जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ता पश्चिम, जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने का वादा पूरा नहीं कर सके विकसित देश
पश्चिमी देश चाहते हैं कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को रोकने का बीड़ा उठाते हुए कार्बन उत्सर्जन में तेजी से कटौती करें। जबकि वह कार्बन डाई आक्साइड और आर्थिक वृद्धि में मजबूत अंतर्संबंध को अनदेखा कर रहा है।
विवेक देवराय/आदित्य सिन्हा: मिस्र के शर्म अल-शेख में जलवायु सम्मेलन-सीओपी 27 संपन्न हो गया, लेकिन जलवायु परिवर्तन का मुद्दा ऐसा हो गया है जो हमेशा चर्चा में रहने लगा है। विकसित देश इसके लिए अक्सर विकासशील देशों को आड़े हाथों लेते हैं कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे। उच्च कार्बन उत्सर्जन को लेकर खासतौर से भारत और चीन जैसे देश उनके निशाने पर होते हैं। उनका यह रुख-रवैया हमें ‘व्हाइट मैन्स बर्डन’ यानी श्वेत-वर्णीय लोगों पर उस जिम्मेदारी के बोझ वाली श्रेष्ठताबोध की याद दिलाता है, जिसकी जड़ें साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से जुड़ी हैं। स्पष्ट है कि पश्चिम अपने नैतिक श्रेष्ठता बोध के दंभ से बाहर आने को तैयार नहीं। वह इसे ‘सुझाव’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों को उपदेश देने में लगा है कि मानवता को बचाने के लिए उन्हें क्या करना है। गरीब देशों के लिए कार्बन स्पेस में गुंजाइश न देना और उन्हें उत्सर्जन में कटौती का उपदेश इसी मानसिकता का उदाहरण है।
पश्चिम चाहता है कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को रोकने का बीड़ा उठाते हुए कार्बन उत्सर्जन में तेजी से कटौती करें। जबकि वह कार्बन डाई आक्साइड और आर्थिक वृद्धि में मजबूत अंतर्संबंध को अनदेखा कर रहा है। इस तथ्यए का क्या कि पश्चिम का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन ग्लोबल साउथ से कहीं ज्यादा है। इन्हीं विकसित देशों ने अपने नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए ऊंची वृद्धि हासिल करने में दुनिया को प्रदूषित करने से गुरेज नहीं किया। वर्ष 1850 से 2011 तक ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन में 79 प्रतिशत हिस्सेदारी इन्हीं देशों की रही। पश्चिमी खेमे ने उन मुद्दों पर तो मुखरता दिखाई, जिनसे उस पर सीधे असर पड़ता, जबकि गरीब देशों की आवश्यकताओं को लेकर उसका रवैया हीलाहवाली भरा रहा। यही पश्चिमी देश उन देशों के विरुद्ध अभियान चलाकर उन्हें शर्मसार करने के अभियान में लगे हैं, जो इनके श्रेष्ठता बोध से भरे सुझावों को नहीं मानते।
जलवायु परिवर्तन की चुनौती को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है मानो यही मानवता के समक्ष एकमात्र संकट है। दुनिया अभी भी महामारी से उबर रही है। कुपोषण अभी भी चिंता का सबब बना हुआ है। यूक्रेन-रूस संकट से वैश्विक स्तर पर बढ़ रही महंगाई ने कई देशों को मंदी की राह पर धकेल दिया है। हालांकि भारत इस मामले में अपवाद है, जहां अर्थव्यवस्था अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में और यहां तक कि विकसित देशों से भी अपेक्षाकृत बेहतर कर रही है। इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि आर्थिक विकास की निरंतरता को बनाए रखने के लिए जीवश्म ईंधन से हरित ऊर्जा की ओर संक्रमण में कुछ समय लगेगा। शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य की पूर्ति के लिए भारत को कोयला-आधारित तापीय बिजली संयंत्रों से हरित ऊर्जा स्रोतों की ओर रुख करना होगा।
भारत जैसे देश के लिए यह आसान नहीं होगा, जहां अधिकांश ऊर्जा तापीय बिजली संयंत्रों से प्राप्त होती है। नि:संदेह जलवायु परिवर्तन की चुनौती वास्तविक है। विकासशील देश और द्वीपीय राष्ट्र तो जलवायु संबंधी आपदाओं का ध्वंस भी झेल रहे हैं। ऐसे में यही सवाल उठता है कि क्या कार्बन उत्सर्जन का ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़कर उसमें कटौती का पूरा दारोमदार उन्हीं देशों पर लाद दिया जाए और पश्चिमी देश अंतहीन सौदेबाजी में लगे रहें? वास्तविकता यही है कि विकसित देशों ने पिछली शताब्दी में जलवायु को विकृत करने का जो काम किया, उसकी भरपाई में वे पूरी तरह विफल रहे हैं।
विदेशी पूंजी के बिना विकासशील देशों के लिए हरित ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाना मुश्किल होगा। यह पूंजी भी सुगमता और रियायत के साथ उपलब्ध करानी होगी। जलवायु वित्तपोषण के लिए सीमित विकसित देशों ने 2020 से हर साल गरीब देशों को 100 अरब डालर उपलब्ध कराने पर सहमति जताई थी, लेकिन जलवायु वित्तपोषण पर स्वतंत्र विशेषज्ञ समूह के अनुसार 2020 में भी 100 अरब डालर की वार्षिक प्रतिबद्धता का यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। विकसित देशों ने फिर से वादा किया कि कम विकसित देशों को 2020 से सालाना 100 अरब डालर उपलब्ध कराए जाएंगे। ठीक उसी समय संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि इस दिशा में कहीं अधिक राशि की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन पर गठित संयुक्त राष्ट्र अंतरसरकारी पैनल के अनुसार यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करना है तो हर साल 1.6 से 3.8 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की आवश्यकता होगी। यह पूरी तरह विकसित दुनिया के उसी दस्तूर की भांति है, जिसमें वह किसी बात का वादा तो करता है, लेकिन उस पर खरा नहीं उतरता। हाल के दौर में उसका यह रुख-रवैया उजागर होता रहा है।
सीओपी-27 में नुकसान और क्षतिपूर्ति लिए विशिष्ट कोष बनाने का निर्णय हुआ है। जलवायु न्याय वार्ताओं में इसे विकासशील देशों के लिए बड़ी सफलता माना जा सकता है। यह विकसित दुनिया द्वारा उनके पापों की स्वीकृति से कम नहीं है। यदि इस कोष की व्यवस्था आदर्श रूप में आकार ले पाती है तो इससे उन संवेदनशील देशों को बहुत लाभ पहुंचेगा, जिनका जलवायु संकट को बढ़ाने में तो उतना योगदान नहीं, जितना उन्हें उसका कोप झेलना पड़ रहा है। हालांकि वादे से मुकरने का विकसित देशों का पुराना रिकार्ड है, जो 100 अरब डालर के संकल्प में भी दिखा। इसके बावजूद विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन घटाने के प्रयास जारी रखने चाहिए। भारत ने 2030 तक 50 प्रतिशत बिजली गैर-जीवाश्म ईंधनों से बनाने का लक्ष्य रखा है। विकसित देशों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के इस बिल की भरपाई तो उन्हीं को करनी चाहिए, जिन्होंने अतीत से भारी प्रदूषण फैलाया। सतत जलवायु वित्तपोषण वास्तव में ‘विकसित देशों’ का दायित्व है और इसका बोझ निम्न एवं मध्यम आय और विकासशील देशों में भी सबसे आखिरी पायदान पर रहने वाले देशों पर नहीं डाला जाना चाहिए।
(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और सिन्हा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में अपर निजी सचिव-अनुसंधान हैं)