लोकसभा के चुनाव नतीजों ने एक्जिट पोल के निष्कर्षों के साथ अन्य अनेक अनुमानों को भी गलत साबित किया। परिणाम कई दृष्टि से अप्रत्याशित हैं, लेकिन लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। जनता के मन में क्या है, इसकी थाह लेना कठिन होता है। नतीजों ने बताया कि जो भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ चार सौ पार का नारा लगा रही थी, उसके लिए तीन सौ पार जाना भी चुनौती बन गया।

स्वयं भाजपा 272 के आंकड़े से पीछे रह गई। यह उसके लिए एक झटका है। उसे यह झटका लगा उसके अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में भी। इसके साथ ही महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा और बंगाल में भी वह अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर सकी। उसके लिए यह तो अच्छा रहा कि ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश आदि में उसने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया और गुजरात एवं मध्य प्रदेश में चमत्कार सा कर दिखाया, अन्यथा वह और भी पीछे रह जाती।

चुनाव नतीजों से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने आशा से कहीं अधिक बेहतर प्रदर्शन किया। जहां कांग्रेस ने अपनी सीटें अच्छी-खासी बढ़ा लीं, वहीं समाजवादी पार्टी, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस ने भी अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन कर भाजपा को चौंकाया। चुनाव नतीजों ने कांग्रेस और उसके साथ खड़े दलों को राजनीतिक बल देने के साथ उनके मनोबल को भी बढ़ाने का काम किया है।

कांग्रेस वापसी की राह पर आती दिख रही है और इसका श्रेय जाता है उसकी ओर से बनाए गए नैरेटिव को। निःसंदेह भाजपा ने भी अपना नैरेटिव स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन वह पूरे देश में उतना प्रभावी नहीं रहा। वह अपने पक्ष में वैसा कोई राष्ट्रीय विमर्श खड़ा नहीं कर सकी, जैसा पिछले आम चुनाव में बालाकोट हमले के कारण खड़ा करने में सफल रही थी।

जहां भाजपा ने रेवड़ी संस्कृति से दूर रहना तय किया, वहीं विपक्ष ने इस संस्कृति को जोर-शोर से अपनाया और भुनाया भी। इसके अलावा कांग्रेस और सहयोगी दलों ने भाजपा की ओर से आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने की जो हवा बनाई, वह भी कुछ राज्यों और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में असर करती दिखी। भाजपा को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में ही लगा।

इसका कारण कमजोर प्रत्याशी और नेताओं की आपसी खींचतान भी दिखती है और जाति-पंथ की राजनीति भी। केंद्रीय मुद्दे के अभाव में स्थानीय मुद्दे भी कहीं अधिक असरकारी हो गए और इसी कारण अलग-अलग राज्यों में हार-जीत के कारण भी भिन्न-भिन्न दिख रहे हैं। विपक्षी दल तो जनता को लोकलुभावन वादों से लुभाने में सफल रहे, लेकिन भाजपा विकसित भारत और देश को तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने जैसे वादों से जनता के एक वर्ग और विशेष रूप से निर्धन-वंचित तबके को उतना आकर्षित नहीं कर सकी। इस तबके को इन वादों में अपने लिए कुछ खास न दिखाई दिया हो तो हैरानी नहीं।

भाजपा के लिए यह संतोष की बात है कि ओडिशा की बागडोर उसके हाथ आ गई और आंध्र में उसके सहयोगी चंद्रबाबू नायडू सरकार बनाने जा रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद वह लोकसभा में संख्याबल के लिहाज से कमजोर हुई है। अब केंद्रीय स्तर पर गठबंधन राजनीति और वह भी मजबूरियों वाली राजनीति फिर से एक आवश्यकता बन गई है।

बहुमत के साथ सहयोगी दलों संग सरकार चलाना अलग बात है और उन पर निर्भर होकर शासन करना अलग बात। इस बार प्रधानमंत्री मोदी के सामने गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी होगी। इसके चलते निर्णायक प्रधानमंत्री की उनकी छवि पर असर पड़ सकता है और इसका प्रभाव शासन संचालन में दिख सकता है।

अब भाजपा को अपनी प्राथमिकताओं से भी समझौता करना पड़ सकता है, क्योंकि उसे अपने एजेंडे को लागू करने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर रहना होगा। गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। उनका लाभ सहयोगी दल ही नहीं, बल्कि विपक्षी दल भी उठाते हैं। विपक्ष की ताकत बढ़ जाने से से भावी सरकार को उसके साथ कहीं अधिक सहयोग और समन्वय का परिचय देना होगा। यह परिचय देने के लिए विपक्ष को भी तैयार रहना चाहिए।