सेंगोल का इतिहास, कांग्रेस का रवैया प्रकट कर रहा कि उसे अपनी ही विरासत पर गर्व नहीं
निःसंदेह यह भी एक रहस्य है कि सेंगोल को राजदंड के स्थान पर चलने की छड़ी यानी बेंत के रूप में क्यों परिभाषित किया गया? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि नेहरू जी सेक्युलरिज्म की जिस अवधारणा से प्रेरित थे।
कांग्रेस का यह दावा चकित करने के साथ ही कई सवाल खड़े करना वाला भी है कि स्वतंत्रता के समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जो सेंगोल यानी राजदंड प्रदान किया गया था, उसका सत्ता हस्तांतरण से कोई संबंध नहीं। यदि यह सच है तो फिर नेहरू जी ने उसे स्वीकार क्यों किया था? बीते दिनों सेंगोल के बारे में जानकारी देते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने जो फोटो जारी किए थे, वे तो यही बता रहे कि उसे समारोहपूर्वक नेहरू जी को सौंपा गया था। कांग्रेस बताए कि आखिर यह समारोह क्यों हुआ था और उसका क्या अभिप्राय था?
ध्यान रहे कि यह समारोह उसी समय हुआ, जब 15 अगस्त को आधी रात सत्ता हस्तांतरण हो रहा था। कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए कि तमिलनाडु में निर्मित यह सेंगोल जवाहरलाल नेहरू और फिर उनके पास से इलाहाबाद संग्रहालय तक पहुंचा कैसे? समझना कठिन है कि कांग्रेस सत्ता हस्तांतरण के एक महत्वपूर्ण प्रसंग की अनदेखी क्यों करना चाह रही है? कहीं इसलिए तो नहीं कि नेहरू जी ने सेंगोल को वह सम्मान नहीं दिया, जिसका वह हकदार था? वह उनकी निजी संपत्ति जैसा बन गया और फिर उसे इलाहाबाद संग्रहालय भेज दिया गया। वहां उसे सोने की छड़ी के रूप में प्रदर्शित किया गया।
निःसंदेह यह भी एक रहस्य है कि सेंगोल को राजदंड के स्थान पर चलने की छड़ी यानी बेंत के रूप में क्यों परिभाषित किया गया? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि नेहरू जी सेक्युलरिज्म की जिस अवधारणा से प्रेरित थे, उसमें उन्हें सत्ता हस्तांतरण की यह प्राचीन परंपरा रास न आई हो। वस्तुस्थिति जो भी हो, कांग्रेस सेंगोल के इतिहास को जिस तरह वर्णित कर रही है, उससे यही लगता है कि उसे यह अच्छा नहीं लग रहा कि इस ऐतिहासिक राजदंड को इलाहाबाद म्यूजियम से लाकर संसद के नए भवन में स्पीकर के आसन के पास स्थापित किया जा रहा है। समस्या केवल यह नहीं है कि सेंगोल के इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया, बल्कि यह भी है कि उसे जनता से छिपाया भी गया।
कोई नहीं जानता कि यह काम क्यों किया गया और कांग्रेस नए सिरे से उसमें भागीदार क्यों बन रही है? कांग्रेस अपने रवैये से यही प्रकट कर रही है कि उसे अपनी ही विरासत पर गर्व नहीं। अच्छा होता कि वह सेंगोल के मामले में विचित्र तर्क देने के स्थान पर मौन रहती, लेकिन शायद उसे अपनी विरासत के साथ देश की संस्कृति और परंपराओं की उपेक्षा करने की आदत सी पड़ गई है। उसकी इन्हीं आदतों के कारण यह कहा जाता है कि आज की कांग्रेस वह नहीं, जिसने देश को आजादी दिलाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी। यह अच्छा नहीं हुआ कि कांग्रेस ने पहले संसद के नए भवन के उद्घाटन के बहिष्कार का फैसला किया और फिर सेंगोल के इतिहास की अलग व्याख्या करने मे जुट गई।