संदीप राजवाड़े, नई दिल्ली।

मोबाइल देखने या उपयोग करने से आपके ब्लड प्रेशर (बीपी) का किसी तरह से जुड़ाव है क्या.. बीपी चेक कराने के दौरान मोबाइल के उपयोग से क्या ब्लड प्रेशर के माप पर असर पड़ता है.. इस विषय को लेकर एम्स देवघर के डिपार्टमेंट ऑफ कम्युनिटी एंड फैमिली मेडिसिन के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुदीप भट्टाचार्य ने आकलन करने के बाद एक्सपर्ट ओपिनियन दिया है कि बीपी चेक कराने के दौरान मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करना चाहिए। फोन देखने पर बीपी कम या अधिक होने की संभावना रहती है। इसलिए उस समय ली गई रीडिंग गलत हो सकती है। उनका कहना है कि जिस तरह ब्लड प्रेशर चेक कराने से आधे घंटे पहले कसरत न करने, कैफीन व सिगरेट-शराब का सेवन न करने की सलाह दी जाती है, उसी तरह आधा घंटे पहले मोबाइल का उपयोग न करने को भी इस प्रोटोकॉल में शामिल करना चाहिए। ब्लड प्रेशर पर मोबाइल फोन इस्तेमाल के प्रभाव को लेकर की जा रही रिसर्च रिपोर्ट वे जल्दी ही प्रकाशित कराएंगे। डॉ. सुदीप भट्टाचार्य कहा कि अपने आकलन के अलावा मैंने दुनियाभर में मोबाइल यूज और सोशल मीडिया के कारण हाइपरटेंशन और डिप्रेशन को लेकर किए गए रिसर्च का भी अध्ययन किया है।

डॉ. सुदीप ने बताया कि बीपी मापने के लिए स्फिग्मोमैनोमीटर का उपयोग किया जाता है, यह दो प्रकार के होते हैं। एक मैनुअल (एनेरॉइड या पारा स्फिग्मोमैनोमीटर के जरिए) और दूसरा स्वचालित (इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल डिवाइस के जरिए)। बीपी मापने को लेकर भारत में तय मानक- दिशानिर्देश के अनुसार जिस व्यक्ति का बीपी नापा जा रहा है, उसे जांचने के पहले कुछ समय तक शांत वातावरण में आराम से बैठाया जाता है। उसे ज्यादा बात या चलने-फिरने से परहेज करने की सलाह दी जाती है। उन्होंने कहा कि इस दिशानिर्देश में मोबाइल फोन के उपयोग व बात करने से बचने की सलाह को भी शामिल किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि मोबाइल देखने के दौरान बीपी का माप सही नहीं भी आ सकता है, कभी मोबाइल पर आप हिंसक या उत्तेजित या संवेदनशील वीडियो देख लेते हैं, तो उस समय आपका बीपी बढ़ सकता है। इसी तरह मोबाइल पर हंसी- मजाक, खुशनुमा या मनपसंद वीडियो देखने से बीपी नॉर्मल या कम भी सकता है। ऐसा मानना है कि मोबाइल यूज व कंटेंट- वीडियो देखने पर बीपी का सही माप प्रभावित हो सकता है।

स्क्रीनिंग टाइम बढ़ने से बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असरः चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट

जयपुर की पैरेंटिंग कोच और चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉ. शालिनी सिंह राय ने बताया कि मोबाइल का बढ़ता उपयोग और स्क्रीनिंग टाइम शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से प्रभावित करता है। इसका हाइपरटेंशन व डिप्रेशन से जुड़ाव देखा जा रहा है। इससे अब कितना बीपी बढ़ता या घटता है, इसे लेकर भारत में रिसर्च किया जाना चाहिए, लेकिन मोबाइल उपयोग से बच्चों पर बुरा असर जरूर सामने आ रहे हैं। पिछले कुछ सालों के दौरान खासकर बच्चों में मोबाइल फोन के उपयोग की लत बढ़ी है, इससे डिप्रेशन, स्ट्रेस के साथ अन्य बीमारियों की समस्या देखने में आई है। मेरे पास जिस तरह के केस सामने आ रहे हैं, उसमें अधिकतर मोबाइल स्क्रीनिंग की लत की होती है, जिसे लेकर माता-पिता परेशान होते हैं। जबकि सच यह है कि माता-पिता ही बच्चों में मोबाइल स्क्रीनिंग की लत लगाते हैं, उनसे ही उन्हें देने की पहल शुरू होती हैं। मैं मानती हूं कि अधिक मोबाइल स्क्रीनिंग ही डिप्रेशन, स्ट्रेस व एंजाइटी जैसे केस में एक कारण बनता जा रहा है। हमारे पास जो केस आते हैं, उनमें बताया जाता है कि किस तरह बच्चों का स्क्रीनिंग टाइम कम से कम रखा जाए। इसके लिए एक एडवाइजरी भी दी जाती है कि किस उम्र के बच्चे का कितना स्क्रीन टाइम होना चाहिए।

बच्चों को एकदम तो मोबाइल फोन या सोशल मीडिया से दूर नहीं रख सकते हैं, वे आपको देखते हुए बड़े हो रहे हैं। ऐसे में उनके लिए एक स्क्रीन टाइम तय होना चाहिए। दो साल के बच्चों को भूलकर भी मोबाइल पर वीडियो दिखाने से बचना चाहिए। इससे उनके मानसिक विकास के साथ बोलने की क्षमता प्रभावित होती है। इसी तरह तीन से पांच साल के बच्चों का दिनभर में अधिकतम आधा घंटे का मोबाइल स्क्रीनिंग टाइम होना चाहिए, जहां तक हो टीवी पर उन्हें वीडियो दिखाएं। छह से 12 साल तक के बच्चों को रोजाना अधिकतम एक घंटे तक का स्क्रीनिंग टाइम होना चाहिए। इस दौरान पैरेंट्स को पता होना चाहिए कि वे क्या देख रहे हैं। इसके अलावा 13 से 15 साल तक के बच्चों का स्क्रीनिंग टाइम अधिकतम डेढ घंटे होना चाहिए। रात को उन्हें अपने रूम में मोबाइल यूज करने से मना करें। मानिटरिंग करें कि वे क्या देखते हैं और सोशल मीडिया में किस तरह के लोगों से वे जुड़े हुए हैं।

अमेरिकी सर्जन जनरल ने कहा- चिंता व डिप्रेशन का कारण बन रहा सोशल मीडिया

हाल ही अमेरिका के सर्जन जनरल वाइस एडमिरल डॉ. विवेक मूर्ति ने न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि मोबाइल व सोशल मीडिया की लत बच्चों-युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रही है। इसके उपयोग को लेकर शराब- सिगरेट की तरह यह सेहत के लिए हानिकारक जैसी चेतावनी का प्रोटोकॉल होना चाहिए। मोबाइल व सोशल मीडिया के अधिक उपयोग करने को लेकर खासकर बच्चों में चेंज हो रहे व्यवहार को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं, डॉक्टरों के पास लगातार इससे जुड़े केस भी सामने आ रहे हैं।

डॉ. विवेक मूर्ति ने अपने इंटरव्यू में कहा कि जो बच्चे- किशोर रोज तीन घंटे से ज्यादा सोशल मीडिया (सोशल नेटवर्किंग सेवाएं) का उपयोग करते हैं, उनमें चिंता और डिप्रेशन के लक्षण होने की आशंका दोगुनी होती है। सोशल मीडिया कंपनियों और सरकार को बच्चों को इससे बचाने को लेकर विशेष उपाय व पहल करनी चाहिए। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार सोशल मीडिया से किशोरों में पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव को लेकर डेमोक्रेटिक सीनेटर रिचर्ड ब्लूमेंथल और रिपब्लिकन सीनेटर मार्शा ब्लैकबर्न ने कानून के लिए अपना समर्थन दिया। उन्होंने कहा कि हमें खुशी है कि यूएसए के सर्जन जनरल ने बच्चों पर सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों पर ध्यान दिया है। अमेरिका में कई अध्ययन सामने आए हैं, जिनमें बताया गया है कि सोशल मीडिया का किशोरों के स्वास्थ्य पर गलत प्रभाव पड़ता है।

एमआईटी के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ स्लोअन के शोधकर्ताओं के 2022 के पेपर के अनुसार, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सोशल मीडिया के शुरू के समय और छात्रों के अवसाद के बीच एक संबंध है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि जब फेसबुक वहां के विश्वविद्यालय में गंभीरता से शुरू हुआ, तो विश्वविद्यालय में छात्रों का अवसाद भी बढ़ गया।

हफ्ते में 30 मिनट से ज्यादा मोबाइल यूज पर 12% बढ़ जाता है, हाई बीपी का खतरा

यूरोपियन सोसायटी ऑफ हार्ट जर्नल के डिजिटल हेल्थ में प्रकाशित शोध के अनुसार प्रति हफ्ते 30 मिनट या उससे अधिक समय तक मोबाइल पर बात करने से हाई बीपी का खतरा 30 मिनट से कम उपयोग करने वालों की तुलना में 12% बढ़ जाता है। चीन के गुआंगजो साउथर्न मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जियानहुई किन ने कहा मोबाइल पर बात करने में लोगों द्वारा बिताए गए मिनटों की संख्या हार्ट हेल्थ के लिए मायने रखती है, अधिक समय तक इसके उपयोग का मतलब अधिक जोखिम है।

इस स्टडी में फोन कॉल करने और रिसीव करने और नई शुरुआत वाले हाई बीपी के बीच संबंधों की जांच की गई। अध्ययन में यूके बायोबैंक के डेटा का इस्तेमाल किया गया। बिना उच्च रक्तचाप वाले 37 से 73 वर्ष की आयु के कुल 2,12,046 लोगों को शामिल किया गया। कॉल करने और रिसीव करने के लिए मोबाइल फोन के उपयोग की जानकारी एकत्र की गई। हर व्यक्ति के उपयोग के वर्ष, प्रति सप्ताह घंटे और हैंड्स-फ्री डिवाइस या स्पीकर फोन का उपयोग शामिल था। शोधकर्ताओं ने उम्र, लिंग, बॉडी मास इंडेक्स, लिंग, अभाव, उच्च रक्तचाप का पारिवारिक इतिहास, शिक्षा, धूम्रपान की स्थिति, रक्तचाप, बल्ड लिपिड, सूजन, ब्लड ग्लूकोज को समायोजित करने के बाद मोबाइल फोन के उपयोग और उसके हाई बीपी के बीच संबंधों का विश्लेषण किया।

इस स्टडी में औसतन आयु 54 वर्ष थी, जिसमें 62% महिलाएं और 88% मोबाइल फोन उपयोगकर्ता थे। 12 वर्षों की औसत आकलन के दौरान 13,984 (सात फीसदी) प्रतिभागियों में हाई बीपी विकसित हुआ। मोबाइल फोन उपयोग करने वालों में मोबाइल फोन उपयोग न करने वालों की तुलना में हाई बीपी जोखिम सात फीसदी अधिक था। इसमें ऐसे लोग शामिल थे, जो प्रति सप्ताह 30 मिनट या उससे अधिक समय तक अपने मोबाइल पर बात करते थे, उनमें उन प्रतिभागियों की तुलना में नए-शुरुआत उच्च रक्तचाप की आशंका 12 फीसदी अधिक थी, जो फोन कॉल पर 30 मिनट से कम समय बिताते थे। परिणाम महिलाओं और पुरुषों के लिए समान थे।

स्टडी के निष्कर्ष के अनुसार उन प्रतिभागियों की तुलना में जिन्होंने प्रति सप्ताह मोबाइल फोन कॉल करने या रिसीव करने में पांच मिनट से कम का समय बिताया, ऐसे उपयोगकर्ता जिनका हफ्तेभर का मोबाइल उपयोग का समय 30-59 मिनट, 1-3 घंटे, 4-6 घंटे और 6 घंटे से अधिक था, उनमें क्रमश 8%, 13%, 16% और 25% उच्च रक्तचाप का खतरा बढ़ा हुआ था।

हाइपरटेंशन का बढ़ते मामले, युवाओं में डिप्रेशन के केस ज्यादा

डॉ. सुदीप ने बताया कि 2019 में द लैंसेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 20 साल से ज्यादा उम्र के 1.13 बिलियन लोग हाई बीपी से पीड़ित हैं, जो विश्व आबादी के करीबन 26 फीसदी हैं। 1975 के दौरान इनकी संख्या 594 मिलियन थी। हाई बीपी या हाइपरटेंशन से हार्ट अटैक और स्ट्रोक जैसी दिल से जुड़ी बीमारी के प्रमुख कारण है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज के अध्ययन के अनुसार 2019 में दुनियाभर में करीबन 10.8 मिलियन मौतों के लिए हाई बीपी जिम्मेदार था, जो सभी तरह के मौतों का 19 फीसदी से ज्यादा है। भारत में हाई ब्लड प्रेशर के बढ़ते बोझ और हार्ट से जुड़ी बीमारियों के मामले चिंताजनक हैं

2018 में द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट इंडिया स्टेट-लेवल डिजीज बर्डन इनिशिएटिव में बताया गया कि भारत में वयस्कों में हाई बीपी की व्यापकता करीबन 29.8% होने का अनुमान था। इस स्टडी में कहा गया कि भारत में लगभग 199.5 मिलियन व्यक्ति उच्च रक्तचाप से प्रभावित थे। हाई बीपी से भारत में मृत्यु दर का संबंध जुड़ा हुआ है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज अध्ययन के अनुसार 2019 में भारत में लगभग 1.6 मिलियन मौतों के लिए उच्च रक्तचाप जिम्मेदार था, जो कुल मौतों का 14.1% था। उच्च हाई बीपी का भारत में विकलांगता और पूरे स्वास्थ्य पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

2020 में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत में उच्च रक्तचाप से जुड़े जोखिम कारकों की जांच की गई। इसमें पाया गया कि बढ़ती उम्र, शहरी निवास, हाई बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) और डायबिटीज जैसे कारक हाई ब्लड प्रेशर से जुड़े हुए हैं। एक अन्य स्टडी में भारत में उच्च रक्तचाप की कम जागरूकता और उसके कंट्रोल रेट पर भी प्रकाश डाला गया, जिसमें बेहतर स्क्रीनिंग और प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर दिया गया।

रिसर्च में सोशल मीडिया की लत से खराब नींद, डिप्रेशन की बात सामने आई

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मेंटल हेल्थ एंड एडिक्शन में प्रकाशित जहीर हुसैन और मार्क डी ग्रिफिथ्स की रिसर्च के अनुसार सोशल मीडिया का अधिक उपयोग व लत खराब नींद, ध्यान की कमी और टीनएजर में डिप्रेशन से जुड़ा था। चिंता और अवसाद से संबंधित ऑनलाइन जानकारी का विश्लेषण किया गया और पाया गया कि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर जानकारी की गुणवत्ता परिवर्तनशील थी और गलत या भ्रामक सामग्री तनाव और चिंता को बढ़ाने में योगदान कर सकती है। एक अन्य अध्ययन ने किशोरों में डिजिटल टेक्नोलॉजी के उपयोग और भलाई के बीच संबंधों का पता लगाया और पाया कि डिजिटल टेक्नोलॉजी के उपयोग से तनाव और चिंता जैसे मानसिक स्वास्थ्य परिणामों के बीच छोटा सा संबंध था, जो सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण था। जानकारी के अनुसार मोबाइल फोन के उपयोग में वृद्धि और बीपी में वृद्धि के बीच संबंध बहुत कम है, और उपलब्ध साक्ष्य अप्रत्यक्ष है जो आमतौर पर तनाव और चिंता जैसे मानसिक विकारों के साथ जुड़ा हुआ है।