पूजा स्थल कानून, धार्मिक स्थलों से जुड़े विवादों के हल के लिए कोई खिड़की तो खुली होनी ही चाहिए
विध्वंस के प्रतीक राष्ट्रीय चेतना को स्वीकार नहीं हो सकते। लोगों की आस्था को सम्मान देना न्यायप्रिय राष्ट्र का दायित्व होना चाहिए। अपनी अस्मिता को लेकर संवेदनशील और जागृत राष्ट्र को विवादों का समाधान करके आगे बढ़ना चाहिए न कि उन पर पर्दा डालकर।
यह अच्छा है कि ज्ञानवापी प्रकरण से पुनः चर्चा के केंद्र में आए 1991 के पूजा स्थल कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने जा रही है। अगले माह से शुरू होने वाली सुनवाई के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर केंद्र सरकार की राय जानने के लिए उसे नोटिस जारी किया है। कहना कठिन है कि केंद्र सरकार क्या तर्क प्रस्तुत करेगी, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह एक विवादास्पद कानून है। इसे अयोध्या में राम मंदिर के लिए छेड़े गए आंदोलन के समय लाया गया था। इसके तहत यह व्यवस्था दी गई थी कि 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में रहे किसी पूजास्थल को अन्य किसी के पूजास्थल में नहीं परिवर्तित किया जा सकता। यदि कोई ऐसी चेष्टा करता है तो उसे सजा हो सकती है।
एक तरह से यह कानून यही कहता है कि जिन पूजा स्थलों को नष्ट-भ्रष्ट कर उन्हें अन्य किसी मत-मजहब के पूजा स्थलों में बदल दिया गया, उनमें कोई बदलाव संभव नहीं। यह विवादों का समाधान करने वाला नहीं, बल्कि उन पर पर्दा डालने और अतीत में हुए अन्याय की अनदेखी कर उन्हें सही ठहराने वाला कानून है। विवादों का समाधान उनकी उपेक्षा करने अथवा उन्हें यथास्थिति में बनाए रखने के किसी कानून से नहीं हो सकता, क्योंकि अन्याय को विस्मृत करने की राह पर चलने का कोई औचित्य नहीं। इस राह पर चलकर कहीं नहीं पहुंचा जा सकता।
निःसंदेह किसी पूजा स्थल के स्वरूप और उसकी प्रकृति में बलपूर्वक परिवर्तन करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती, लेकिन उन पूजा स्थलों से जुड़े विवादों के हल के लिए तो कोई खिड़की खुली ही होनी चाहिए, जिनके बारे में यह स्पष्ट है कि ताकत के बल पर उनके धार्मिक स्वरूप को बदला गया। ऐसा करके देश की अस्मिता और संस्कृति का निरादर करने के साथ आस्था पर जानबूझकर चोट की गई। इसका प्रतिकार होना ही चाहिए। इससे ही आहत भारतीय सभ्यता के साथ न्याय हो सकेगा।
विध्वंस के प्रतीक राष्ट्रीय चेतना को स्वीकार नहीं हो सकते। लोगों की आस्था को सम्मान देना न्यायप्रिय राष्ट्र का दायित्व होना चाहिए। अपनी अस्मिता को लेकर संवेदनशील और जागृत राष्ट्र को विवादों का समाधान करके आगे बढ़ना चाहिए, न कि उन पर पर्दा डालकर। इससे शांति और सद्भाव को बल नहीं मिल सकता। निश्चित रूप से यह भी ठीक नहीं होगा कि पूजा स्थल से जुड़े विवाद रह-रहकर अदालतों के समक्ष पहुंचते रहें। उचित यह होगा कि ऐसा कोई तंत्र बने, जिससे इस तरह के विवादों को सुलझाया जा सके। यह कोई असंभव कार्य नहीं। अभी कुछ समय पहले ही गुजरात के पावागढ़ में एक प्राचीन मंदिर के शिखर पर बनी मजार को आपसी बातचीत के जरिये हटाकर वहां पांच सौ से अधिक वर्षों के बाद ध्वजारोहण किया गया।