संजय गुप्त। नई लोकसभा के गठन के साथ ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार की तीसरी पारी की शुरुआत हो चुकी है। इस सरकार का नेतृत्व संभालने के पहले से कांग्रेस और उसके कुछ सहयोगी दलों ने यह माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जो सरकार बनी, उसे बहुमत हासिल नहीं है। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खरगे का कहना है कि जनता ने भाजपा के चार सौ पार के नारे को ठुकरा दिया, इसलिए यह प्रधानमंत्री मोदी की नैतिक और राजनीतिक हार है। यह सही है कि भाजपा को बहुमत नहीं मिला, लेकिन कांग्रेस का यह दावा भी तो सही नहीं साबित हुआ कि उसके नेतृत्व वाले गठबंधन यानी आइएनडीआइए को 295 सीटें मिलेंगी। कांग्रेस नेता इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ बहुमत हासिल किया। भाजपा ने सहयोगी दलों के साथ मिलकर वैसे ही चुनाव लड़ा था, जैसे कांग्रेस ने अपने घटक दलों के साथ।

चूंकि कांग्रेस को पिछली बार के मुकाबले लगभग दोगुनी सीटें मिली हैं, इसलिए उसका उत्साहित होना समझ में आता है, लेकिन आखिर वह यह माहौल क्यों बना रही है कि लोकसभा चुनावों में आइएनडीआइए की जीत हुई और राजग अर्थात एनडीए की हार? अपने संख्याबल में वृद्धि के चलते कांग्रेस का मनोबल बढ़ा है, लेकिन यह उसकी एक राजनीतिक भूल है कि उसने भाजपा को मात दे दी है। यह माहौल बनाने में वह राहुल गांधी भी जुटे हुए हैं, जो लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष बन गए हैं। यदि मोदी की हार हुई है तो फिर उन्होंने नेता प्रतिपक्ष का पद क्यों स्वीकार कर लिया? लगता है राहुल गांधी यह मानकर चल रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री मोदी के प्रति जितना अधिक हमलावर होंगे और राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए आक्रामक बने रहेंगे तो इससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ेगी। यदि राहुल गांधी का नेता प्रतिपक्ष के तौर पर यही रवैया रहा तो इसके आसार कम ही हैं कि वह अपनी इस नई भूमिका में कोई सकारात्मक राजनीति कर सकेंगे और सरकार को रचनात्मक सहयोग देने में कोई सार्थक भूमिका निभा सकेंगे।

जैसी आशंका थी, नई लोकसभा का कार्यकाल विपक्ष की आक्रामकता के साथ शुरू हुआ। विपक्ष का आक्रामक रवैया लोकसभा के साथ-साथ राज्यसभा में भी दिख रहा है। पिछले दिनों तो राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सभापति के आसन के समक्ष पहुंच गए। लोकसभा में भी विपक्ष ने सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी। इससे आने वाले दिनों में संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तालमेल के आसार नहीं। इसकी एक झलक संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति के संबोधन के समय भी मिली। विपक्ष ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के उन बिंदुओं पर भी आपत्ति जताई, जिन पर आपत्ति का कोई मतलब नहीं बनता था। सत्तापक्ष और विपक्ष में टकराव की झलक तब भी मिली, जब लोकसभा स्पीकर के चुनाव की नौबत आ गई।

यह नौबत कांग्रेस के अनावश्यक आक्रामक रवैये के कारण ही आई। नई लोकसभा में नव निर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान विपक्षी नेताओं ने जिस तरह संविधान की प्रतिया लहराते हुए उसे बचाने का नैरेटिव गढ़ा, उसकी कहीं कोई जरूरत नहीं, क्योंकि संविधान को कोई खतरा नहीं। यह ठीक है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने यह जो झूठा नैरेटिव गढ़ा कि यदि राजग को 400 सौ से अधिक सीटें मिल गईं तो भाजपा संविधान बदल देगी, उससे उन्हें राजनीतिक लाभ मिला, लेकिन झूठ की राजनीति लंबे समय तक नहीं चलती। कांग्रेस की झूठ की राजनीति की तब पोल भी खुल गई, जब कांग्रेस संविधान बचाने का दावा करने के साथ ही आपातकाल के स्मरण पर अपनी आपत्ति जताने लगी।

ध्यान रहे संविधान तब खतरे में पड़ा था जब 1975 में इंदिरा गांधी ने अपनी संसद सदस्यता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोप दिया था। आपातकाल के दौरान विपक्ष और मीडिया का जमकर उत्पीड़न किया गया। इससे भी खराब बात यह हुई कि संविधान की प्रस्तावना को बदल दिया गया। यह हैरानी की बात है कि जिस कांग्रेस को आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों और संविधान से की गई छेड़छाड़ को इंदिरा गांधी की एक बड़ी राजनीतिक भूल के तौर पर देखना चाहिए था, वह उसका दबे-छिपे स्वरों में बचाव कर रही। उसने पहले लोकसभा अध्यक्ष की ओर से आपातकाल के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव पर हंगामा किया और फिर राष्ट्रपति के अभिभाषण में आपातकाल की चर्चा का भी विरोध किया।

कांग्रेस आपातकाल को लेकर किस तरह चोरी और सीनाजोरी वाले रवैये का परिचय दे रही है, इसका पता लोकसभा अध्यक्ष की ओर से सदन में आपातकाल के खिलाफ प्रस्ताव लाने के फैसले का राहुल गांधी की ओर से विरोध करना रहा। अच्छा तो यह होता कि कांग्रेस भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला धब्बा साबित हुए आपातकाल को गलत ठहराती। यदि वह ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी तो अच्छा होता कि वह आपातकाल के स्मरण पर मौन साधे रहती। आपातकाल के स्मरण पर कांग्रेस ने जिस तरह अपनी आपत्ति जताई, उससे यह और भी आवश्यक हो जाता है कि आपातकाल को कभी भूला नहीं जाना चाहिए। आखिर कोई दल आपातकाल के काले कारनामों के स्मरण का विरोध करते हुए यह दावा कैसे कर सकता है कि वह संविधान बचाने के लिए प्रतिबद्ध है? कांग्रेस ने अपने रवैये से यही साबित किया कि उसके नेता जिस संविधान की प्रतियां लहरा रहे हैं, उसके प्रति उनके मन में कोई आदर भाव नहीं।

कांग्रेस इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लोकसभा में आपातकाल के खिलाफ जो प्रस्ताव लाया गया, उसका उसके ही कुछ सहयोगी दलों ने समर्थन किया। उनके लिए इस प्रस्ताव का विरोध करना संभव ही नहीं था, क्योंकि आपातकाल के दौरान उनके भी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। कांग्रेस को यह आभास होना चाहिए कि तमाम प्रयासों के बाद भी वह 99 सीटें ही हासिल कर सकी है, जबकि भाजपा ने दस साल सत्ता में रहने के बाद भी 240 के आंकड़े को छू लिया। अब जब कांग्रेस को विपक्षी दल का दर्जा हासिल हो गया है, तब फिर अच्छा यह होगा कि वह संसदीय कार्यवाही के संचालन और देश के विकास में सकारात्मक योगदान दे।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]