रहा है, जब महिला को अपने मां बनने के चिन्हों को छिपाना पड़ता था। इसे लज्जा से जोड़ा जाता था। इन दिनों ऐसा नहीं है। मां बनना किसी भी स्त्री का ऐसा गुण है, जो किसी पुरुष के पास नहीं। इससे सृष्टि चलती है। सृष्टि न हो, अगली पीढ़ी न हो तो दुनिया नहीं चलेगी, लेकिन इसी मां बनने को निहित स्वार्थो ने अर्से से स्त्री की कमजोरी के रूप में व्याख्यायित किया है, परंतु स्त्रियां अब अपने गर्भ में पल रहे शिशु को दुनिया को दिखाना चाहती हैं तो इसमें बुरा भी क्या है?

पिछले कुछ दिनों से कथित प्रगतिशील स्त्रियों का एक समूह कह रहा है कि बच्चे उनकी दुनिया और तरक्की को रोक देते हैं, इसलिए उन्हें वे नहीं चाहिए। वे क्यों उनकी जिम्मेदारी उठाएं और अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष गंवा दें? यह विचार न केवल विदेश में, बल्कि इन दिनों अपने देश में भी खूब प्रचारित किया जा रहा है। महिलाओं को बताया जा रहा है कि तुम परिवार की जिम्मेदारी क्यों उठाओ? बच्चे क्यों पालो? तुम अपने पांवों पर खड़ी हो। घूमो, फिरो, मौज करो। पैसा है तो किसी और बात की चिंता क्यों? जिम्मेदारी या कर्तव्य को बहुत वर्षो से एक बोझ की तरह प्रचारित किया जा रहा है, जबकि हम जानते हैं कि जिम्मेदारी से हम बच नहीं सकते। वह चाहे परिवार चलाने और बच्चे पालने की जिम्मेदारी हो या नौकरी की। अपने दम पर रहने की जिम्मेदारी उठाना भी कोई आसान काम नहीं है। इसके अलावा जब भी कोई आपदा आती है, अक्सर हम दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वे मदद का हाथ बढ़ाएं। हमारी जिम्मेदारी उठाएं, लेकिन सोचिए कि अगर विचार यह बन चला हो कि हम क्यों किसी की जिम्मेदारी उठाएं तो फिर दूसरा भी आपकी जिम्मेदारी क्यों उठाएगा?

इस विचार के बरक्स जब मां बनने वाली सोनम कपूर की तस्वीर दिखती है अथवा अनुष्का, करीना या माधुरी दीक्षित अपने बच्चों के बारे में बातें करती हैं तो लगता है कि ये ही तो वे स्त्रियां हैं, जिन्हें मीडिया के बड़े हिस्से ने आज की सशक्त स्त्री के रूप में पेश किया है। इन्हें ही युवा लड़कियों को इस रूप में बताया गया है कि ये ही हैं, जो आज की सशक्त महिला हैं। मंच पर माइक हाथ में लिए इन स्त्रियों ने समय-समय पर ऐसे बयान भी दिए हैं। कभी सोनम कपूर ने कहा था कि वह अल्ट्रा फेमिनिस्ट यानी अति नारीवादी हैं। हालांकि उन्होंने विवाह भी किया और अब मां भी बनने वाली हैं। अनुष्का, दीपिका, प्रियंका चोपड़ा, करीना आदि ने भी विवाह किया है। इनमें से जो मां बनीं उनकी बच्चों को गोद में उठाए, उनके कपड़े बदलते तस्वीरें भी छपती रहती हैं। वे अक्सर ऐसे बयान भी देती रहती हैं कि उनका परिवार उनकी प्राथमिकता है। वे अपने बच्चों को अच्छा नागरिक बनाना चाहती हैं।

ये बातें अच्छी भी हैं। अगर परिवार है, बच्चे हैं तो आपके अलावा कोई और उनकी जिम्मेदारी क्यों निभाएगा, लेकिन देखा गया है कि ये अभिनेत्रियां जब मंच पर होती हैं, तब जो बातें कह रही होती हैं, उसके उलट अब जीवन में दिख रही हैं। इनकी कथनी-करनी में भला ये दोहरापन क्यों? अपने बच्चों के लिए तो वे एक जिम्मेदार मां बनना चाहती हैं। उनकी देखभाल करनी हो तो शूटिंग तक कैंसिल कर देती हैं। उन्हें पालना-पोसना अपना कर्तव्य समझती हैं, मगर जो उन्हें सुनती हैं, उन्हें बिल्कुल उलटा ज्ञान देती हैं। ऐसा भला क्यों? यदि परिवार और बच्चे उनके लिए जरूरी हैं, वे ही उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं तो साधारण महिलाओं को इनसे दूर भागने, अकेलेपन और आजादी का शहद लिपटा ज्ञान क्यों देती हैं? आम महिला को अकेलेपन की सुनहरी तस्वीर क्यों दिखाती हैं? परिवार न बसाने का ज्ञान क्यों देती हैं? इसे सशक्तीकरण की पहचान क्यों बताती हैं? दूसरी ओर अपने लिए पति, बच्चे, परिवार भी चाहती हैं। अच्छी बहू, अच्छी मां, अच्छी पत्नी, अच्छी बेटी के टैग भी चाहती हैं। ऐसा ज्ञान क्यों, जिस पर वे खुद भी यकीन नहीं करतीं? यानी कि घर में कुछ और, मंच पर कुछ और। महिलाओं के जीवन में जो दुख हैं, परेशानियां हैं, अशिक्षा है, ससुराल तो छोड़िए अपने माता-पिता के यहां ही भेदभाव है, बेरोजगारी, दहेज और तरह-तरह की प्रताड़नाएं हैं, क्या उन्हें इसी तरह दूर किया जा सकता है? वास्तव में कहने और करने में यही फासला तो कुछ नहीं बदलने देता। यथास्थिति को बनाए रखता है।

करोड़ों दाम और नाम कमाने वालीं इन ज्ञानवान महिलाओं के जादू में जब साधारण स्त्रियां फंसती हैं तो उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या करें, कहां जाएं? तब ये ज्ञानवान स्त्रियां उन्हें कभी बचाने नहीं आतीं। किसी तरह की आर्थिक और भावनात्मक मदद तो दूर की बात है, फोन तक उठाना बंद कर दिया जाता है। पहचानते हुए भी, बेपहचान होने का नाटक किया जाता है। वैसे भी साधारण स्त्री इनकी चिंता के केंद्र में होती भी कहां है। मलाला को याद करें। वह शादी को गैर जरूरी बताती थीं, लेकिन फिर उन्होंने शादी कर ली। जिन मंचों पर अक्सर नामचीन स्त्रियां ज्ञान बांटते नजर आती हैं, वह किसी न किसी उत्पाद की ब्रांडिंग के लिए होता है। अब साधारण महिला की वह आर्थिकी कहां कि वह उन उत्पादों को खरीद सके। अच्छा उपभोक्ता वह है, जो अच्छा खरीदार है। अच्छा खरीदार, खाली जेब नहीं होता।

(लेखिका साहित्यकार हैं)