नई दिल्ली, एस.के. सिंह। भारत में इस साल के पहले नौ महीने में 88% दिन ऐसे बीते जब देश में कहीं न कहीं लोगों को हीटवेव, शीतलहर, चक्रवाती तूफान, बिजली गिरने, भारी बारिश, बाढ़ या भूस्खलन जैसी एक्सट्रीम वेदर की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (CSE) के अनुसार मौसम की इस मार ने 2,755 लोगों की जान ले ली, 70 हजार से अधिक मवेशी मारे गए, 18 लाख हेक्टेयर में फसलों को नुकसान हुआ और 4.16 लाख घर नष्ट हो गए।

पड़ोसी देशों की ओर देखें तो पाकिस्तान में इस साल के मध्य में भीषण हीटवेव के बाद भारी बारिश से जो बाढ़ आई, उसने अब तक की सबसे बड़ी तबाही मचाई। करीब 1,700 लोग मारे गए, 21 लाख बेघर हो गए, देश का 9% इलाका बाढ़ में डूबने से 40 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। चीन को दो महीने से ज्यादा का अभूतपूर्व हीटवेव, भीषण सूखा और भारी बारिश का सामना करना पड़ा। वहां की सबसे लंबी यांग्सी नदी कई जगह सूख गई जिससे उसके किनारे बसे शहरों के करोड़ों लोग प्रभावित हुए। ताजे पानी की सबसे बड़ी पोयांग झील भी सूख गई। इसके विपरीत उत्तरी चीन में भारी बारिश से बाढ़ आ गई।

नेशनल सेंटर्स फॉर एनवायरमेंटल इन्फॉर्मेशन के अनुसार इस साल अमेरिका में 11 अक्टूबर तक क्लाइमेट डिजास्टर (सूखा, बाढ़, तूफान, साइक्लोन, जंगल में आग) की 15 बड़ी घटनाएं हुईं जिनमें कम से कम एक अरब डॉलर का नुकसान हुआ। यूरोपियन एनवायरमेंट एजेंसी के मुताबिक यूरोप के अनेक देशों में तापमान इस वर्ष पहली बार 40 डिग्री के ऊपर चला गया। अगस्त के अंत में दो-तिहाई यूरोप सूखे का खतरा झेल रहा था। सूखे के कारण इस साल रिकॉर्ड सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जंगलों में आग लग गई, जिसका आधा अकले स्पेन में था।

जलवायु परिवर्तन का नया (ऐब)नॉर्मल

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से होने वाले जलवायु परिवर्तन का यह नया (ऐब)नॉर्मल है। इस पृष्ठभूमि के साथ 6-18 नवंबर 2022 तक मिस्र के शर्म-अल-शेख में दुनिया के तमाम देशों की 27वीं बैठक (COP27) होने जा रही है। 1992 में ब्राजील के रियो-डि-जनेरो में संयुक्त राष्ट्र का अर्थ समिट हुआ था। तभी यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) का गठन हुआ और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमति बनी। 1994 में इस पर संधि हुई और 1995 से कॉन्फ्रेस ऑफ पार्टीज (COP) की बैठक हो रही है।

वर्ल्ड मेटेरियोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन (WMO) के अनुसार 1850-1900 के प्री-इंडस्ट्रियल दशकों के औसत की तुलना में अभी ग्लोबल तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल और 2015 के पेरिस समझौते में ग्लोबल वार्मिंग को प्री-इंडस्ट्रियल के औसत की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने पर सहमति बनी।

पिछले साल ग्लासगो में आयोजित COP26 के क्लाइमेट पैक्ट में 1.5 डिग्री के लक्ष्य को बरकरार रखा गया। लेकिन हकीकत इससे अलग है और उत्सर्जन बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति (IPCC) ने 2019 में कहा था कि ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए 2010 की तुलना में 2030 तक कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) का उत्सर्जन 43% कम करने की जरूरत है, जबकि मौजूदा हालात में यह 10.6% बढ़ेगा।

COP26 में सभी देश उत्सर्जन घटाने के नए लक्ष्य तय करने पर सहमत हुए थे, लेकिन उम्मीदें अब भी कमजोर हैं। अभी तक 193 देशों में से भारत समेत मुश्किल से दो दर्जन देशों ने उत्सर्जन घटाने की नई योजना संयुक्त राष्ट्र को सौंपी है। इस पर निराशा जताते हुए यूएन क्लाइमेट चेंज के एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी साइमन स्टिएल ने कहा, “खतरे की गंभीरता और समय की कमी को देखते हुए सरकारों के फैसले में भी तत्परता जरूरी है।” COP27 के आयोजक मिस्र ने भी बातचीत से आगे बढ़ते हुए वादों और योजनाओं पर अमल करने की बात कही है।

मदद में पीछे हटते विकसित देश

भारत के पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने भी कहा है, “यह एक्शन का COP होना चाहिए। भारत क्लाइमेट फाइनेंस, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और क्षमता बढ़ाने पर फोकस करेगा।” दरअसल, जलवायु संकट से निपटने या कहें पर्यावरण सुधारने में सबसे बड़ी किल्लत पैसे की है। 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित COP15 में विकसित देश 2020 तक हर साल विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की मदद देने पर राजी हुए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि औद्योगीकरण के बाद विकसित देश कार्बन उत्सर्जन के लिए अधिक जिम्मेदार हैं। पेरिस में COP21 में इसे 2025 तक जारी रखने पर सहमति बनी।

यह मदद मुख्य रूप से दो मदों में है- उत्सर्जन कम करने (मिटिगेशन) और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल खुद को ढालने (एडेप्टेशन) के लिए। भारत जैसे विकासशील देशों को ज्यादा जरूरत एडेप्टेशन में मदद की है, जबकि विकसित देश इसमें मदद कम कर रहे हैं। उन्होंने तो अभी तक किसी भी एक साल में 100 अरब डॉलर देने का वादा भी नहीं निभाया है, जबकि जरूरत बढ़ती जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने 3 नवंबर को जारी नई ‘एडेप्टेशन गैप रिपोर्ट 2022’ में बताया कि एडेप्टेशन के लिए 2030 तक विकासशील देशों को हर साल 160 से 340 अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी, जबकि उपलब्ध मदद बहुत कम है। 2020 में अमीर देशों ने गरीब विकासशील देशों को एडेप्टेशन फाइनेंस के तौर पर सिर्फ 29 अरब डॉलर दिए। 2050 तक एडेप्टेशन के लिए सालाना जरूरत 315 से 565 अरब डॉलर तक की होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीओपी26 में कहा था, “हम सब जानते हैं कि क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर आज तक किए गए वायदे, खोखले साबित हुए हैं। जब हम सभी क्लाइमेट एक्शन पर अपने लक्ष्य बढ़ा रहे हैं, तब क्लाइमेट फाइनेंस के लक्ष्य वही नहीं रह सकते जो पेरिस अग्रीमेंट के समय थे…। भारत की अपेक्षा है कि विकसित देश जल्द से जल्द एक लाख करोड़ डॉलर का क्लाइमेट फाइनेंस उपलब्ध कराएं…। उचित न्याय तो ये होगा कि जो देश क्लाइमेट फाइनेंस पर किए अपने वादों पर खरे नहीं उतरते, दबाव उन पर बने।”

पेरिस समझौते में मिटिगेशन और एडेप्टेशन में संतुलन की बात कही गई है। भूपेंद्र यादव ने भी कहा है, “एडेप्टेशन फाइनेंस और मिटिगेशन फाइनेंस बराबर होना चाहिए। COP26 में मिटिगेशन पर बात आगे बढ़ी, अब एडेप्टेशन पर बात होनी चाहिए।” यादव के अनुसार कलाइमेट फाइनेंस में क्या शामिल हो, भारत यह मुद्दा भी उठाएगा। अभी इसकी कोई परिभाषा नहीं है। क्या यह लोन, ग्रांट या सब्सिडी के रूप में होगा? सरकारों की तरफ से दी जाने वाली राशि इसमें आएगी या निजी क्षेत्र को भी शामिल किया जाएगा?

2025 के बाद की बात भी सोचना जरूरी

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पूर्व विशेष सचिव और UNFCCC में कई वर्षों तक भारत के प्रमुख वार्ताकार रहे रजनी रंजन रश्मि ने जागरण प्राइम से कहा कि COP27 में फाइनेंस, एडेप्टेशन और लॉस एंड डैमेज प्रमुख मुद्दे रहने के आसार हैं। लेकिन फाइनेंस सबसे ऊपर है क्योंकि इसका संबंध हर मुद्दे से है। ग्रीन इंडिया मिशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहे रश्मि अभी टेरी (TERI) के सेंटर फॉर ग्लोबल एनवायरमेंटल रिसर्च में विशिष्ट फेलो हैं।

रश्मि कहते हैं, “पिछले साल विकसित देशों ने स्वीकार किया कि वे 100 अरब डॉलर के वादे को पूरा नहीं कर पाए हैं, उन्होंने 2025 तक पूरी कोशिश करने की भी बात कही है। लेकिन हमें 2025 के बाद का भी सोचना पड़ेगा। 2025 के बाद फाइनेंसिंग का स्वरूप इस 100 अरब डॉलर से बिल्कुल अलग होगा।”

रश्मि के अनुसार जो ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF) बना वह बहुत ही ब्यूरोक्रेटिक तरीके से काम करता है। उसके पास पैसे आए भी नहीं। बात अलग-अलग स्रोतों से पैसे देने की हुई थी। उसी को आधार बनाकर ज्यादातर विकसित देशों ने जीसीएफ को पैसा नहीं दिया। वे वर्ल्ड बैंक, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय माध्यमों से पैसे देते रहे, वह भी ज्यादातर निजी क्षेत्र के साथ मिलकर। वे कहते हैं, “जीसीएफ का मॉडल चला नहीं। इसलिए 2025 के बाद का मॉडल इससे अलग होना चाहिए। मौजूदा व्यवस्था में कोई पारदर्शिता नहीं है।”

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट- इंडिया की क्लाइमेट प्रोग्राम डायरेक्टर उल्का केलकर के अनुसार, “जलवायु परिवर्तन से हीटवेव, बाढ़, तूफान की संख्या और इनका आकार बढ़ा है। इनसे बचाव की तैयारी (एडेप्टेशन) के लिए अंतरराष्ट्रीय फाइनेंस की जरूरत है। 2021 में विकसित देशों ने 83 अरब डॉलर की राशि दी, लेकिन उसका सिर्फ 20% एडेप्टेशन के लिए था। बाकी 80% में भी ज्यादा राशि निजी क्षेत्र के बिजनेस के रूप में आई, वह सरकार की तरफ से मिलने वाली ग्रांट नहीं थी। जलवायु संकट से जो लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं वे इसकी कीमत नहीं चुका सकते। इसलिए एडेप्टेशन का हिस्सा दो सालों में 40% होना चाहिए।”

भारत के लिए विकल्प

एक तो संकट को देखते हुए 100 अरब डॉलर की राशि वैसे ही बहुत कम है, दूसरे यह सभी विकासशील देशों में बंटती है। रश्मि के अनुसार, “जीसीएफ को सिर्फ 12 अरब डॉलर मिले हैं। इस राशि से जो 116 प्रोजेक्ट दुनिया में शुरू हुए हैं उनमें सर्फ छह भारत में हैं, जिनकी लागत तीन से चार अरब डॉलर है। भारत के विशाल आकार को देखते हुए यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।” रश्मि के अनुसार फंड किस माध्यम से मिले, यह जरूरी बात नहीं है। जरूरी यह है कि विकसित देश अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें और नियम का पालन करें। नियम यह है कि क्लाइमेट के लिए जो पैसा आएगा वह अतिरिक्त राशि होगी, वह विकास के लिए दिए जाने वाले दूसरे फंड का हिस्सा नहीं होगी। उसकी पारदर्शी एकाउंटिंग होनी चाहिए।

यह स्पष्ट है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय मदद की जरूरत है लेकिन हम सिर्फ विदेशी ग्रांट के भरोसे नहीं रह सकते। रश्मि का आकलन है कि बदलाव के लिए 2030 तक भारत को सिर्फ पावर सेक्टर में 300 अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी। सभी सेक्टर को मिला लें तो जरूरत 1.5 लाख करोड़ डॉलर की होगी। इतना पैसा किसी भी सरकार के बजट से नहीं आ सकता, इसलिए वे कहते हैं, “भारत को फंड जुटाने के लिए घरेलू और अंतरराष्ट्रीय फाइनेंशियल सिस्टम का उपयोग करना होगा। यह फंड रियायती हो।”

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर अप्लायड सिस्टम्स एनालिसिस में एनर्जी और एनवायरमेंट प्रोग्राम के सीनियर रिसर्च स्कॉलर पल्लव पुरोहित के अनुसार, क्लाइमेट पॉलिसी इनीशिएटिव (CPI) ने हाल ही भारत के ग्रीन इन्वेस्टमेंट पर रिपोर्ट जारी की। इसके मुताबिक 2019-20 में ग्रीन फाइनेंस 44 अरब डॉलर था, जो भारत की जरूरत का एक चौथाई है। पेरिस समझौते के मुताबिक एनडीसी को हासिल करने के लिए भारत को 2015 से 2030 तक 2.5 लाख करोड़ डॉलर की आवश्यकता है, यानी हर साल 170 अरब डॉलर।

भारत ने 2021 में पंचामृत लक्ष्य घोषित किए थे। इसमें 500 गीगावाट रिन्युएबल बिजली का लक्ष्य भी है। तब भारत की 50% बिजली जरूरत रिन्युएबल से ही पूरी होगी। ग्रीन इन्वेस्टमेंट वैसे तो नाकाफी है, लेकिन 2017-18 से 2019-20 के दौरान फाइनेंस 150% बढ़ा है। सार्वजनिक क्षेत्र में ग्रीन फाइनेंस में 179% और निजी क्षेत्र में 130% वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों से मिलने वाली राशि का हिस्सा 2018-19 में 13% था जो 2018-19 में 17% हो गया, लेकिन अभी यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक लाख करोड़ डॉलर की मांग से बहुत कम है।

उल्का केलकर कहती हैं, विकसित देशों से फंडिंग में असमंजस खत्म होना चाहिए। भारत को अपने स्तर पर भी फंडिंग की व्यवस्था करनी पड़ेगी। उनका सुझाव है, “राज्यों को जलवायु संकट, खासकर एडेप्टेशन को ध्यान में रखकर नीतियां बनानी पड़ेंगी। उदाहरण के लिए सड़कों पर पुल ऊंचाई में बनाए जाने चाहिए ताकि वे बाढ़ में बह न जाएं। हीटवेव बढ़ रहे हैं, तो उससे निपटने के लिए हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत किया जाना चाहिए। मौसम की मार अचानक हो रही है, इसलिए आपात स्थिति के इंतजाम होने चाहिए।”

उत्सर्जन घटाने के मौजूदा लक्ष्य नाकाफी

विभिन्न देश उत्सर्जन कितना और कैसे कम करते हैं, यह भी बड़ा मुद्दा रहेगा। इसमें नई टेक्नोलॉजी और रिन्युएबल एनर्जी के स्रोतों का इस्तेमाल, पुराने उपकरणों को एनर्जी एफिसिएंट बनाना, कंज्यूमर बिहैवियर बदलना शामिल हैं। विभिन्न देशों ने उत्सर्जन कम करने के अपने-अपने लक्ष्य तय किए हैं। इसे नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (NDC) नाम दिया गया है। यूएन क्लाइमेट चेंज की 26 अक्टूबर की रिपोर्ट के मुताबिक पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वाले देशों ने एनडीसी में उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तो तय किया है, लेकिन इस स्तर के लक्ष्य से सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग 2.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगी। IPCC के अनुसार तापमान इतना बढ़ना विनाशकारी होगा।

भारत ने पहले कहा था कि 2005 की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन की इन्टेंसिटी (प्रति यूनिट जीडीपी होने वाला उत्सर्जन) 33-35% कम की जाएगी। इसे बढ़ाकर 45% किया गया है। पुराना लक्ष्य 2030 तक 40% बिजली उत्पादन रिन्युएबल स्रोतों से करने का था, इसे संशोधित कर 50% फीसदी किया गया है। जंगल का क्षेत्र बढ़ाया जाएगा जो 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन को सोख सके। संशोधित लक्ष्य में इसे नहीं बदला गया है।

केलकर कहती हैं, आर्थिक मदद मिले तो भारत मिटिगेशन में इससे ज्यादा भी कर सकता है। इसमें निजी क्षेत्र भी बड़ी भूमिका निभा सकता है, लेकिन समस्या पूंजी की लागत की है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भारत में निवेश पर जोखिम अधिक लगता है, इसलिए उनसे भारत को मिलने वाले कर्ज पर ब्याज अधिक होता है। केलकर के अनुसार COP में सरकारों के अलावा अन्य संस्थाएं भी हिस्सा लेती हैं। इसलिए कुछ इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप हो सकती हैं।

पल्लव पुरोहित कहते हैं, NDC के लक्ष्यों से पेरिस समझौते के अनुरूप उत्सर्जन कम नहीं हो सकेगा। COP26 में क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने अंदेशा जताया था कि सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग प्री-इंडस्ट्रियल समय की तुलना में 2.7 डिग्री सेल्सियस ज्यादा होगा। जलवायु विज्ञानी कह चुके हैं कि तामपान सिर्फ 2 डिग्री बढ़ने से दुनिया में विनाश होगा। इसलिए पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वालों को ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन काफी घटाना पड़ेगा।

हालांकि रश्मि एनडीसी के माध्यम से ग्लोबल वार्मिंग नियंत्रित करने की बात को कपोल कल्पना मानते हैं। उनका कहना है कि एनडीसी का इंपैक्ट बस 12% है। हर साल दुनिया में 52 गीगाटन उत्सर्जन होता है, इसे घटाकर 20 से 25 गीगाटन करना है। अभी विभिन्न देशों ने जो एनडीसी दिया है उससे इस अंतर को पूरा करना मुमकिन नहीं है। रश्मि के अनुसार, इसकी जिम्मेदारी सिर्फ भारत और चीन जैसे देशों पर नहीं हो सकती। यह तभी मुमकिन है जब सभी विकसित देश 2030 तक अपनी इकोनॉमी को नेटजीरो कर दें। अभी विकसित देशों ने 40 से 50% तक उत्सर्जन कम करने की बात कही है। एनडीसी में मार्जिनल सुधार से यह संभव नहीं होगा।

कोयले पर गतिरोध

COP27 से तीन दिन पहले भारत में 141 कोल ब्लॉक की सबसे बड़ी नीलामी शुरू की गई है, जिसकी कुछ हलकों में आलोचना हो रही है। COP26 में भारत की अगुवाई में 77 देशों ने क्लाइमेंट फाइनेंस के लिए दबाव बनाया था। उसके जवाब में विकसित देश कोयले को ‘फेजआउट’ करने का प्रस्ताव लेकर आ गए जिसका भारत और चीन ने विरोध किया था। विरोध के बाद ‘फेजआउट’ को बदलकर ‘फेजडाउन’ किया गया।

भारत के पक्ष का समर्थन करते हुए रश्मि कहते हैं, हमारे पास बिजली के लिए कोयले के अलावा और कोई साधन नहीं है। हम तेल और गैस के लिए आयात पर निर्भर करते हैं। विकसित देश कोयले का इस्तेमाल कुछ समय बाद बंद करने की बात कह रहे हैं, लेकिन इसका टाइम फ्रेम लंबा और सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल के मुताबिक हो।

विकसित देशों की मंशा पर सवाल उठाते हुए वे कहते हैं, अगर इस्तेमाल घटाना ही है तो सिर्फ कोयला क्यों, तेल और गैस क्यों नहीं। विकसित देश इस पर बात क्यों नहीं कर रहे हैं। कोयले के साथ आजीविका, रोजगार, सामाजिक बराबरी का मुद्दा जुड़ा है। इनके लिए अभी कोई विकल्प नहीं है। इसलिए कोयले का इस्तेमाल फिलहाल बंद करना संभव नहीं है। जहां तक रिन्युएबल की बात है तो भारत ने इसकी पूरी प्रतिबद्धता जताई है।

यह सच है कि विकास और उत्सर्जन दोनों साथ-साथ चलते आए हैं। कम उत्सर्जन करने वाले देश ही आज ज्यादा गरीब हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन भी हकीकत है। इसके साथ बाढ़, सूखा, अधिक ठंडे या गर्म दिनों की संख्या बढ़ना, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि भी हकीकत बन गए हैं। विकसित देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक इस्तेमाल किया कि उसका नतीजा पूरा विश्व भुगत रहा है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखा जाए तो विकासशील देशों के लोग विकसित देशों की तुलना में बहुत कम प्रदूषण फैला रहे हैं। इसके बावजूद दक्षिण एशिया में 1999 से 2018 तक जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक नुकसान पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल (तीनों टॉप 10 में), भारत और श्रीलंका को झेलना पड़ा। मानव जनित इन प्राकृतिक आपदाओं को तत्काल रोकना असंभव है, इसलिए विकासशील देशों के प्रभावित लोगों को एडेप्टेशन में मदद की दरकार है। ये देश अपने भविष्य और यूरोप-अमेरिका के अतीत, दोनों का बोझ नहीं उठा सकते हैं।

आम आदमी का योगदान

उल्का केलकर कहती हैं, आम आदमी अकेले कुछ नहीं कर सकता, लेकिन सरकार की मदद से बहुत कुछ किया जा सकता है। भारत में 97% लोग ऐसे हैं जो पहले ही बहुत कम उत्सर्जन करते हैं। फिर भी हम अपना व्यवहार बदलकर पर्यावरण को बचाने में मदद कर सकते हैं। जैसे, संसाधनों को जाया न करें। ऑफिस आने-जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें- हालांकि उसका इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकार ही मजबूत कर सकती है। अभी अगर कोई चाहे तो ज्यादा शुल्क देकर भी रिन्युएबल स्रोतों से बनी बिजली का कनेक्शन नहीं ले सकता है। इसके लिए भी सरकार को ही उपाय करने होंगे।

उल्का प्रभावित लोगों की मदद को जरूरी बताती हैं। वे कहती हैं, “बाढ़ वाले इलाकों के लिए सब्सिडाइज्ड बीमा की व्यवस्था होनी चाहिए। अर्बन प्लानिंग में जलवायु संकट- जैसे बारिश के पैटर्न को ध्यान में रखना बेहतर होगा। अनेक किसान ऐसी फसलें उगा रहे हैं जो कम बारिश होने पर भी अच्छी उपज दे सकती हैं। सरकार को देखना होगा कि उसे किसानों से खरीदा जाए। उन्हें राशन की दुकानों के जरिए वितरित किया जा सकता है, मिड-डे मील में इस्तेमाल किया जा सकता है।”

समाधानः बचाव के लिए क्या करें

क्लाइमेट क्राइसिस से लंबे समय तक हीटवेव और शीतलहर की घटनाएं बढ़ रही हैं। इनसे बचाव के लिए एमडी (मेडिसिन) डॉ. श्रेय श्रीवास्तव के कुछ सुझाव हैंः-

शीतलहर चलने पर

-ठंड से बचने के लिए पर्याप्त कपड़े पहनें, यथासंभव घर में रहें।

-शरीर सूखा रखे, गीले कपड़े शरीर की गर्मी सोख लेते हैं। हाथों में गर्मी देने वाले ग्लव्स पहने।

-पर्याप्त पानी और तरल पीते रहें, बुजुर्गों और बच्चों का ख्याल रखे।

-हाथ-पैर की उंगलियों, कान और नाक पर शीतदंश (frostbite) के लक्षण देखें। उस हिस्से को गुनगुने पानी में डालें।

-हाइपोथर्मिया की स्थिति में व्यक्ति को गर्म स्थान पर ले जाकर उसके कपड़े बदलें। कंबल ओढ़ाएं और गर्म पेय पदार्थ पिलाएं।

हीटवेव की स्थिति में

-धूप में, खासकर 12 बजे से दोपहर 3 बजे तक बाहर न निकलें। प्यास न लगने पर भी पानी पिएं।

-बाहर निकलते समय गॉगल्स, छतरी, टोपी, जूते का इस्तेमाल करें। साथ में पानी जरूर रखें।

-शरीर को डिहाइड्रेट करने वाले पदार्थ अल्कोहल, चाय, कॉफी, कार्बोनेटेड सॉफ्ट ड्रिंक्स से बचें।

-ज्यादा प्रोटीन वाला और बासी खाने से बचें। तबियत ठीक न लगे तो तुरंत डॉक्टर के पास जाएं।

-शरीर को हाइड्रेट करने के लिए ओआरएस, घर में बनी लस्सी, नीबू पानी, छाछ का प्रयोग करें।