विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा। वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स नाम का वैश्विक सूचकांक इन दिनों चर्चा में है। इसे तैयार करने वाले संगठन ने अपनी परंपरा के अनुसार भारत को पिछड़ा दिखाया है। हैप्पीनेस इंडेक्स की 143 देशों की सूची में भारत को 126वें स्थान पर रखा है। सूची के हिसाब से भारत की स्थिति निराशजनक नजर आ सकती है, लेकिन यह भी याद रहे कि प्रसन्नता एक सापेक्षिक भाव है।

आखिरकार, तानाशाही शासन वाला चीन भी प्रसन्नता के मामले में 64वें स्थान पर मौजूद है। रैंकिंग की कायदे से पड़ताल करने से इसकी पोल खुद ही खुल जाती है। जैसे कि युद्ध की विभीषिका का सामना कर रहे रूस और यूक्रेन प्रसन्नता के पैमाने पर भारत से ऊपर आंके गए हैं। यहां तक कि इराक और फलस्तीन जैसे देश भी तमाम दुश्वारियों के बावजूद भारत से ऊपर हैं। और तो और तमाम आम जरूरतों की पूर्ति में भारी किल्लत का सामना कर रहे पाकिस्तान को भी भारत से अधिक खुशहाल बताया गया है। ऐसे में यह सूची बड़ी विचित्र प्रतीत होती है।

प्रसन्नता को मापना असंभव सा काम है। प्रसन्नता के निर्धारक व्यक्तिगत एवं सांस्कृतिक स्तर पर अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ दार्शनिकों की दृष्टि में प्रसन्नता आनंद की प्राप्ति में निहित है तो कुछ जीवन को सार्थकता प्रदान करने में प्रसन्नता खोजते हैं। जब हम विभिन्न देशों में खुशी को मापने का प्रयास करते हैं तो यह कवायद और जटिल हो जाती है। सांस्कृतिक विविधताएं भी इसमें भूमिका निभाती हैं। दुनिया के किसी हिस्से में किसी व्यक्ति को यदि किसी चीज से खुशी मिलती है तो संभव है कि विश्व के किसी दूसरे कोने में किसी व्यक्ति को उससे प्रसन्नता न मिले।

पश्चिम में जहां व्यक्तिगत उपलब्धियों को खासा सराहा जाता है, वहीं पूरब के देशों में पारिवारिक एवं सामुदायिक जुड़ाव को खासी महत्ता दी जाती है। भिन्न-भिन्न आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्यों में यह सांस्कृतिक पहलू समूचे विश्व में प्रसन्नता के किसी एक मानक की स्थापना को और मुश्किल बना देता है। भारत में व्यापक सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक एवं क्षेत्रीय और अन्य विविधताओं को देखते हुए इस प्रकार का सर्वे अपने उद्देश्य के साथ न्याय नहीं कर पाता।

यह तो वही बात हुई कि समंदर की थाह महज कुछ बूंदों से लेने की कोशिश की जाए। भारत में खुशियां और उनके पीछे के पहलुओं में इतनी बारीकियां जुड़ी हैं, जिन्हें महज कुछ नमूनों से नहीं मापा जा सकता। इसके अतिरिक्त, बेहतरी की विस्तारित एवं आत्मपरक प्रकृति, वैयक्तिक मिजाज, सामाजिक प्रतिमान और सांस्कृतिक संबंध प्रसन्नता को शुद्ध रूप से मापने का मामला और पेचीदा बना देते हैं। ऐसे सर्वे तैयार करते समय अक्सर सांस्कृतिक संवेदनशीलता के पैमाने को अनदेखा कर दिया जाता है।

भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में प्रसन्नता और जीवन से संतुष्टि संबंधी प्रश्न सांस्कृतिक परंपराओं और मूल्यों से भी प्रभावित हो सकते हैं। इन बारीकियों के बिना जुटाया गया कोई भी डाटा भारतीयों को लेकर सही तस्वीर नहीं पेश कर सकता। हैप्पीनेस इंडेक्स और ऐसे अन्य सूचकांक कुछ और मुद्दे भी उठाते हैं, लेकिन यह न विस्मृत किया जाए कि वैश्विक एजेंसियां और थिंक टैंक अक्सर भारत-विरोधी नैरेटिव चलाते हैं। आलोचक भारत की नकारात्मक तस्वीर चित्रित करते हैं, जिसमें भारत के प्रति पूर्वाग्रह प्रत्यक्ष दिखता है।

ऐसी धारणा विभिन्न कारकों की जटिल अभिक्रिया के उपरांत आकार लेती है, जिसके भारत की वैश्विक छवि और नीति-निर्माण के लिहाज से गहरे निहितार्थ होते हैं। इस प्रकार की विसंगतियों के पीछे एक कारण डाटा उपलब्धता और विश्वसनीयता का भी है। कई मामलों में भारत के सांख्यिकी विभागों से समय पर डाटा उपलब्ध नहीं हो पाता तो इस कारण अंतरराष्ट्रीय संगठनों को अन्य स्रोतों का रुख करना पड़ता है।

इससे विसंगति की स्थिति उत्पन्न होने के साथ ही आशंका बलवती हो जाती है कि प्राप्त आंकड़ों की अपने विमर्श के अनुरूप व्याख्या की जा सके। उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा सके। इसका सीधा, सरल और सटीक समाधान यही है कि डाटा नियमित अंतराल पर जारी किए जाएं और इसकी समूची प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाई जाए। सटीक आंकड़ों की सहज उपलब्धता से भारत अपनी नीतियों एवं प्रदर्शन के बेहतर मूल्यांकन की स्थिति निर्मित कर सकता है।

एक उल्लेखनीय पहलू वैश्विक सूचकांकों पर अति निर्भरता का भी है, जिसमें अक्सर विकसित देशों के नजरिये की ही अधिक छाप होती है। इससे एक जटिल दृष्टिकोण की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें भारत जैसे देशों की उपलब्धियों के प्रति न तो वैसी समझ होती है और न ही उनकी सराहना। चूंकि विकासशील देशों के स्तर पर ऐसे किसी वैकल्पिक सूचकांक का अभाव है तो इस मोर्चे पर असंतुलन की खाई इसी प्रकार बनी हुई है। ऐसे में, विकसित देशों के नैरेटिव की काट के लिए जरूरी है कि भारत और अन्य विकासशील देश अपने सूचकांक और रेटिंग प्रणाली विकसित करें। उसमें स्थानीय वास्तविकताएं और प्राथमिकताएं झलकनी चाहिए, जो प्रभावी वैश्विक विमर्श का मुकाबला कर सकें।

जहां तक खुशी की बात है तो इसके संदर्भ में हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन ने यथार्थ ही कहा है, ‘मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा।’ स्पष्ट है कि प्रसन्नता एक बहुत ही सापेक्षिक मुद्दा है। प्रसन्नता को लेकर पश्चिम और भारत के दृष्टिकोण भी अलग हैं, जिसमें भौतिकता और सांस्कृतिक पक्ष जैसे पहलुओं का अंतर है। चूंकि वैश्विक सूचकांक मुख्य रूप से व्यक्तिगत बेहतरी और आर्थिक पहलुओं का संज्ञान लेते हैं, इसलिए वे भारतीय प्रसन्नता को निर्धारित करने वाले सामुदायिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक मूल्यों पर गौर नहीं कर पाते, जिनमें खासी गहराई होती है।

ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि भारत प्रसन्नता को मापने के लिए समग्रता से परिपूर्ण अपना एक ढांचा विकसित करे, जिसमें विविधतापूर्ण दार्शनिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश हो। ऐसा करके भारत वैश्विक विमर्श में व्यापक रूप से समृद्ध विमर्श प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकेगा, जिसमें उसके समाज के अनूठे तानेबाने के साथ ही उसकी ज्ञानवान एवं दार्शनिक विरासत की छाप नजर आए।

(देवराय प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)