चुनावों के समय कब कोई नया मुद्दा उठ जाए या किसी पुराने मुद्दे को नए सिरे धार दे दी जाए, इसका ठिकाना नहीं होता। कच्चातिवु का मुद्दा ऐसा ही है। भाजपा इस मुद्दे पर इसीलिए आक्रामक है, क्योंकि तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक जब-तब यह मांग करती रही है कि एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपे गए इस द्वीप को वापस लिया जाए।

वह इस मांग को लेकर मोदी सरकार पर दबाव भी बनाती रही है, लेकिन सूचना अधिकार कानून से मिली इस जानकारी ने उसे निरुत्तर सा कर दिया है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब इस द्वीप को श्रीलंका को देने का समझौता किया था तो उस समय तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक भी इसके पक्ष में थी। भाजपा ने इस तथ्य को सामने रखकर जो सवाल उठाए हैं, उनका जवाब न तो द्रुमुक को देते बन रहा और न ही कांग्रेस को।

जहां द्रमुक के पास केवल यही कहने को है कि आखिर भाजपा को अब यह मसला क्यों याद आ रहा है, वहीं कांग्रेस कच्चातिवु समझौते पर कुछ कहने के स्थान पर यह आरोप उछाल रही है कि मोदी सरकार ने भी तो बांग्लादेश को कुछ इलाके दिए थे। वह यह भूल रही है कि बांग्लादेश को कुछ इलाके दिए गए थे तो कुछ उससे लिए भी गए थे। कच्चातिवु को श्रीलंका को सौंपने से तो भारत घाटे में ही रहा।

यह ठीक है कि कच्चातिवु को श्रीलंका को सौंपने के दशकों पुराने समझौते को आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता, लेकिन इसकी तह तक तो जाना ही चाहिए कि आखिर इस द्वीप को श्रीलंका को देने के बदले भारत को हासिल क्या हुआ? इस समझौते के चलते तमिलनाडु के मछुआरों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि पहले उन्हें इस द्वीप तक जाने और वहां अपने जाल सुखाने की सुविधा थी।

समझौते के बाद भारतीय मछुआरों से न केवल यह अधिकार छिन गया, बल्कि श्रीलंका की नौसेना को उन्हें तंग करने और गिरफ्तार करने का अधिकार मिल गया। श्रीलंका की नौसेना आए दिन तमिलनाडु के मछुआरों की गिरफ्तार करने के साथ उनकी नौकाएं भी जब्त कर लेती है। साफ है कि इन मछुआरों के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा भी है और उनकी रोजी-रोटी से जुड़ा मसला भी।

कांग्रेस जिस तरह कच्चातिवु समझौते से भारत को होने वाले लाभ गिनाने की स्थिति में नहीं, उसी तरह उसके पास इस सवाल का भी कोई ठोस जवाब नहीं कि जम्मू-कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तानी सेना के कब्जे में बने रहने के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने युद्धविराम करना क्यों तय किया? यह प्रश्न इसलिए विचलित करता है, क्योंकि भारतीय सेना इस इलाके में घुस आई पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने की स्थिति में थी और यदि उसे कुछ दिन का समय और मिल जाता तो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा होता और कश्मीर समस्या सिरदर्द नहीं बनी होती।