आगे की राह दिखाए अंतरिम बजट, घोषणाओं से स्पष्ट हो कि भविष्य के लिए हम कौन सी राह पकड़ने वाले हैं
हमारा समाज जितने स्तरों पर विभाजित है और जहां विकास के मोर्चे पर इतनी गहरी खाई विद्यमान हो वहां चुनावी दबाव के चलते लोकलुभावनवाद के कुछ तत्व अपरिहार्य हैं। इसके बावजूद यदि हम कुछ चुनावी रेवड़ियों पर पुनर्विचार करते हुए सब्सिडी की एक आर्थिक परिधि तय करने पर सहमति बनाते हुए अनुत्पादक खर्चों एवं कर रियायतों पर विराम लगा पाएं तो यह बहुत कारगर होगा।
तरुण गुप्त। बजट से जुड़ी अपेक्षाओं को सामान्य तौर पर कुछ समय पहले व्यक्त किया जाता है, लेकिन यह साल अन्य वर्षों से अलग और विशिष्ट है। ऐसा इसलिए, क्योंकि कुछ दिनों पहले ही पूरा विश्व अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के भव्य कार्यक्रम का साक्षी बना। उसकी आभा से हम सभी इतने अभिभूत रहे कि राम मंदिर से इतर ध्यान देने में थोड़ा समय लग गया।
चूंकि यह चुनावी साल भी है तो सरकार एक फरवरी को पूर्ण बजट के बजाय वोट आन अकाउंट यानी लेखानुदान प्रस्तुत करेगी। लेखानुदान के माध्यम से सरकार भारत की संचित निधि से अपने खर्च के लिए संसद की अनुमति प्राप्त करती है। प्राय: यह अनुमति एक निश्चित समयसीमा के लिए नियत है, जो अक्सर दो महीने की होती है। पूर्ण या सामान्य बजट से इतर यह एक अंतरिम व्यवस्था होती है, जिसमें कर व्यवस्था और नीतियां शामिल नहीं होतीं। हालांकि कई बार सरकार पर ऐसे आरोप भी लगते हैं कि वह पूर्ण बजट और अंतरिम बजट के बीच की महीन रेखा के अंतर को मिटा देती है।
एक फरवरी को होने वाली घोषणाओं को चाहे जो नाम दिया जाए, उनसे वह मंशा और दिशा अवश्य स्पष्ट होनी चाहिए कि भविष्य के लिए हम कौनसी राह पकड़ने वाले हैं। किसी भी सामान्य वर्ष की तरह वित्त मंत्री से बड़ी अपेक्षाएं लगी हुई हैं। चूंकि इस समय भारत को 2047 तक विकसित देश बनाने को लेकर चर्चा चल रही है, उसके बीच यह देखना उपयोगी होगा कि जिस मंजिल तक हमें जाना है, उस लक्ष्य और वर्तमान स्थिति में कितना अंतर है।
इस समय हमारी अर्थव्यवस्था का आकार काफी विशाल है। यह विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी आर्थिकी बनने जा रही है। इसके बावजूद प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर हम बहुत पीछे हैं। यह सही है कि लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आर्थिक विकास अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन अपने आप में केवल यही पर्याप्त नहीं होता। मानव पूंजी में निवेश विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने की पूर्वनिर्धारित शर्त है।
यदि शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर पर बात करें तो प्रति व्यक्ति आधार और जीडीपी के अनुपात दोनों कसौटियों पर हमारा व्यय आवश्यकता के अनुरूप बहुत कम है। कायाकल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन दोनों विषयों पर पिछले कुछ समय से केंद्र और राज्यों का कुल संसाधन आवंटन जीडीपी के दो से तीन प्रतिशत के दायरे में है। इस मोर्चे पर हम विश्व के शीर्ष सौ देशों की सूची से बाहर हैं।
हमारी आबादी के आकार को देखते हुए प्रति व्यक्ति स्तर पर तो स्थिति और भी दयनीय है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं होती कि हम कमजोरियों से जूझ रहे हैं। एक के बाद एक आने वाली सर्वे रिपोर्ट दर्शाती हैं कि पठन-पाठन का स्तर कितना लचर है। निःसंदेह आवंटन एवं गुणवत्ता के लिहाज से हम रातोंरात विकसित देशों की बराबरी नहीं कर सकते, किंतु आवंटन में चरणबद्ध बढ़ोतरी एक अच्छी शुरुआत होगी।
बुनियादी ढांचागत विकास को प्राथमिकता देने के लिए हमें मौजूदा सरकार की सराहना करनी चाहिए। आर्थिक वृद्धि को आवश्यक आधार प्रदान करने के साथ ही बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं रोजगार सृजन के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण होती हैं। इसके परिणाम भी प्रत्यक्ष दिख रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि अभीष्ट की पूर्ति के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, लेकिन इस रुझान में निरंतरता बनी रहनी चाहिए।
हमारा समाज जितने स्तरों पर विभाजित है और जहां विकास के मोर्चे पर इतनी गहरी खाई विद्यमान हो, वहां चुनावी दबाव के चलते लोकलुभावनवाद के कुछ तत्व अपरिहार्य हैं। इसके बावजूद यदि हम कुछ चुनावी रेवड़ियों पर पुनर्विचार करते हुए सब्सिडी की एक आर्थिक परिधि तय करने पर सहमति बनाते हुए अनुत्पादक खर्चों एवं कर रियायतों पर विराम लगा पाएं तो यह बहुत कारगर होगा। हालांकि, चुनावी वर्ष में ऐसी संभावनाएं दूर की कौड़ी दिखती हैं। इसकी स्वाभाविक परिणति यही होगी कि राजकोषीय अनुशासन का अपेक्षित स्तर पर अनुपालन संभवतः न हो पाए। यहां यह भी स्मरण रहे कि हमारा राजकोषीय घाटा और ऋण का स्तर महामारी के बाद से निरंतर बढ़ा है। तार्किक आर्थिक समझ तो यही कहती है कि लंबे समय तक इसे नजरअंदाज करना उपयुक्त नहीं होगा।
चालू वित्त वर्ष में हमारे कर संग्रह लक्ष्य से अधिक हो गए हैं। यह सराहनीय है, लेकिन इस बीच हमें खामियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों से विनिवेश की तस्वीर निराशाजनक रही है। जब शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाई पर है तब यह अवसर को भुनाने का बढ़िया समय है। भूमि संसाधनों का मौद्रीकरण भी राजस्व जुटाने का एक अच्छा स्रोत है, जिसे अभी तक भुनाया नहीं गया।
बजट में सबसे अधिक निगाहें प्रत्यक्ष कर से जुड़े प्रस्तावों पर टिकी होती हैं। इस परिदृश्य के गहन मूल्यांकन की आवश्यकता है। कर प्रक्रिया को आवश्यक रूप से सरल एवं तार्किक बनाने के लिए नई प्रत्यक्ष कर संहिता काफी समय से लंबित एवं प्रतीक्षित है। लाभांश कराधान, उच्च आय वर्ग पर ऊंची आयकर दरें, मानक कटौती में वृद्धि और वेतनभोगी वर्ग के लिए कुछ सरकारी रियायतें उचित ही अपेक्षित हैं। वर्ष 2019 में कारपोरेट कर में कटौती को उद्योग जगत और पूंजी बाजार ने हाथोंहाथ लिया। जबकि अधिकांश एमएसएमई लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप-एलएलपी, साझेदारी एवं स्वामित्व स्वरूप में हैं। यह उचित होगा कि इन्हें भी कर में कटौती का लाभ मिले।
जहां तक व्यापक कर प्रस्तावों का प्रश्न है तो वह जुलाई में पेश होने वाले पूर्ण बजट का हिस्सा होंगे, मगर कुछ अनुकूल संकेत परिदृश्य में उत्साह का संचार करेंगे। सबसे आवश्यक तो सरलता, तार्किकता और निरंतरता के प्रवाह को बनाना है। कर संग्रह में उछाल के बावजूद जीडीपी के अनुपात में करों की स्थिति अभी भी निचले स्तर पर है। हमें एक छोटे समूह से अधिक से अधिक खींचने के बजाय करों के दायरे को बढ़ाने की आवश्यकता है।
यह एक वास्तविक सुधार होगा और ऐसे सुधार के विरुद्ध कभी दांव नहीं लगाना चाहिए। यदि उपरोक्त प्रस्ताव से कुछ अस्थायी राजस्व क्षति होती है तो व्यापक अनुपालन से न केवल उसकी भरपाई, अपितु अधिक राजस्व प्राप्ति संभव है। राज्य की नीति को दिशा देने का एक पहलू यह भी होना चाहिए कि नागरिकों को अनुभूति हो कि उनके द्वारा अदा किए गए कर का उपयोग अभिजात्य वर्ग की समृद्ध जीवनशैली को और संवारने के बजाय राष्ट्र निर्माण से संबंधित गतिविधियों में हो रहा है। ऐसे में वे कर अदायगी को लेकर अधिक सकारात्मक होते हैं।