राजीव सचान : कर्नाटक के स्कूलों में कक्षाओं के भीतर हिजाब पहनने पर प्रतिबंध के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने ही वाला है। पता नहीं कि वह कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के साथ जाएगा या फिर उससे अलग नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन यह फैसला एक ऐसे समय आने जा रहा है, जब ईरान में हिजाब के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों में अब तक डेढ़ सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें कई युवतियां भी हैं। ये वे युवतियां हैं, जो सरकार के उस नियम का विरोध कर रही थीं, जिसके तहत सार्वजनिक स्थलों पर हिजाब पहनना अनिवार्य है।

ईरान की अधिसंख्य महिलाएं हिजाब नहीं पहनना चाहतीं, लेकिन सरकार है कि उन पर जबरन हिजाब थोपना चाहती है। ईरान में महिलाओं के दमन के पर्याय हिजाब के खिलाफ कोई पहली बार आंदोलन नहीं हो रहा है, लेकिन इस बार का कहीं अधिक व्यापक है। यह आंदोलन स्वतःस्फूर्त है। इसके मूल में कुर्दिश मूल की युवती महसा अमीनी की हत्या बनी, जिसे सही तरीके से हिजाब न पहनने के कारण बुरी तरह पीटा गया। जब वह मरणासन्न हालत में पहुंच गई तो यह कहकर अस्पताल में भर्ती करा दिया गया कि वह बीमार हो गई थी। बाद में वहां उसकी मौत हो गई।

ईरान के लोग यह मानने को तैयार नहीं कि महसा अमीनी पुलिस उत्पीड़न का शिकार नहीं हुई। इसका एक कारण तो नैतिक व्यवहार थोपने वाली ईरानी पुलिस का दमनकारी रवैया है और दूसरे, दुनिया इससे परिचित है कि यहां हिजाब न पहनने वाली महिलाओं से कैसे बुरा बर्ताव किया जाता है।

एक समय ईरान में जो महिलाएं सही तरह से हिजाब न पहने दिख जाती थीं, पुलिस उनके हाथ एक ऐसे घड़े में डाल देती थी, जिसमें लाल चींटियां होती थीं। पुलिस इन महिलाओं के हाथ तब तक घड़े में रखती, जब तक वे सूज नहीं जाते। ईरान में महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया हो रही है, लेकिन भारत में रहस्यमय तरीके से सन्नाटा छाया है। उनका मौन रहना तो समझ आता है, जो कर्नाटक की स्कूली छात्राओं को हिजाब पहनाने पर आमादा थे और इसके लिए तरह-तरह के कुतर्क दे रहे थे, लेकिन आखिर कथित सेक्युलर-लिबरल तत्व क्यों मौन हैं? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि कथित प्रगतिशील नारीवादी और मानवाधिकारवादी कहां हैं? क्या ऐसे लोग भारत में नहीं हैं? हैं तो बड़ी संख्या में। उनकी सक्रियता कई अवसरों पर देखी जा चुकी है, जैसे कठुआ, हाथरस कांड और मी-टू अभियान के समय या फिर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुंचने के समय।

ईरान में जो कुछ हो रहा है, उस पर हमारे किसी राजनीतिक दल ने कोई प्रतिक्रया नहीं दी है। इस पर आश्चर्य नहीं, लेकिन स्वयं को उदारपंथी कहलाने और साथ में महिला अधिकारों के प्रति सदैव सजग-सक्रिय रहने वालों की चुप्पी हैरान भी करती है और परेशान भी। नारीवादियों का मौन भी समझ से परे है। आखिर कहां गए ये सब लोग? ईरान के घटनाक्रम को लेकर विश्व के अनेक देशों और विशेष रूप से पश्चिमी देशों में हर स्तर पर प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ ने ईरान की स्थिति को अस्वीकार्य बताया है। इसके अलावा कई देशों के नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, नारीवादी और अन्य जानी-मानी हस्तियां ईरान के दमनकारी रवैये पर अपना विरोध दर्ज करा रही हैं। कुछ तो ईरानी महिलाओं के समर्थन में सार्वजनिक रूप से अपने बाल काट रही हैं। आम लोग सड़कों पर भी उतर रहे हैं। अपने यहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।

भारत में अब तक केवल दो महिलाओं के ऐसा करने की खबर है। एक, नोएडा की महिला ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर खुद के बाल काटते हुए फोटो पोस्ट की और दूसरे एक टीवी एंकर ने स्क्रीन पर दर्शकों के सामने अपने बाल काटे। इसके अलावा किसी ने कोई वक्तव्य देना तो दूर रहा, ट्वीट और फेसबुक पोस्ट तक नहीं की। बालीवुड से हालीवुड गईं प्रियंका चोपड़ा संभवतः एकमात्र भारतीय हस्ती हैं, जिन्होंने ईरान की महिलाओं के समर्थन में कुछ कहा। उनके अतिरिक्त ईरानी मूल की अभिनेत्री मंदना करीमी ने मुंबई में ईरानी महिलाओं के समर्थन में एक तख्ती लेकर प्रदर्शन किया। उनका साथ देने कोई नायिका आगे नहीं आई। उन्होंने इसके लिए जब कुछ से बात की थी तो किसी ने कहा कि उन्हें अपनी पीआर टीम से बात करनी होगी तो कोई बोला, आखिर हम दो लोग क्या कर लेंगे?

प्रियंका चोपड़ा से भी बालीवुड की कोई नायिका प्रेरित नहीं हुई। उलटे कुछ मीडिया संस्थानों ने ऐसी खबर छापने में दिलचस्पी अवश्य दिखाई, जिसमें लिखा गया कि प्रियंका चोपड़ा की ओर से ईरानी महिलाओं के समर्थन में बोलने से खफा लोगों ने उन्हें खरी-खरी सुनाई। कौन थे ये खफा लोग? कुछ वामपंथी रुझान वाले, कुछ जिहादी किस्म के तत्व और कुछ ऐसे लोग, जो भारत को बदनाम करने का कोई अवसर न छोड़ने के लिए जाने जाते हैं।

वास्तव में यह हैरानी नहीं, बल्कि शर्म का विषय है कि भारत में ईरान की महिलाओं के पक्ष में कोई भी बोलने को तैयार नहीं है। इस मौन से ईरान की महिलाएं कुछ खोने वाली नहीं हैं। खोएगी तो मौन धारण किए हुए लोगों की विश्वनीयता, क्योंकि दिनकर यह बिल्कुल सही कह गए हैं कि ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।’ वास्तव में इनका अपराध तो दर्ज होता साफ दिख भी रहा है, क्योंकि ढोंग कभी छिपता नहीं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)