डॉ. एके वर्मा। जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के विधानसभा चुनावों ने देश का ध्यान इसलिए और अधिक आकर्षित किया हुआ था, क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद होने वाले ये पहले चुनाव थे। जहां जम्मू-कश्मीर की जनता ने नेशनल कॉन्फ्रेंस यानी नेकां-कांग्रेस गठबंधन को बहुमत दिया, वहीं हरियाणा की जनता ने भाजपा को तीसरी बार सत्ता सौंपी।

यहां भाजपा ने करीब 40 प्रतिशत वोट हासिल कर हैट्रिक लगाई। जम्मू-कश्मीर में भाजपा का प्रदर्शन पहले से थोड़ा बेहतर रहा। इस बार उसे करीब 2.65 प्रतिशत वोट अधिक मिले। कांग्रेस को दोनों राज्यों में नुकसान हुआ। हरियाणा में सत्ता विरोधी रुझान तथा किसान-पहलवान-जवान के नारे के चलते कांग्रेस अपनी ताजपोशी सुनिश्चित मान रही थी, लेकिन उसे निराशा मिली। जम्मू-कश्मीर में वह नेकां की पिछलग्गू बन गई। उसे पिछली बार से भी कम सीटें मिलीं।

हरियाणा में ऐसा विमर्श बनाया गया था कि कांग्रेस को सत्ता मिलना सुनिश्चित है। किसानों, महिला पहलवानों और अग्निवीर जवानों को मोदी के विरोध में बताया गया था, लेकिन यह साफ हुआ कि किसान आंदोलन समर्थ किसानों और राजनीतिक दलों द्वारा पोषित था। महिला पहलवानों का आंदोलन भी राजनीति से अधिक प्रेरित था और अग्निवीर पर अनर्गल प्रचार था।

किसानों, युवाओं और खिलाड़ियों के उन्नयन हेतु मोदी सरकार के कार्यों को जनता ने सराहा है। नतीजों ने इस दुष्प्रचार की पोल खोली है कि महिलाएं और दलित भाजपा के विरुद्ध हैं। उलटे जाट वर्चस्व के विरुद्ध गैर-जाटों की लामबंदी हुई और अति दलितों ने आरक्षण उपवर्गीकरण पर भाजपा का समर्थन किया।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए हटने एवं केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था। 2019 के पहले यहां आतंकियों के फरमान, अलगाववादियों की बायकाट अपील और भय से भरे वातावरण में चुनाव होते थे। मोदी सरकार ने लोकतंत्र बहाली के लिए 2019 में ब्लाक डेवलपमेंट काउंसिल, 2020 में डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल और 2021 में पंचों एवं सरपंचों के चुनाव कराए। इसी क्रम में 2024 में लोकसभा चुनाव हुए।

परिसीमन के बाद जम्मू संभाग में 43 तथा कश्मीर संभाग में 47 सीटें आवंटित हुईं। भाजपा 60 सीटों पर चुनाव लड़ी-19 कश्मीर और 41 जम्मू में। पार्टी ने 23 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए। कांग्रेस और नेकां गठबंधन के रूप में क्रमशः 32 और 51 सीटों पर चुनाव लड़े। पांच सीटों पर उनका मित्रवत मुकाबला था।

महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी और अल्ताफ बुखारी की पार्टी भी थी। इसके अलावा आवामी इत्तेहाद पार्टी भी चुनाव में उतरी, जिसके मुखिया सांसद इंजीनियर रशीद आतंकी फंडिंग के मामले में तिहाड़ में बंद थे, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें चुनाव प्रचार के लिए जमानत पर रिहा किया।

उन्होंने लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला को हराया था, लेकिन उनके दल समेत अन्य पार्टियां कुछ नहीं कर सकीं। पीडीपी भी बुरी तरह सिमट गई। नेकां, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों का एजेंडा एक था-अनुच्छेद 370 वापस लाना और राज्य का दर्जा बहाल करना, उन कानूनों को समाप्त करना जो विशेष-राज्य-दर्जे को प्रभावित करते हैं, राजनीतिक बंदियों को रिहा करना, पाकिस्तान से वार्ता करना, भू-स्वामित्व को सीमित करना, जनसुरक्षा कानून खत्म करना आदि।

कांग्रेस महिलाओं और बेरोजगारों के लिए भत्ते एवं बीमा योजनाओं जैसी अपनी कुछ लोकलुभावन गारंटियों के साथ मैदान में थी। जबकि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना, क्षेत्रीय विकास, युवाओं के भविष्य का निर्माण और आतंकवाद, अलगाववाद, परिवारवाद एवं भ्रष्टाचार को समाप्त करने पर जोर दिया।

आतंकियों द्वारा हिंदुओं के दमन से लाखों हिंदुओं को कश्मीर छोड़ना पड़ा था। इसके कारण आज कश्मीर पूर्णतः मुस्लिम बहुल हो गया और उनमें भाजपा की पैठ नगण्य है। कश्मीर में मतदाताओं का वोट बंटा नहीं। वह एकमुश्त नेकां को गया। जम्मू संभाग में मुस्लिम आबादी एक तिहाई है। यहां के केवल चार जिले जम्मू, कठुआ, सांभा और ऊधमपुर हिंदू बहुल हैं। पीर पंजाल के पुंछ और डोडा मुस्लिम बहुल हैं तथा चिनाब घाटी के तीन जिले मिश्रित आबादी वाले हैं।

मजहब के अलावा जम्मू में जाति, जनजातीय और भाषाई अस्मिता प्रभावी हैं। इसलिए जहां कश्मीर में भाजपा के लिए कोई राजनीतिक स्पेस नहीं है, वहीं जम्मू में उसे कांग्रेस, पीडीपी और नेकां आदि से राजनीतिक स्पेस साझा करने की विवशता है। जम्मू में 2014 से भाजपा का प्रभाव बढ़ा। तब उसे 25 सीटें और 22.98 प्रतिशत मत मिले थे। इस बार उसकी सीटें और वोट बढ़े हैं। इन चुनावों में पीडीपी को 13.8 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ। आश्चर्यजनक रूप से आम आदमी पार्टी ने डोडा में भाजपा को हराकर अपना खाता खोला।

जैसे हरियाणा में भाजपा की सरकार बनना तय है, उसी तरह जम्मू-कश्मीर में नेकां-कांग्रेस गठबंधन की। उमर अब्दुल्ला सरकार बनाने जा रहे हैं। चूंकि केंद्रशासित क्षेत्र बनने के बाद यहां उपराज्यपाल की शक्तियां विपुल हैं, अतः शासन का स्वरूप पहले जैसा नहीं होगा। जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री को अनेक महत्वपूर्ण कार्यों हेतु उपराज्यपाल की अनुमति लेनी होगी। पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, अखिल भारतीय सेवाओं और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से संबंधित प्रस्ताव अब सीधे मुख्य सचिव के माध्यम से उपराज्यपाल को भेजे जाएंगे। उसे वित्त विभाग के अनुमोदन की जरूरत नहीं होगी।

जम्मू-कश्मीर और हरियाणा चुनावों के संदेश भिन्न हैं। जहां जम्मू-कश्मीर चुनावों ने विश्व को यह संदेश दिया कि भारत के इस भूभाग में लोकतंत्र सशक्त और जीवंत है, वहीं हरियाणा का जनादेश भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के तथाकथित ह्रास एवं डबल इंजन के फेल होने के नैरेटिव को खारिज करता है। ये दोनों ही संदेश बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

भाजपा जानती थी कि जम्मू-कश्मीर में केवल 60 सीटों पर चुनाव लड़कर बहुमत पाना और सरकार बनाना संभव नहीं। उसे तो यह साबित करना था कि उसने जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने का काम किया है। वह इसमें सफल रही। हरियाणा की अभूतपूर्व विजय से भाजपा को महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और बिहार के आगामी चुनावों में वांछित ऊर्जा और आत्मविश्वास अवश्य मिलेगा।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)