वेंटिलेटर से कोरोना के गंभीर मरीज कैसे बचे, भोपाल एम्स की स्टडी में खुलासा, उम्र-अन्य बीमारी का न होना बचा कवच
कोरोना के कई गंभीर मरीज वेंटिलेटर मिलने पर भी नहीं बच पाए। इसे लेकर भोपाल एम्स के डॉक्टरों ने मरीजों पर शोध किया। इसमें ऐसे फैक्टर तलाशे गए जिसके कारण मरीज ठीक हुए या मौत हुई। स्वस्थ हुए अधिकतर मरीज 3 से 6 महीने तक मानसिक रूप से परेशान रहे।
नई दिल्ली, संदीप राजवाड़े। कोरोना काल में मौत का भयानक मंजर कमोबेश हर परिवार ने देखा। सांस लेने तक को तड़पते किसी अपने को लेकर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भागने का दृश्य हम कभी नहीं भूल सकते। भोपाल एम्स ने ऐसे मरीजों पर ही एक स्टडी रिपोर्ट तैयार की है। इसके मुताबिक कोविड-19 के जिन गंभीर मरीजों को समय पर वेंटिलेटर की सुविधा मिली, उनके बचने की संभावना भी बढ़ गई। कम उम्र और कोई पुरानी गंभीर बीमारी न होना भी इसमें बड़े फैक्टर रहे। शुरुआती दिनों में तो वेंटिलेटर पर जाने के बाद शायद ही कोई जिंदा लौटता था, लेकिन समय के साथ इसमें भी सुधार आया। रिपोर्ट के अनुसार जो मरीज लंबे समय तक वेंटिलेटर पर रहे, उनमें डर और चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण दिखने लगे। उन्हें सामान्य होने में छह महीने तक का समय लग गया।
भोपाल एम्स के एनेस्थिसियोलॉजी व इंटेसिव केयर विभाग के डॉ. सौरभ सहगल, मेडिसिन विभाग के सीनियर डॉ. रजनीश जोशी और श्वसन रोग विभाग के डॉ. अभिषेक गोयल समेत 16 डॉक्टरों ने मिलकर यह रिसर्च की। सभी अलग-अलग विशेषज्ञ हैं। Changing Critical Care Patterns and Associated Outcomes in Mechanically Ventilated Severe COVID-19 Patients in Different Time Periods: An Explanatory Study from Central India शीर्षक से यह रिपोर्ट इंडियन जर्नल ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन में प्रकाशित की गई है।
रिसर्च में मरीज को मिले माहौल, ट्रीटमेंट और उसके नतीजों का अध्ययन किया गया। बाद में स्थिति सुधरने में कौन-कौन से फैक्टर जिम्मेदार रहे, उनकी पहचान भी की गई। मरीजों के स्वस्थ हो जाने के बाद उनके व्यवहार और सेहत में आए परिवर्तन पर भी गौर किया गया।
डॉ. सौरभ ने बताया कि अप्रैल 2020 से अप्रैल 2021 के दौरान कोरोना के दो पीक काल रहे। पहला लॉकडाउन के दौरान अप्रैल-मई से सितंबर 2020 तक और दूसरा, मार्च से अप्रैल 2021 तक। कोरोना के सबसे ज्यादा और गंभीर मामले इसी दौरान आए।
इस शोध में एम्स भोपाल में वेंटिलेटर पर भर्ती हुए कोविड के 309 मरीजों को शामिल किया गया। उनमें से 21 की मौत 24 घंटे के अंदर हो गई थी। बाकी बचे 288 मरीजों के हेल्थ डेटा का अध्ययन किया गया। अप्रैल 2021 तक के आंकड़ों के अनुसार इन 288 में से भी सिर्फ 56 मरीज बच सके।
जल्दी वेंटिलेटर से बची जान, 50 से कम उम्र वाले ज्यादा
डॉ. सौरभ ने बताया कि 56 गंभीर मरीज जो वेंटिलेटर से स्वस्थ होकर बाहर आए, उनमें से ज्यादातर औसतन 10 से 17 दिनों तक रहे वेंटिलेटर पर थे। कुछ तो 53 दिन तक रहे। इन सभी मरीजों को कोविड पॉजीटिव और फेफड़े में इंफेक्शन की जानकारी मिलने के कुछ समय के अंदर ही वेंटिलेटर की सुविधा मिल गई थी। जल्द वेंटिलेटर मिलने से ही इनके बचने की संभावना बढ़ी। दूसरा सबसे बड़ा फैक्टर कम उम्र और अन्य किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित न होना था। ठीक हुए अधिकतर मरीज 50 साल से के कम के थे। कुछ अधिक उम्र के थे लेकिन उन्हें अन्य कोई बड़ी बमारी नहीं थी। डॉ. सौरभ ने कहा कि जिन कोविड मरीजों की वेंटिलेटर सुविधा मिलने के बाद भी जान नहीं बच पाई, उनमें सबसे बड़ी चूक समय रहते वेंटिलेटर का नहीं मिलना था। इससे फेफड़े का इंफेक्शन बढ़ गया और शरीर के अनेक अंगों ने काम करना बंद कर दिया।
मरीजों की जान बचने से बढ़ा डॉक्टर-नर्स का आत्मविश्वास
कोरोना के आने के शुरुआती दौर में इसकी दवा व ट्रीटमेंट की जानकारी किसी को नहीं थी। न कोई ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल बना था न वैक्सीन आई थी। डॉ. सौरभ ने बताया कि मरीजों के इलाज को लेकर मेडिकल टीम में डर व भ्रम दोनों था। वेंटिलेटर पर मरीजों लगातार मौत से डॉक्टर-नर्स का आत्मविश्वास कम हो रहा था। शुरू में फेफड़े का संक्रमण रोकने के उपाय ही अपनाए गए। जैसे-जैसे इलाज बेहतर होता गया और सुविधाएं बढ़ती गईं, वेंटिलेटर पर बचने वाले मरीजों की संख्या भी बढ़ी।
मार्च 2020 से शुरुआती तीन महीने में 17 कोविड मरीज वेंटिलेटर पर गए और सबकी मौत हो गई। उनके फेफड़े में ज्यादा इंफेक्शन था। इसके अगले तीन महीने में वेंटिलेटर के कारण 18 फीसदी मरीज बच गए। कोरोना के सबसे पीक समय अप्रैल 2021 तक यह संख्या 28 फीसदी तक पहुंच गई। इससे डॉक्टर-नर्स व अन्य मेडिकल स्टॉफ में नई ऊर्जा आई और आत्मविश्वास बढ़ा।
ठीक हुए मरीजों में छोटी बीमारी से भी बढ़ा डर-चिड़चिड़ापन
भोपाल एम्स के सीनियर एमडी (मेडिसीन) डॉ. रजनीश जोशी ने बताया कि जीवित बचे मरीजों पर ठीक होने के एक साल तक नजर रखी गई। उनके व्यवहार और अन्य किसी बीमारी को लेकर फॉलोअप किया गया। लंबे समय तक वेंटिलेटर पर रहने वाले मरीजों में बीमारी को लेकर एक डर, बेचैनी और चिड़चिड़ापन आ गया। सामान्य सर्दी-खांसी होने पर भी वे डर जाते थे। अधिकतर मरीजों की मानसिक स्थिति सामान्य होने में तीन से छह महीने लगे। आज बचे हुए 56 मरीजों में से 90 फीसदी पूरी तरह स्वस्थ हैं।
रिसर्च में यह भी पाया गया कि कोविड के दौरान वेंटिलेटर वाले जिन मरीजों की जान बची, उनमें से अधिकतर को अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद महीने भर तक ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ी। कुछ ही ऐसे मरीज थे, जिन्हें डिस्चार्ज होने के बाद एक महीने या उससे ज्यादा समय तक घर में भी ऑक्सीजन सपोर्ट पर रखा गया।
रायपुर मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर और क्रिटिकल केयर इंचार्ज डॉ. ओपी सुंदरानी ने बताया कि शुरुआत में कोविड के जो गंभीर मरीज वेंटिलेटर पर रखे जाते थे, उनमें बचने वालों की संख्या बेहद कम रही। जैसे-जैसे हेल्थ सुविधाएं बढ़ीं, परिणाम अच्छे आने लगे। वेंटिलेटर में रहने के दौरान मरीज अपने सामान्य जीवन व दिनचर्या से पूरी तरह कट जाते हैं। इससे कई मरीजों को चिड़चिड़ापन, झल्लाहट, चिंता, डर के साथ एंजाइटी की समस्या देखी गई। लेकिन अब अधिकतर मरीज सामान्य जीवन जी रहे हैं।
मरीजों को बचाने के बेहतर उपाय, फैक्टर की पहचान
इस रिसर्च में गंभीर मरीजों को बचाने वाले फैक्टर की भी पहचान की गई, मेडिकल सपोर्ट व ट्रीटमेंट का प्रोटोकॉल जाना गया। रिसर्च में कोविड से पीड़ित एआरडीएस (Acute respiratory distress syndrome) मरीजों पर अध्ययन किया, जो गंभीर हालत में वेंटिलेटर पर भर्ती थे।
जब दवा नहीं थी तो वेंटिलेटर ही सबसे कारगर था
रायपुर मेडिकल कॉलेज के डॉ. सुंदरानी ने बताया कि गंभीर मरीजों को बचाने में वेंटिलेटर की अहम भूमिका रही है। पहली लहर में तो यह पता ही नहीं था कि कोविड मरीज का इलाज कैसे करना है। उनके लिए कोई दवा भी नहीं थी। गंभीर मरीजों को वेंटिलेटर सपोर्ट देकर ही किसी तरह बचाना पहला उद्देश्य रहा और इससे अनेक जानें बचीं भी। डायबीटिज, कैंसर, किडनी के साथ अन्य बीमारियों से पीड़ित ऐसे मरीज जिनका ऑक्सीजन सेचुरेशन लेवल 70-80 से कम हो गया, उन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट के बाद भी नहीं बचाया जा सका।
कोरोना के बाद रिसर्च से सीखने को मिला, सेटअप बढ़े
आईसीएमआर के योजना व संचार इंचार्ज डॉ. रजनीकांत ने बताया कि कोरोना के बाद मरीजों व बीमारी को लेकर अगल-अलग अस्पतालों-संस्थानों की रिसर्च से कई नई जानकारी सामने आई। इससे ट्रीटमेंट व सुविधाएं बढ़ाने में मदद मिली। आज हमारे पास 300 ज्यादा लैब हैं। देशभर के डॉक्टर्स-मेडिकल स्टॉफ को नई तकनीक की जानकारी दी जा रही है। हर राज्य में यह कार्यक्रम चल रहा है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी पुणे के अलावा देश के चारों दिशाओं में जबलपुर, बेंगलुरु, डिब्रुगढ़ और जम्मू में इसके सेंटर खोले जा रहे हैं। पुणे और गोरखपुर में वायरोलॉजी मोबाइल लैब रखे गए हैं जो किसी भी आपात स्थिति में किसी भी जगह जा सकते हैं।