रूस पर निर्भरता की समीक्षा का समय, आपात स्थितियों को लेकर भारत के सामने उठ रहे गंभीर प्रश्न
सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस कमजोर होता गया और चीन आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा। इस दौर में रूस और चीन के संबंध सुधरते गए परंतु रूस ने भारत की सहायता कर चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने का निरंतर प्रयास किया। यह स्थिति यूक्रेन युद्ध शुरू होने तक बनी रही। रूस ने भारत को एस-400 जैसी अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली दी है।
दिव्य कुमार सोती: पिछले सप्ताह रूस में वैगनर समूह के सैन्य विद्रोह की खबरों ने पूरी दुनिया को चौंकाने का काम किया। जितनी तेजी से इस विद्रोह की चिंगारी भड़की, उतनी ही तेजी से शांत भी हो गई। इस तत्काल शांति के पीछे सौदेबाजी की खबरें हैं। बाखमुट की लड़ाई में रूसी विजय के नायक रहे वैगनर के मुखिया येगवेनी प्रिगोजिन ने इस विद्रोह के लिए रूसी रक्षा मंत्री और सेनाध्यक्ष की गलत नीतियों को जिम्मेदार बताया। इससे पहले पश्चिमी मीडिया में खबरें आती रहीं कि पुतिन की बीमारी के दौरान ये दोनों अमेरिका से कोई समझौता चाहते थे। इसलिए अटकलें तेज हैं कि क्या प्रिगोजिन के विद्रोह को पुतिन का मौन समर्थन था ताकि क्रेमलिन में पुतिन की नीतियों से असहमत गुट को किनारे लगाया जा सके? चूंकि पुतिन लंबे समय तक खुफिया अधिकारी रहे हैं तो ऐसी अटकलों को बल मिलना स्वाभाविक है।
सच जो भी हो प्रिगोजिन के नाटकीय विद्रोह के दो प्रत्यक्ष परिणाम निकले। पहला यह कि वैगनर समूह के खतरनाक लड़ाकों की बेलारूस में तैनाती से पूर्वी यूरोप में तनाव बढ़ गया। पोलैंड और लिथुआनिया ने इस खतरे को लेकर बयान जारी किए हैं। दूसरा यह कि रूसी सत्ता के गलियारों में सब कुछ सामान्य नहीं और गुटबाजी बढ़ रही है। पुतिन के लंबे कार्यकाल में रूस चेचन्या और दागेस्तान में विद्रोही आंदोलनों को शांत करने, जार्जिया से दक्षिण ओसेटिया और अबकाजिया को अलग कराने, क्रीमिया को रूस में शामिल करने जैसी सैन्य सफलताएं हासिल कर चुका है। हालांकि, पश्चिम द्वारा यूक्रेन को दी जा रही सैन्य-वित्तीय मदद से यूक्रेन युद्ध के लंबा खिंचने पर रूस में एक राजनीतिक धड़ा सहज नहीं है।
प्रिगोजिन के विद्रोह का कुछ घंटों में भले ही नाटकीय पटाक्षेप हो गया हो, परंतु इसने रूस जैसे अनुशासित देश की आंतरिक स्थिरता पर प्रश्न चिह्न अवश्य लगा दिया है। अगर रूसी सरकार में कुछ तत्व पश्चिमी खुफिया एजेंसियों के संपर्क में हैं तो यह और भी गंभीर विषय है, क्योंकि यह रूस, चीन और भारत जैसे बड़े देशों को विद्रोह एवं आंदोलन के माध्यम से अस्थिर करने की पश्चिमी देशों की नीति और क्षमता दोनों का परिचायक है। यूक्रेन युद्ध में अमेरिका और नाटो के भारी दखल के चलते रूस के लिए चीन पर निर्भरता बढ़ाते जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। दोनों के संबंध प्रगाढ़ होते जा रहे हैं। इसने एशिया के पारंपरिक भू-राजनीतिक समीकरणों को बिगाड़ दिया है। जब से माओ ने सोवियत संघ से टकराव का रास्ता अपनाकर कम्युनिस्ट चीन की नीतिगत स्वायत्तता पर जोर डाला था तब से चीन-रूस के संबंध तनावपूर्ण ही रहे थे। 1971 में चीन पाकिस्तान की सहायता के लिए सेना इसीलिए नहीं भेज पाया था, क्योंकि उत्तर से रूसी हमले का खतरा था।
सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस कमजोर होता गया और चीन आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा। इस दौर में रूस और चीन के संबंध सुधरते गए, परंतु रूस ने भारत की सहायता कर चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने का निरंतर प्रयास किया। यह स्थिति यूक्रेन युद्ध शुरू होने तक बनी रही। रूस ने भारत को एस-400 जैसी अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली दी, जिसकी तैनाती चीनी सेना की राकेट फोर्स की भारत के उपर बढ़त को संतुलित करने के लिए की गई। गलवन में भारत-चीन सैन्य झड़प के बाद रूस द्वारा भारत को शीघ्रता से जरूरी सैन्य साजोसामान उपलब्ध कराया गया, पर बाइडन प्रशासन की आक्रामक नीतियों ने रूस को पूरी तरह चीनी खेमे में धकेल दिया है। स्थिति यह हो गई है कि रूसी युद्धपोत ताइवान के पास चीनी युद्धपोतों के साथ आक्रामक गश्त लगा रहे हैं।
आज यह एक बड़ा प्रश्न उभर रहा है कि भारत आपात स्थितियों विशेषकर चीन से टकराव की स्थिति में रूस पर कितना निर्भर रह सकता है? सामान्य स्थितियों में भी रूस से आने वाले सैन्य साजोसामान के भारत पहुंचने को लेकर विलंब की शिकायतें रही हैं। यूक्रेन युद्ध के चलते रूसी रक्षा उत्पादक क्षेत्र पहले से ही दबाव में है। वहीं, चीन से भारत का तनाव घट नहीं रहा है। अमेरिका से हमारे सैन्य रिश्ते अवश्य सुधर रहे हैं, किंतु उनकी प्रकृति सामरिक महत्व की दूरगामी सैन्य परियोजनाओं पर अधिक केंद्रित है। रूस अभी भी भारत का सबसे बड़ा सैन्य आपूर्तिकर्ता है। यह स्थिति रातोंरात नहीं बदली जा सकती। चीन के बढ़ते खतरे को लेकर अमेरिका क्वाड जैसे मंच को सक्रिय बनाने के अलावा भारत के साथ सामरिक साझेदारी पर गंभीरता से काम भी कर रहा है, लेकिन संकल्प के स्तर पर अभी भी वह कहीं न कहीं पसोपेश में है।
अमेरिका महत्वपूर्ण सामरिक साझेदार देशों के आंतरिक मामलों पर प्रवचन देने की अपनी आदत से भी बाज नहीं आ रहा। इसका ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान उनसे भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर शरारत भरा एक सवाल पूछने वाली एक पत्रकार की भारतीयों द्वारा इंटरनेट मीडिया पर आलोचना होने पर व्हाइट हाउस द्वारा जारी एक कड़वा बयान है। यह समझना भी आवश्यक है कि अमेरिका में वोक कल्चर के नाम पर उपज रही एक अपसंस्कृति, जो छोटे बच्चों को भी यौन वस्तु की तरह देखती-दिखाती है, सांस्कृतिक रूप से उतना ही बड़ा एक खतरा है जितना कि चीन हमारे लिए सैन्य खतरा है। पुतिन के नेतृत्व में रूस इस अपसंस्कृति के विरोध में खड़ा है और उसका पतन अमेरिका की इस सांस्कृतिक विकृति को बेलगाम कर देगा।
रूस-चीन का मजबूत होता गठजोड़ अमेरिका को भारत पर सामरिक रूप से अधिक निर्भर बनाता जाएगा। यदि रूस को यूक्रेन युद्ध में असफलता मिलती है तो पुतिन का पतन तय है। इन स्थितियों में भारत का सामरिक महत्व और कद बढ़ेगा। इसके बावजूद भारतीय नीतिकारों के समक्ष शक्ति संतुलन बनाए रखने को लेकर गंभीर चुनौतियां हैं। भारत पश्चिमी देशों को समझाए कि यदि वे चीनी खतरे को लेकर गंभीर हैं तो रूस पर इतना दबाव न बनाएं कि चीन लाभ उठा ले जाए। भारत के लिए रूस को भी समझाना जरूरी होगा कि चीन से बढ़ती रूसी नजदीकियां भारत को अमेरिका की ओर ले जाएंगी और तब रूस की हैसियत चीन के कनिष्ठ सहयोगी की रह जाएगी, जो रूस को एक महाशक्ति के रूप में देखने वाले रूसियों को भी स्वीकार्य नहीं होगी।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)