नोटबंदी की सुनवाई, क्या अब याचिकाओं की संख्या के आधार पर तय होगा कि कोई मामला सुना जाएगा या नहीं?
नोटबंदी को लागू हुए छह साल हो चुके हैं। यह सही है कि नोटबंदी के फैसले के विरुद्ध 50 से अधिक याचिकाएं दायर की गई थीं लेकिन क्या अब याचिकाओं की संख्या के आधार पर यह तय होगा कि कोई मामला सुना जाएगा या नहीं?
सुप्रीम कोर्ट की ओर से नोटबंदी की सुनवाई करना समय की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं। विडंबना यह है कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट को भी इसका आभास है, लेकिन शायद वह यह संदेश देना चाहता है कि वह किसी भी मामले को सुनने का अधिकार रखता है। ऐसा कोई संदेश देने की कहीं कोई आवश्यकता इसलिए नहीं, क्योंकि हर कोई इससे अवगत है कि वह किसी भी प्रकरण की सुनवाई कर सकता है और यदि किसी मामले में कोई याचिका न दायर हो तो वह उसका स्वतः संज्ञान ले सकता है।
नोटबंदी को लागू हुए छह साल हो चुके हैं। इतने समय बाद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की ओर से उसकी सुनवाई करना एक तरह से गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है। जैसे गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होता, वैसे ही केंद्र सरकार के इस फैसले की सुनवाई करने से देश को कुछ भी मिलने वाला नहीं है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट जो फैसला देगा, उसका केवल अकादमिक महत्व होगा।
एक ऐसे समय जब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष राष्ट्रीय महत्व के न जाने कितने मामले विचाराधीन हैं और जिन्हें लेकर यह सवाल भी उठ रहे हैं कि आखिर उनकी सुनवाई में देरी क्यों हो रही है, तब एक ऐसे मामले की सुनवाई पांच सदस्यीय पीठ की ओर से किए जाने का औचित्य समझना कठिन है, जिससे किसी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। शायद इसी कारण इस पीठ के एक सदस्य ने यह कहा था कि जो कुछ हो चुका, वह वापस नहीं हो सकता।
यह सही है कि नोटबंदी के फैसले के विरुद्ध 50 से अधिक याचिकाएं दायर की गई थीं, लेकिन क्या अब याचिकाओं की संख्या के आधार पर यह तय होगा कि कोई मामला सुना जाएगा या नहीं? इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ मामलों में किस तरह राजनीतिक कारणों से याचिकाएं दायर की जाती हैं। ऐसा नहीं है कि नोटबंदी के समय यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष न पहुंचा हो, लेकिन कोई नहीं जानता कि तब उसे क्यों नहीं सुना गया?
इस मामले की सुनवाई के समय सरकार सुप्रीम कोर्ट के समझ कुछ भी दलीलें दे, इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि नोटबंदी को लेकर जो उद्देश्य गिनाए गए थे, उन सबकी पूर्ति मुश्किल से हुई। यह सही है कि नोटबंदी के नतीजे में डिजिटल भुगतान का चलन बढ़ गया है और यह एक उपलब्धि है, लेकिन नकदी के उपयोग में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। इसी तरह भ्रष्टाचार पर भी एक हद तक ही अंकुश लगा है और उससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। स्पष्ट है कि सरकार को यह देखना होगा कि नोटबंदी के मकसद पूरे करने के लिए जो कुछ करने की जरूरत है, उसकी पूर्ति कैसे की जाए?