दिल्ली के बहुचर्चित शराब नीति घोटाले और उससे जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में भारतीय राष्ट्र समिति की नेता के. कविता को सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह यह प्रश्न करते हुए जमानत दे दी कि आखिर उनके विरुद्ध प्रमाण कहां हैं, उससे सीबीआई और ईडी का कठघरे में खड़ा दिखना स्वाभाविक है। इसके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं।

यह ठीक है कि उसने सीबीआई और ईडी से यह पूछा कि आखिर प्रमाण कहां हैं, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसने के. कविता को जमानत देते हुए उन पर कुछ शर्तें लगाईं और उन्हें निर्देशित किया कि जमानत के दौरान वह गवाहों को प्रभावित करने और साक्ष्यों से छेड़छाड़ की चेष्टा नहीं करेंगी।

इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत तो दी है, लेकिन क्लीनचिट नहीं। समस्या यह है कि इस तरह के मामलों में न्यायाधीशों की टिप्पणियां कुछ और ही ध्वनित करती हैं। कई बार ऐसी टिप्पणियां फैसलों का हिस्सा भी नहीं होतीं। आखिर न्यायाधीश जो कहते हैं, वह अपने फैसलों में लिखते क्यों नहीं?

ध्यान रहे कि कई बार उनकी मौखिक टिप्पणियों को आधार बनाकर जमानत पाने वाले नेता और उनके समर्थक यह माहौल बनाने लगते हैं कि उन पर लगाए गए आरोप निराधार हैं और जिस घपले-घोटाले में उन्हें गिरफ्तार किया गया, वह तो हुआ ही नहीं। इस बार भी ऐसा ही किया जा रहा है।

के. कविता और उनके पहले मनीष सिसोदिया को जमानत मिलने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस मामले में अंतिम फैसला आ चुका है। नेताओं के भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में अंतिम फैसला यथाशीघ्र आए, इसके लिए जांच एजेंसियों को भी सक्रियता दिखानी होगी और अदालतों को भी।

आवश्यक केवल यही नहीं कि सीबीआई और ईडी यह स्पष्ट करें कि आखिर उन्हें बार-बार ऐसे सवालों से क्यों दो-चार होना पड़ता है कि प्रमाण कहां हैं? इसके साथ ही इस प्रश्न का भी उत्तर मिलना आवश्यक है कि ट्रायल शुरू होने में अनावश्यक देरी क्यों होती है?

ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते समय ट्रायल में देरी का जो उल्लेख किया था, वही के. कविता मामले में भी किया। पता नहीं के. कविता के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत मिलती है या नहीं, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार है और उस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है।

इस संदर्भ में इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि प्रधानमंत्री राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कमर कसे हुए हैं और हाल में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से उन्होंने ऐसा कहा भी। राजनीतिक भ्रष्टाचार से तब तक प्रभावी ढंग से नहीं निपटा जा सकता, जब तक जांच एजेंसियां और अदालतें अपना काम तत्परता से नहीं करतीं।