विदेशी हाथ, भारत को उपदेश देने से बाज आएं अमेरिका और जर्मनी
राहुल की सफाई है कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था कि अमेरिका और यूरोप भारत में लोकतंत्र को लेकर हस्तक्षेप करें। यदि वह वास्तव में ऐसा ही चाह रहे थे तो फिर दिग्विजय सिंह जर्मन विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता के बयान पर इतने उत्साहित क्यों हो गए?
मानहानि के मामले में दोषी करार दिए गए राहुल गांधी की संसद सदस्यता खारिज होने पर जर्मनी के विदेश मंत्रालय की एक प्रवक्ता की टिप्पणी पर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने वहां के विदेश मंत्रालय को धन्यवाद देकर उन आरोपों पर मुहर लगाने का ही काम किया, जिनसे राहुल दो-चार हैं। राहुल पर ये आरोप तभी से लग रहे हैं, जबसे उन्होंने लंदन में यह बयान दिया कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है और फिर भी अमेरिका एवं यूरोप बेपरवाह हैं।
राहुल की सफाई है कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था कि अमेरिका और यूरोप भारत में लोकतंत्र को लेकर हस्तक्षेप करें। यदि वह वास्तव में ऐसा ही चाह रहे थे तो फिर दिग्विजय सिंह जर्मन विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता के बयान पर इतने उत्साहित क्यों हो गए? आखिर उन्होंने उसके नासमझी भरे बयान पर उसे हद में रहने को क्यों नहीं कहा? यदि वह ऐसा नहीं कर सकते थे तो कम से कम चुप रहना चाहिए था। अभी तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेता यह चाह रहे हैं कि भारत में लोकतंत्र की कथित खराब स्थिति को लेकर बाहर के देश बोलें।
इतने लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस को इसका आभास होना चाहिए कि यदि बाहर के देशों को भारत के आंतरिक मामलों में बोलने के लिए प्रेरित किया जाएगा तो इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि जर्मन विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता की तरह अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी यह कह चुके हैं कि अमेरिका राहुल के मामले में नजर बनाए हुए है।
भारत सरकार को अमेरिका और फिर जर्मनी की ओर से राहुल गांधी के मामले में टीका-टिप्पणी को हल्के में नहीं लेना चाहिए। उसे उचित मंच पर अपनी आपत्ति दर्ज करानी चाहिए और इन देशों को अपनी हद में रहने की हिदायत देनी चाहिए। सरकार को यह भी देखना होगा कि राहुल के संदर्भ में अमेरिका और जर्मनी की अवांछित टिप्पणी के पीछे उनका इरादा उस पर दबाव बनाने का तो नहीं? इसकी आशंका इसलिए है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि अमेरिका और यूरोपीय देशों को रूस-यूक्रेन मामले में भारत का रवैया रास नहीं आ रहा है। वे यह चाहते हैं कि भारत रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर वही दृष्टिकोण रखे, जो उन्होंने अपना रखा है।
अमेरिका और जर्मनी की टिप्पणियां इसलिए अस्वीकार्य हैं, क्योंकि राहुल कोई पहले जनप्रतिनिधि नहीं, जिन्हें किसी आपराधिक मामले में दोषी पाए जाने पर अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ा हो। उनके पहले दो दर्जन विधायकों और सांसदों की सदस्यता जा चुकी है। स्पष्ट है कि अमेरिका और जर्मनी को या तो ऐसे मामलों का ज्ञान नहीं या फिर वे जानबूझकर भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करना चाह रहे हैं। जो भी हो, उन्हें भारत को उपदेश देने से बाज आना चाहिए।