संकट में पड़ी शी चिनफिंग की सत्ता, कोविड प्रतिबंधों के विरुद्ध छिड़ा आंदोलन जनता के गुस्से की अभिव्यक्ति
चीन पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि शी चिनफिंग गुट के सताए हुए लाखों कम्युनिस्ट काडर और चीनी सेना के अधिकारी इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। इससे राष्ट्रपति शी की गद्दी को खतरा पैदा हो गया है।
विजय क्रांति : इन दिनों चीन एक ऐसे ऐतिहासिक जनउभार का केंद्र बना हुआ है, जिसकी एक दो महीने पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कुछ दिन पहले तक यह हाल था कि चीन की किसी भी गली में विरोध के बोल बोलने वाले को कम्युनिस्ट पार्टी के खुफिया एजेंट और हिटलर की गेस्टापो से भी ज्यादा खूंखार पब्लिक सिक्योरिटी ब्यूरो (पीएसबी) के सिपाही तुरंत दबोच लेते थे। करोड़ों खुफिया टीवी कैमरों और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस लाखों पुलिस चौकियों का ऐसा दबदबा है कि प्रदर्शन की गुप्त योजना पर चुपचाप अपने घरों से निकले लोगों के तय स्थान पर पहुंचने से पहले ही पीएसबी एजेंट वहां पहले से खड़े मिलते थे। इसी कारण भूख और बुखार में तड़पते बच्चे को लेकर कोविड बैरियर पार करने की भी लोगों में हिम्मत नहीं थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से चीन के दर्जनों शहरों के आम लोग और छात्र सड़कों पर उतर आए हैं और राष्ट्रपति शी चिनफिंग तथा कम्युनिस्ट सरकार से इस्तीफे की मांग कर रहे हैं।
इंटरनेट, टीवी, मोबाइल और अखबारों पर सरकार के कड़े नियंत्रण के बावजूद चीन से आ रहीं खबरों से पता चल रहा है कि भारी संख्या में सरकार विरोधी प्रदर्शन जारी हैं और लगातार फैल रहे हैं। चीन के सभी हिस्सों में सैकड़ों स्थानों में प्रदर्शन हो रहे हैं। इस तरह के बड़े प्रदर्शन पिछली बार जून 1989 में देखने को मिले थे जब चीनी विश्वविद्यालयों के लाखों युवा कम्युनिस्ट तानाशाही खत्म करने की मांग कर रहे थे। लगभग 400 शहरों तक फैले उस आंदोलन को कुचलने के लिए तब प्रधानमंत्री ली पेंग और सर्वोच्च नेता देंग शियाओपिंग ने तीन लाख से ज्यादा सैनिकों को सड़कों पर उतार दिया था। सेना ने युवा प्रदर्शनकारियों पर टैंक चढ़ाकर और मशीनगनों के बल पर आंदोलन को कुचल दिया था। उस कार्रवाई में हजारों युवा मारे गए थे, लेकिन किसी सरकार ने न केवल मृतकों की संख्या जाहिर नहीं होने दी, बल्कि चीन के इतिहास लेखन में उस घटना के जिक्र पर भी पाबंदी लगा दी।
ऐसा नहीं कि 1989 के बाद चीन में कभी प्रदर्शन नहीं हुए। फैक्ट्रियों, बांधों और नए शहरों के विकास के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण, उद्योगों और खनन के कारण होने वाले भयंकर प्रदूषण तथा पानी की कमी और रोजगार जैसे सवालों पर हजारों बार प्रदर्शन हो चुके हैं, लेकिन वे स्थानीय स्तर तक सीमित थे और उन्हें पुलिस के दमन से दबा दिया जाता रहा। तिब्बत, शिंजियांग, दक्षिणी मंगोलिया जैसे उपनिवेशों तथा बाद में हांगकांग में लोकतंत्र की मांग को लेकर चलने वाले आंदोलनों को तो सैनिक और पुलिस के दम पर कभी पनपने ही नहीं दिया गया, लेकिन इस बार कोविड के कारण स्थिति बहुत बदली हुई है। कोविड के फैलाव ने चीनी वैक्सीन पर चीन सरकार के झूठे दावों की भी पोल खोल दी है।
पिछले तीन महीने से शी सरकार ने ‘जीरो-कोविड नीति’ की जिद में आकर सैकड़ों शहरों और हजारों फैक्ट्रियों में नागरिकों को और मजदूरों को घरों और कारखानों के भीतर बंद रहने पर मजबूर कर दिया है। अब समझ में आ रहा है कि अक्टूबर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में खुद को चीन का स्थायी नेता बनवा लेने के चक्कर में शी ने ‘जीरो-कोविड नीति’ का इस्तेमाल विरोधियों को चुपचाप जेलों में डालने और नागरिकों को किसी विरोध से रोकने के लिए किया था। वर्तमान आंदोलन शी चिनफिंग के खिलाफ चीनी जनता के गुस्से की अभिव्यक्ति है।
भोजन, चिकित्सा, रोजगार, बिजली की किल्लत के खिलाफ लोगों के गुस्से को पहली अभिव्यक्ति गत 19 सितंबर को तब मिली, जब घरों से जबरन पकड़कर एक कोविड केंद्र ले जा रहे लोगों की एक बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई और 27 लोग मारे गए। चीनी जनता के आक्रोश ने 24 नवंबर को तब राष्ट्रव्यापी रूप धारण कर लिया जब उरुम्ची शहर में कोविड पाबंदी के कारण तालाबंद किए गए एक बहुमंजिला भवन में आग लग गई। पुलिस और सेना ने आग बुझाने वाली गाड़ियों को तीन घंटे तक रोके रखा, जिससे दर्जनों लोग घरों में ही भस्म हो गए। आग से घबराकर भवन की सातवीं-आठवीं मंजिल से गिरते लोगों के वीडियो जब चीनी इंटरनेट मीडिया पर घूमने लगे तो जनता का गुस्सा बम की तरह फूट पड़ा। रही-सही कसर कतर में चल वहे विश्व फुटबाल कप ने पूरी कर दी, जब लोगों ने वहां हजारों दर्शकों को खुली भीड़ में बिना मास्क पहने फुटबाल का आनंद लेते देखा।
चीन पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि शी चिनफिंग गुट के सताए हुए लाखों कम्युनिस्ट काडर और चीनी सेना के अधिकारी इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। इससे राष्ट्रपति शी की गद्दी को खतरा पैदा हो गया है। पूर्व राष्ट्रपति जियांग जेमिन की मृत्यु ने आंदोलनकारियों के लिए सड़कों पर उतरने का रास्ता और आसान कर दिया है। जिस चीन में पिछले सात दशकों से एक अकेले व्यक्ति को भी ऊंची आवाज में नारा लगाने पर पाबंदी रही है, वहां अब शोक के नाम पर विद्यार्थी मोमबत्तियां, फूल और सादे कागज लेकर उतर आए हैं।
चीन के सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों को बंद करने और विद्यार्थियों को घर जाने का आदेश दे दिया गया है, ताकि प्रदर्शनों से उन्हें दूर किया जा सके। शी सरकार ने प्रदर्शनकारियों के गुस्से को शांत करने के लिए कई शहरों में कोविड प्रतिबंधों में ढील की घोषणा की है। यह आंदोलनकारियों के लिए जीत का संकेत है। अब देखना यह है कि चीन का आजीवन शासक बनने का सपना पाले बैठे शी चिनफिंग नई रियायतों से युवा आंदोलकारियों को रिझाते हैं या अपने पुराने आका देंग और ली पेंग का रास्ता अपनाकर फौजी टैंक उतारते हैं। शी का फैसला जो भी हो, इस बार सड़कों पर उतरी युवा पीढ़ी 1989 वाले आदर्शवाद से प्रभावित पीढ़ी नहीं है। यह वह नई पीढ़ी है जिसे देंग ने ‘‘अमीर होना एक उपलब्धि है’’ का सबक देकर आर्थिक और सामाजिक रूप से महत्वाकांक्षी बना दिया है और जिसके हाथ में मोबाइल जैसा हथियार है, जिसके बूते वह लाखों-करोड़ों लोगों की आवाज को सामूहिक दहाड़ में बदलने का दम रखती है।
(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन और वरिष्ठ पत्रकार हैं)