गुजरात दंगों के मामले में सनसनीखेज और नितांत झूठे दावे करके अदालतों को गुमराह करने वालों के खिलाफ कार्रवाई है आवश्यक
ऐसे लोगों पर लगाम नहीं लगी तो वह सिलसिला थमने वाला नहीं जिसके तहत मनगढ़ंत आरोपों की आड़ लेकर कभी आम जनता को बरगलाया जाता है और कभी अदालतों का बार-बार दरवाजा खटखटाया जाता है। ऐसा गुजरात दंगों के साथ अन्य अनेक मामलों में भी किया गया।
गुजरात दंगों के मामले में सनसनीखेज और नितांत झूठे दावे करके अदालतों को गुमराह करने वालों के खिलाफ कार्रवाई केवल इसलिए आवश्यक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा, बल्कि इसलिए भी है, क्योंकि इस तरह की हरकतों ने एक उद्योग का रूप ले लिया है। इसमें खुद को सेक्युलर-लिबरल बताने वालों के साथ वे भी हैं, जिन्हें अर्बन नक्सल कहा जाता है। इनमें कई गैर सरकारी संगठन चलाते हैं और वे जिस उद्देश्य से देश-विदेश से चंदा हासिल करते हैं, उसके ठीक विपरीत काम करते हैं। ऐसे तत्व कई बार न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर व्यक्ति विशेष या संस्था विशेष की छवि नष्ट करने का काम करते हैं। गुजरात दंगों के मामले में ठीक यही किया गया।
गत दिवस इन दंगों के मामले में विशेष जांच दल की रिपोर्ट को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह जो टिप्पणी की कि जहां कथित सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने याचिकाकर्ता जाकिया जाफरी का भावनात्मक शोषण किया, वहीं पुलिस अधिकारियों-संजीव भट्ट और आरबी श्रीकुमार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए झूठे दावे किए, उसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। यह इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके लोकतंत्र को ही कमजोर करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
यदि ऐसे लोगों पर लगाम नहीं लगी तो वह सिलसिला थमने वाला नहीं, जिसके तहत मनगढ़ंत आरोपों की आड़ लेकर कभी आम जनता को बरगलाया जाता है और कभी अदालतों का बार-बार दरवाजा खटखटाया जाता है। ऐसा गुजरात दंगों के साथ अन्य अनेक मामलों में भी किया गया।
कुछ मामले तो ऐसे हैं, जिनमें आतंकियों को निर्दोष सिद्ध करने तक की कोशिश की गई। आखिर कौन भूल सकता है कि किस तरह लश्कर की आतंकी इशरत जहां को निर्दोष युवती बताने और मुंबई बम धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन को फांसी की सजा से बचाने की कोशिश की गई? इसी तरह का एक शरारती अभियान वह भी था, जिसके तहत जस्टिस लोया की स्वाभाविक मौत को हत्या बताने का कुत्सित प्रयास किया गया।
यह किसी से छिपा नहीं कि इस तरह के प्रयासों में मीडिया के एक हिस्से की भी भागीदारी रहती है। यदि गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम करने वाले विशेष जांच दल की रिपोर्ट को झूठा साबित करने का अभियान 16 वर्ष तक जारी रहा तो केवल इसीलिए कि उसके पीछे पूरी एक टोली थी, जो किसी गिरोह की तरह काम कर रही थी। यह समय की मांग है कि छल और झूठ के इस धंधे में शामिल तत्वों को बेनकाब करने के साथ दंड का भी भागीदार बनाया जाए।