जीएन वाजपेयी : पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के कहर से बचाने के लिए इन दिनों मिस्र के शर्म अल-शेख में सीओपी27 के रूप में बड़ा आयोजन हो रहा है। इसमें 90 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के अलावा 190 से अधिक देशों के प्रतिनिधि जुटे हैं, जो मुद्दे की गंभीरता को समझते हुए गहन मंथन में जुटे हैं। एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती से जूझ रही है तो प्राचीन भारतीय परंपराएं उनकी मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती हैं।

प्राचीन काल से ही भारत का रवैया पारिस्थितिकी को लेकर बेहद सतर्क और संरक्षक जैसा रहा है। यजुर्वेद में पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष और समस्त ब्रह्मांड की शांति की कामना की गई है। भारत सीओपी27 में एक विशिष्ट क्लब का हिस्सा है। यह क्लब उन 20 देशों का समूह है, जिन्होंने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को घटाने की दिशा में संशोधित योजनाएं पेश की हैं। अगस्त, 2022 में भारत ने अपनी जीडीपी की उत्सर्जन इंटेंसिटी घटाने का लक्ष्य संशोधित किया है। संशोधित लक्ष्य में इसे 2030 तक 45 प्रतिशत तक घटाना है, जबकि 2005 में इसमें 30 से 35 प्रतिशत कटौती की बात थी। सेंटर फार साइंस एंड एनवायरमेंट के अनुसार 2005 के बाद से उत्सर्जन इंटेंसिटी पहले ही 24-25 प्रतिशत तक घट गई है। भारत 2030 तक स्वच्छ ऊर्जा की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने के लक्ष्य पर भी काम कर रहा है।

वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में पहले ही एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। यदि मौजूदा रवैये में कोई सुधार नहीं होता तो इस शताब्दी के अंत तक पृथ्वी का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस और अगली शताब्दी के मध्य तक साढ़े चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। इससे समुद्र का स्तर बढ़ेगा और महासागरों में अम्लीयता बढ़ेगी। पूरी दुनिया इस समय 40 वर्ष पहले की तुलना में तीन गुना अधिक प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं से जूझ रही है। पिछले दो दशकों में 19 दिनों में दर्ज गर्मी ने सभी रिकार्ड तोड़ दिए। इतिहास के करीब 50 प्रतिशत सबसे भयंकर चक्रवात बीती दो शताब्दियों में आए। आशंका जताई जा रही है कि अगले 80 वर्षों में 50 करोड़ लोग पलायन के लिए बाध्य होंगे और चार करोड़ काल का ग्रास बन जाएंगे। पानी की किल्लत, खराब सेहत, भुखमरी और गर्मी के कारण उत्पादकता में गिरावट से सालाना 40 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर का नुकसान होने का अनुमान है।

एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में हालिया प्रकाशित एक आलेख का यही सार है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को डेढ़ प्रतिशत तक सीमित रखने के लक्ष्य ने दुनिया भर में जलवायु नीतियों को प्रभावित भले किया हो, लेकिन यह लक्ष्य पाना संभव नहीं लगता। इस मुहिम को सबसे बड़ा झटका विकसित देशों ने दिया है, जो अपनी प्रतिबद्धताओं पर खरे नहीं उतरे। जबकि इसका सबसे बड़ा खामियाजा कम प्रदूषण करने वाले देशों के नागरिकों को उठाना पड़ रहा है। ऐसे में भारी प्रदूषण करने वालों द्वारा इन देशों को क्षतिपूर्ति का मुद्दा सीओपी27 के एजेंडे में है। वास्तव में अपने तौर-तरीकों में बदलाव लाकर और गैस उत्सर्जन में कमी लाने पर ध्यान केंद्रित कर करोड़ों लोगों को दुश्वारियों से बचाया जा सकता है।

इन दिनों देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं रही। दिल्ली में 6 नवंबर को पीएम 2.5 प्रदूषक के लिए खेतों में जलाई जा रही पराली 26 प्रतिशत तक जिम्मेदार रही। नि:संदेह कृषि क्षेत्र देश की 58 प्रतिशत आबादी की आजीविका का आधार है, लेकिन अब समय आ गया है कि उसमें समयानुकूल परिवर्तन किए जाएं। रियो डी जेनेरिया में 1992 में आयोजित अर्थ समिट में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिसमें ‘कृषि के भविष्य’ का खाका पेश किया गया था।

संप्रति भारत में युवा नवप्रवर्तक और उद्यमी एग्रिटेक पर दांव लगा रहे हैं। समय की मांग है कि नीति-निर्माताओं और वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने वालों द्वारा भी इसे व्यापक रूप से प्रोत्साहन दिया जाए। नवाचार करने वाले लोग इस कवायद में पौधों की उन प्रजातियों के विकास पर ध्यान केंद्रित करें जो कम पानी और ऊंचे तापमान में भी अस्तित्व बचाकर उत्पादन कर सकें। साथ ही वे कुछ विशेष बैक्टीरिया के नाइट्रोजन-मिश्रण वाले गुणों का लाभ उठाकर स्वयं को उर्वरता प्रदान करने में सक्षम हो सकें। पादप रोगविज्ञानी ऐसी पद्धतियां ईजाद कर सकते हैं, जिनमें पौधों के जैवरसायन संदेशवाहकों में परिवर्तन कर उन्हें तेजी से वृद्धि और व्यापक उत्पादन के लिए तैयार किया जाए।

साथ ही तकनीक के प्रयोग को भी बढ़ाना होगा। जैसे पलेवा (टिलिंग) और कटाई के लिए सैटेलाइट नेविगेशन का सहारा लें। पानी और पोषक तत्वों की निगरानी के लिए सेंसर का इस्तेमाल हो ताकि किसान यह तय कर पाएं कि उन्हें कहां और कितने पानी एवं उर्वरक की जरूरत होगी। वहीं, पराली जलाने का कोई आर्थिक विकल्प और कृषि भूमि के आसपास सौर पैनल्स के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा जैसे तमाम समाधान तो सर्वविदित ही हैं। बस उन्हें व्यापक रूप से अमल में लाने की आवश्यकता है।

इन परिवर्तनों को मूर्त रूप देने में असल मुद्दा वित्तीय संसाधनों का होगा। औसत जोत का आकार बहुत छोटा है। छोटे एवं सीमांत किसानों के पास बचत का अभाव होता है। ऐसे में किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ जैसी संस्थाओं को आगे आकर तकनीक के प्रसार एवं उसकी लागत जैसे पहलुओं का भार वहन करना चाहिए। इसमें सब्सिडी और अनुदान के साथ ही कम ब्याज दर पर अग्रिम ऋण जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए। इस दिशा में ग्लोबल सेंटर आन अडप्टेशन (जीसीए) का एक अध्ययन बताता है कि जलवायु परिवर्तन के लिए आवश्यक अनुकूलन पर आने वाली लागत उस भारी कीमत से कम ही होगी, जो हम जलवायु संबंधी आपदाओं और राहत एवं बचाव के मोर्चे पर चुकाने को मजबूर होंगे। वहीं किसानों और अर्थव्यवस्था को होने वाला लाभ सोने पर सुहागा होगा। उससे भी बढ़कर हम स्वच्छ वातावरण और स्वस्थ जीवन की नेमत से लाभान्वित होंगे।

(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)