लोकसभा में आम बजट पर चर्चा करते हुए नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह अपना यह पुराना आरोप नए सिरे से दोहराया कि बजट बनाने वालों में कोई एससी-एसटी और ओबीसी अधिकारी नहीं होता, उससे यदि कुछ स्पष्ट है तो यही कि वह समाज को बांटने वाली विभाजनकारी राजनीति पर अड़े हैं।

वह यह बात पहले भी कई बार कह चुके हैं और सरकार की ओर से हर बार उन्हें विस्तार से यह बताया जा चुका है कि ऐसी स्थिति क्यों है और किस तरह इसके लिए कांग्रेस की तत्कालीन सरकारें ही जिम्मेदार हैं, लेकिन वह कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं। वह जानबूझकर इस तथ्य की भी अनदेखी कर रहे हैं कि संप्रग सरकार के समय भी यही स्थिति थी।

वैसे तो उच्च स्तर की नौकरशाही में यथासंभव सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, लेकिन शासन के हर फैसले में शामिल अधिकारियों की जाति गिनना खतरनाक जातिवादी राजनीति है। राहुल गांधी एक तरह से यह कहना चाह रहे हैं कि अनारक्षित वर्गों के अधिकारी आरक्षित वर्गों के हितों की उपेक्षा करते हैं।

एक बार वह यहां तक संकेत कर चुके हैं कि उच्च जाति के शिक्षक प्रश्नपत्र बनाते हैं, इसलिए आरक्षित वर्ग के छात्र फेल हो जाते हैं। आखिर यह भड़काऊ राजनीति नहीं तो और क्या है?

राहुल गांधी के रुख-रवैये से यही लगता है कि वह अभी भी चुनावी मुद्रा में हैं। आखिर वह जो कुछ मोदी सरकार से चाह रहे हैं, उसे कांग्रेस संगठन और साथ ही अपने दल द्वारा शासित राज्य सरकारों में क्यों लागू नहीं कर रहे हैं? क्या मोदी सरकार ने उन्हें ऐसा करने से रोक रखा है?

उन्हें बताना चाहिए कि कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में बजट बनाने में आरक्षित वर्गों के कितने अधिकारियों की हिस्सेदारी होती है? वह मोदी शासन की तरह मीडिया में भी आरक्षित वर्गों के प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी कई बार उठा चुके हैं, लेकिन यह देखने को तैयार नहीं कि आखिर उनके परिवार के प्रभुत्व वाले मीडिया संस्थान में इन वर्गों के कितने लोगों की हिस्सेदारी है?

राहुल गांधी ने बजट पर सरकार को घेरने के लिए महाभारत का उल्लेख करते हुए यह भी कह डाला कि जैसे अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर लिया गया था, उसी तरह देश को भी मोदी सरकार ने घेर रखा है। उन्होंने प्रधानमंत्री समेत जिन छह लोगों को इस घेराबंदी के लिए जिम्मेदार ठहराया, उसमें अंबानी-अदाणी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और आरएसएस प्रमुख को भी शामिल कर लिया।

स्पष्ट है कि वह मनमाने और बेतुके तर्क देने में संकोच नहीं कर रहे हैं। वह अपनी ऐसी बातों से चर्चा में तो आ जाते हैं और उनके समर्थक उनकी वाह-वाही करने में भी जुट जाते हैं, लेकिन नेता प्रतिपक्ष के तौर पर वह न तो समाज को कोई सही दिशा दे पा रहे हैं और न ही सरकार को कोई सार्थक सुझाव।