अवधेश कुमार। जातीय गणना के बाद बिहार के आर्थिक सर्वे ने भी सुर्खियां बटोरी हैं। जिस तरह जातीय गणना को लेकर तमाम सवाल उठे और उसे संदेह की दृष्टि से देखा गया, उसी तरह आर्थिक सर्वे भी अपवाद नहीं रहा। आर्थिक सर्वे के आधार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने का दांव तो चला है, लेकिन इस राह में कई बाधाएं भी हैं।

यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह आर्थिक सर्वे नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक तौर पर लाभदायक होगा। इस सर्वे को यदि स्वीकार भी करें तो यह बिहार की बुरी तस्वीर ही दिखाता है। इसके आंकड़े दर्शाते हैं बिहार से ज्यादा खराब सामाजिक-आर्थिक दशा संभवत: किसी अन्य प्रदेश की नहीं होगी। आर्थिक सर्वे के अनुसार बिहार के 34.13 प्रतिशत परिवार गरीब हैं। उनकी मासिक आय छह हजार रुपये या उससे कम है। राज्य में परिवारों की कुल संख्या 2 करोड़ 76 लाख 68 हजार 930 है। इसमें 6000 रुपये से 10 हजार रुपये तक की मासिक आय वाले परिवारों की संख्या 81 लाख 91 हजार 390 है यानी 29.61 प्रतिशत।

इसका अर्थ है कि 63 प्रतिशत से ज्यादा आबादी की आय 10 हजार से कम है। इतने लोगों का गरीब होना प्रत्येक मानक पर असामान्य स्थिति का परिचायक है। सिर्फ 3.9 प्रतिशत परिवार ही 50 हजार से अधिक कमाते हैं। यह रिपोर्ट एक तरह से बिहार को गरीबों का राज्य साबित करती है। क्या वाकई बिहार के लोग इतनी वित्तीय दुर्दशा के शिकार हैं?

उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार द्वारा वार्षिक 6,000 रुपये की किसान सम्मान निधि, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, महिलाओं को विशेष भत्ता और छात्राओं को धनराशि दी जा रही है। मनरेगा के तहत 100 दिन रोजगार के साथ-साथ राज्य के रोजगार कार्यक्रमों से भी लोगों को आमदनी होती है। इसके बावजूद यदि इतनी बड़ी संख्या 6000 रुपये से नीचे की आमदनी में जी रही है तो इसका अर्थ क्या है?

यह रिपोर्ट नीतीश सरकार को ही कठघरे में खड़ा करती है। बिहार में केवल 36.76 प्रतिशत यानी एक करोड़ एक लाख 72 हजार 126 परिवारों के पास ही पक्का मकान बताया गया है। इन पक्के मकानों में भी 22.37 प्रतिशत केवल एक कमरे वाले हैं। खपरैल या टीन की छत वाले 26.5 प्रतिशत तथा झोपड़ी वालों की संख्या 14.09 प्रतिशत है। इसके अनुसार लगभग 50 प्रतिशत परिवारों को हम मकान वाला मान ही नहीं सकते। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री आवास योजना का क्या हुआ?

करीब 17 वर्ष तक नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद केवल सात प्रतिशत जनसंख्या ही ग्रेजुएट या उससे ऊपर की शैक्षणिक योग्यता वाली है। यह दयनीय स्थिति है। यही नहीं, 9.19 प्रतिशत ने 11वीं और 12वीं तक पढ़ाई की है। 22.67 प्रतिशत ने एक से पांच तक, 14.33 प्रतिशत ने कक्षा छह से आठ तक तथा 14.71% ने नौवीं और 10वीं की पढ़ाई की है। इस तरह कुल 42 प्रतिशत आबादी की योग्यता दसवीं या उससे कम है। आर्थिक सर्वे के आंकड़े ही नीतीश कुमार के सुशासन के दावे को ध्वस्त कर देते हैं।

सवाल उठता है कि कोई सरकार खुद को ही असफल क्यों सिद्ध करेगी? इस प्रश्न का स्वीकार्य उत्तर तलाशना मुश्किल है। इस रिपोर्ट के साथ नीतीश कुमार ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग फिर से छेड़ दी है। ऐसे में क्या इन आंकड़ों को विशेष राज्य की मांग को बल देने के लिए तैयार किया गया है?

बिहार की राजनीति पर नजर रखने वालों का मानना है कि इस समय सत्ता का केंद्र लालू यादव का परिवार है। सब कुछ लालू परिवार के हिसाब से हो रहा है।

लालू यादव और तेजस्वी यादव के रणनीतिकार अपनी राजनीति की दृष्टि से हर वह काम करते हैं जिनसे नीतीश की छवि कमजोर हो ताकि भविष्य में अकेले राजद के सत्तासीन होने का आधार बने। जाति आधारित गणना में यादवों और मुसलमानों की आबादी उनके एमवाई समीकरण को प्रभावी बनाती है। इसके समानांतर नीतीश का सामाजिक समीकरण कहीं ठहरता नहीं। रिपोर्ट के दूसरे भाग से नीतीश विफल मुख्यमंत्री साबित होते हैं तथा विपक्षी भाजपा भी कठघरे में खड़ी होती है, क्योंकि लंबे समय तक नीतीश सरकार में वह भी शामिल थी। नीतीश कुमार चाहे जाति आधारित गणना के लिए अपनी पीठ थपथपाएं, लेकिन असल में यही उन्हें राजनीतिक रूप से कमजोर साबित करती है।

आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट बिहार की वास्तविक स्थिति का चित्रण नहीं है। राजधानी पटना प्रतियोगिता परीक्षाओं में कोचिंग का महत्वपूर्ण केंद्र है। लगभग सभी प्रमुख शहरों में आपको कोचिंग सेंटर छात्र-छात्राओं से भरे मिलेंगे। तमाम परीक्षाओं में बिहार के छात्र-छात्राएं अन्य कई राज्यों की तुलना में ज्यादा संख्या में उत्तीर्ण हो रहे हैं। आर्थिक सर्वे के अनुसार बिहार में केवल 1.3 प्रतिशत आबादी के पास ही इंटरनेट है। जबकि पिछले वर्ष ट्राई ने बताया था कि बिहार में लगभग 56 प्रतिशत लोगों के पास मोबाइल फोन हैं। उस आंकड़े के आधार पर भी नीतीश सरकार की यह रिपोर्ट संदिग्ध साबित होती है। बस, टेंपो, टैक्सी और यहां तक कि रिक्शा पर भी आप लोगों को मोबाइल से भुगतान करते हुए देख सकते हैं।

हैरानी नहीं कि कई लोग इस आर्थिक सर्वे को भी राजनीतिक पैंतरा ही मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगड़ी जातियों के साथ ही दलितों का एक बड़ा वर्ग नीतीश कुमार के विरुद्ध है। उनके कारण ही भाजपा को गठबंधन सरकार में हुए उपचुनाव में सवर्ण विरोध का सामना करना पड़ा था और वे राजद के साथ गए। सवर्णों की प्रमुख जातियां विशेषकर भूमिहारों में 25 प्रतिशत से ज्यादा गरीबी बताकर यह संदेश देने की कोशिश है कि हम आपके विरोधी नहीं हैं।

अंग्रेजी शासन के बाद जातीय गणना और उसके आधार पर आर्थिक-सामाजिक आंकड़े जुटाने की बहुप्रचारित योजना का संकीर्ण राजनीति का शिकार हो जाना अफसोसजनक है। यह चिंताजनक है कि जातिगत आंकड़ों ने बिहार के प्रत्येक सामाजिक वर्ग में जो नकारात्मक हलचल उत्पन्न की, उसे आर्थिक सर्वे के आंकड़ों ने और बढ़ाने का ही काम किया है। ऐसे में राज्य से जुड़े प्रत्येक अंशभागी का यह दायित्व बनता है कि वह अपने-अपने स्तर पर कुछ मान्य और प्रामाणिक आंकड़े लाकर इस रिपोर्ट की सच्चाई उद्घाटित करे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)