जागरण संपादकीय: पंथनिरपेक्ष नागरिक संहिता का समय, यूसीसी पर देना होगा अधिक जोर
जब भी मजहबी बातों और संविधान के बीच विकल्प चुनने की बारी आए तो सदैव संविधान को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सीधे और सरल शब्दों में कहें तो संविधान ही सर्वोच्च है। कुछ इसी प्रकार का संदेश स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण से झलका। भारत के संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने के लिए समान नागरिक संहिता को हर हाल में लागू किया ही जाना चाहिए।
ए. सूर्यप्रकाश। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लाल किले की प्राचीर से बड़ी-बड़ी घोषणाएं करते आए हैं। इसी कड़ी में इस बार उन्होंने ‘सेक्युलर’ सिविल कोड का उल्लेख किया कि संवैधानिक सिद्धांतों और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप ऐसी संहिता बनाई जाए। उनका यह रेखांकित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा कि वर्तमान में जो संहिता लागू है, वह सांप्रदायिक प्रकृति की है।
उनका संकेत 1955 में जवाहरलाल नेहरू सरकार के उस कानूनी सुधार की ओर था, जिसने हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध समुदाय को तो अपने दायरे में ले लिया, मगर मुस्लिम सहित कुछ समुदायों को छोड़ दिया। हिंदू पर्सनल कानूनों में परिवर्तन के पीछे नेहरू सरकार की मंशा इन कानूनों को संहिताबद्ध करने की थी।
जहां यह काम द्रुत गति से हुआ, वहीं समान नागरिक संहिता को लेकर नेहरू सरकार ने कदम पीछे खींच लिए। संविधान सभा से ही मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे पर जो दबाव बनाया, उसके आगे नेहरू सरकार ने समर्पण कर दिया। समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति से न्याय, समानता एवं बंधुत्व से जुड़े संवैधानिक मूल्य तिरोहित होते गए। यह नेहरू सरकार की बहुत भारी भूल थी और यदि देश में संवैधानिक-लोकतांत्रिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखना है तो इस भूल को सुधारना ही होगा।
मजहब के आधार पर हुए देश के रक्तरंजित विभाजन के बावजूद भारत ने पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संवैधानिक राष्ट्र की राह चुनी। यह इसीलिए संभव हो सका, क्योंकि इसमें बहुसंख्यक हिंदुओं और भारतीय धरा पर जन्मे धर्मों के अनुयायियों की सहमति थी। भारत पाकिस्तान की राह पर नहीं गया, क्योंकि हिंदू धार्मिक राज्य में विश्वास नहीं करते थे।
ऐसे में तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व को सुनिश्चित करना चाहिए था कि जिन्होंने भारत में रहने को तरजीह दी, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, वे इन उदारवादी मूल्यों को आत्मसात करें। जिन्हें अपनी मजहबी परंपराएं ज्यादा प्यारी थीं, उनके लिए सरहद पार करके नवसृजित इस्लामिक देश में जाने का विकल्प खुला हुआ था।
भारत में इसे लेकर दिखाई गई हिचक का परिणाम यह निकला कि समान नागरिक संहिता अस्तित्व में नहीं आ पाई। आखिर संवैधानिक राह पर चलने वाले एक पंथनिरपेक्ष देश में मजहबी कानून कैसे प्रभावी रह गए, इसके जवाब की जड़ें 23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में अनुच्छेद 44 (तब यह अनुच्छेद 35 था) पर हुई बहस में छिपी हैं। इसके विरोध की शुरुआत बहस आरंभ करने वाले मोहम्मद इस्माइल साहिब के वक्तव्य से ही हो गई।
उन्होंने कहा कि पर्सनल कानूनों का पालन एक मूल अधिकार है। महबूब अली बेग साहिब बहादुर और बी. पोकर साहिब बहादुर ने उनसे सहमति जताई। बी. पोकर साहिब ने कहा, ‘यूसीसी एक दमनकारी प्रविधान है, जिसे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’ हुसैन इमाम और नजीरूद्दीन अहमद भी विरोध की इस मुहिम में शामिल हो गए। इस प्रकार, समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर उस दिन जितने भी मुस्लिम सदस्यों ने अपनी बात रखी, सभी ने उसका विरोध किया।
केएम मुंशी ने उनका प्रतिवाद किया। भारत में खोजा और कच्छी मेमन वर्ग में भारी असंतोष था कि उन पर शरीयत कानून लागू थे। मुंशी ने पूछा, ‘तब अल्पसंख्यकों के अधिकार कहां थे?’ उनका आशय इस्लाम के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों से था, जो शरीयत कानून को मानने पर मजबूर थे। मुंशी ने कहा कि हम धर्म-पंथ को पर्सनल कानूनों से अलग करना चाहते हैं।
उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘ये मामले (विवाह, तलाक और उत्तराधिकार आदि) धार्मिक न होकर, नितांत पंथनिरपेक्ष कानूनों के दायरे में आते हैं।’ उन्होंने कहा कि हिंदुओं ने अपने लिए संवैधानिक सिद्धांतों को आत्मसात कर लिया है। अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर उनसे सहमत थे। उन्होंने कहा, ‘यदि कोई समुदाय स्वयं को समय के साथ बदलने के लिए तत्पर है तो वह बहुसंख्यक (हिंदू) समुदाय ही है।’
संविधान सभा में प्रारूप समिति के प्रमुख डा. बीआर आंबेडकर ने भी मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियों को खारिज किया। उन्होंने इस दावे की भी पोल खोली कि शरीयत कानून अपरिवर्तनीय होने के साथ ही पूरे भारत में एकसमान हैं। उन्होंने याद दिलाया कि नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस में 1939 तक मुसलमानों पर शरीयत कानून लागू नहीं थे।
उत्तराधिकार आदि में वे हिंदू कानूनों का ही पालन करते थे। साथ ही, 1937 में शरीयत कानून लागू होने से पहले तक संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और बांबे में हिंदू उत्तराधिकार कानून का पालन किया जाता तो मालाबार में मुसलमान हिंदू मातृसत्तात्मक कानून का पालन करते थे। इसलिए, उन्हें मुस्लिम सदस्यों के सभी संशोधनों को खारिज करना पड़ा।
स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों में राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिस भीरुता का परिचय दिया, उसकी कीमत भारत को आज भी चुकानी पड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इस मुद्दे को छेड़ते हुए समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया है। ऐसे मामलों में न्यायाधीशों ने कहा, ‘जब देश के 80 प्रतिशत से अधिक नागरिक पहले ही संहिताबद्ध पर्सनल कानूनों के दायरे में लाए जा चुके हैं तो शेष अन्य को इससे बाहर रखने और सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लाने के फैसले को स्थगित रखने का कोई औचित्य नहीं।’
शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी भी उतनी ही समीचीन है कि हिंदुओं के साथ-साथ सिखों, बौद्धों और जैनियों ने ‘राष्ट्रीय एकता और एकीकरण के लिए अपनी भावनाओं के साथ समझौता कर लिया’, लेकिन कुछ अन्य समुदायों की ऐसी मंशा नहीं। वह भी तब जब संविधान पूरे भारत के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ का निर्देश देता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी का कहना पूरी तरह उपयुक्त है कि समय आ गया है कि हम ‘सेक्युलर कोड’ यानी पंथनिरपेक्ष नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ें।
इस राह में हमें सुनिश्चित करना होगा कि मजहबी भावनाएं संवैधानिक मूल्यों-प्रविधानों की राह में अवरोध न बनें। जब भी मजहबी बातों और संविधान के बीच विकल्प चुनने की बारी आए तो सदैव संविधान को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सीधे और सरल शब्दों में कहें तो संविधान ही सर्वोच्च है। कुछ इसी प्रकार का संदेश स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण से झलका। भारत के संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने के लिए समान नागरिक संहिता को हर हाल में लागू किया ही जाना चाहिए।
(लेखक संवैधानिक मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)