नाइश हसन। महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए दशकों पहले हमारे पुरखों ने यह महसूस कर लिया था कि भारत के पंथ आधारित निजी कानून महिलाओं को न्याय नहीं देते। लिहाजा उनमें बदलाव किया जाना चाहिए। तभी से लैंगिक समानता पर आधारित कानून बनाने और निजी कानूनों में बदलाव की मांग उठने लगी। वर्ष 1971 में पूना में हुई महिला कांग्रेस के दौरान भी यह बात जोरदार तरीके से उठी और लैंगिक समानता तथा स्त्री गरिमा की बात को बल मिला।

एक तरह से हम पिछले 150 वर्षों से समान नागरिक संहिता की दिशा में अग्रसर हैं। आज हमारे देश में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के प्रविधान मौजूद हैं, जो पहले नहीं थे। बस उत्तराधिकार, शादी, तलाक और बच्चों के संरक्षण के मामले में सभी समुदायों के अपने-अपने कानून हैं। यह कहना उचित ही होगा कि वे महिलाओं को वांछित अधिकार नहीं देते। आजादी के बाद से महिलाएं उन्हें लगातार चुनौती देती आ रही हैं। 1948 के बाद से कई ऐसे मौके आए, जब सुप्रीम कोर्ट ने भी समान नागरिक संहिता की वकालत की और अनुच्छेद-44 का हवाला दिया।

1985 में शाहबानो के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद-44 मृत होकर रह गया है। इसके बाद 1995 में सरला मुद्गल केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि संविधान के अनुच्छेद-44 के लिए संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार को अभी कितना समय लगेगा? 2003 में जान बलवत्तम केस में कोर्ट ने फिर कहा कि यह दुख की बात है कि संविधान के अनुच्छेद-44 को अभी तक लागू नहीं किया गया। 2017 में भी शायरा बानो केस के समय अदालत में यह मुद्दा उठा था।

इसमें दो राय नहीं कि समान नागरिक संहिता एक प्रगतिशील समाज की वकालत करती है, जिसे लागू होना ही चाहिए, लेकिन देखा यह गया कि इस पर सियासी दलों ने राजनीति करके महिलाओं को इस मुद्दे के केंद्र से गायब सा कर दिया। समान नागरिक संहिता की जरूरत को न्याय से जोड़ने के बजाय देश की एकता, अखंडता, एक देश-एक कानून, अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक गोलबंदी की तरफ मोड़ दिया, जबकि कानून में सुधार की मांग का राष्ट्रभक्ति या एकता, अखंडता से कोई लेना-देना नहीं।

फिर भी यह वोट की गोलबंदी से जुड़ा मुद्दा बन गया और महिलाओं के बजाय नेता, धर्मगुरु सामने आ गए। निजी कानूनों पर सवाल उठाना धार्मिक मामलों में दखल देना माना जाने लगा। धर्मगुरु आपे से बाहर होने लगे। इस मुद्दे का दो बड़ी सियासी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने सांप्रदायीकरण भी किया। इस राजनीति ने महिलाओं का खासा नुकसान किया। उन्हें पता होना चाहिए कि महिलाएं किसी समुदाय की भेड़ें नहीं हैं, जिन्हें चरवाहा मजहबी डंडा लिए हांकता रहे। वे स्वतंत्र आवाज हैं और उनकी आवाज सुनी जानी चाहिए।

उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता की पहल करके राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपनी सरकार के एजेंडे में शामिल एक काम को पूरा तो कर लिया, लेकिन इस कानून के बारे में महिलाएं उनसे कुछ सवाल भी कर रही हैं। इस कानून के तहत लिव-इन रिश्ते में रहने वाले जोड़े को सरकार के सामने अपने दस्तावेज पेश करने होंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारे समाज में प्रेम करने वाले जोड़ों को अक्सर मार डाला जाता है। समुदाय उनके साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करता है। अगर इस साल की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो इसकी गंभीरता का अहसास होता है। जैसे-नोएडा में वैलेंटाइन डे पर एक पिता ने बेटी की हत्या कर दी।

मुजफ्फरनगर में एक भाई ने अपनी बहन को प्रेम करने की क्रूर सजा दी। गोंडा में तो बेटी के पिता ने बेटी एवं उसके प्रेमी, दोनों को मार डाला। ऐसे में अगर प्रेमी जोड़े अपने रिश्ते और उनके साथ रहने के बारे में हलफनामा देंगे तो उनके जीवन पर खतरे की तलवार मंडराने लगेगी और उनकी निजता प्रभावित होगी। ऐसा प्रविधान कानून में लाना यह साबित करता है कि कानून बनाते समय महिलाओं को नजरअंदाज किया गया। उनकी स्थिति को ध्यान में रखकर नहीं सोचा गया। ऐसे कानून महिलाओं की गरिमा के साथ ही उनकी सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर सकते हैं।

ऐसी संभावना है कि आगे और भी राज्य समान नागरिक संहिता लागू करेंगे। लिहाजा उन्हें इस पर जरूर गौर करना चाहिए कि उत्तराखंड का समान नागरिक संहिता का माडल उनके यहां की महिलाओं के नजरिये से मुफीद है या नहीं? जब सरकारें समान नागरिक संहिता के मसौदे पर बहस करें तो उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विचार-विमर्श में सभी समुदाय की महिलाओं की भागीदारी और लैंगिक समानता का नजरिया उसके केंद्र में हो। इससे ही महिलाओं के लिए समानता की लड़ाई और प्रभावी हो सकेगी। साथ ही सरकारों और सामुदायिक नेताओं पर भी दबाव पड़ेगा कि वे महिला अधिकारों की बात को स्वीकार करें।

एक आदर्श स्थिति तो वह होगी, जब हम पहले वैकल्पिक नागरिक संहिता लाएं, फिर निजी कानूनों में सुधार लाते-लाते अंततः एक अनिवार्य नागरिक संहिता को जन्म देने में सफल हो जाएं। समान नागरिक संहिता को एक बार में ही न लागू करके इसे चरणों में लागू किए जाने की जरूरत है। वैकल्पिक कानूनों की उपलब्धता स्वयं ही निजी कानूनों में सुधार की दिशा में काम करेगी। किसी भी धार्मिक संदर्भ को देखे बिना मानवीय आधार पर न्याय होना चाहिए और सबको न्याय मिलना चाहिए। उम्मीद की जाती है कि अन्य राज्य समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करते समय महिलाओं की आवाज को अनसुना नहीं करेंगे। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हम इतनी आशा तो कर ही सकते हैं।

(लेखिका महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं)