प्राइम टीम, नई दिल्ली। जागरण एग्री पंचायत का पहला सत्र ‘सस्टेनेबल खेती के लिए नीतिगत पहल और योजनाएं’ विषय पर था। इसमें दो पैनलिस्ट थे पूर्व कृषि और खाद्य प्रसंस्करण सचिव सिराज हुसैन और नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) के चेयरमैन डॉ. मीनेश शाह। सत्र का संचालन IFPRI की रिसर्च कोऑर्डिनेटर ममता प्रधान ने किया। डॉ. शाह ने कहा कि भारत में दूध उत्पादन बढ़ाने के उपायों से उम्मीद है कि सात-आठ वर्षों में दुनिया का एक-तिहाई दूध का उत्पादन भारत में होगा। अभी भारत एक-चौथाई दूध का उत्पादन करता है। उन्होंने पशुओं से मीथेन गैस उत्सर्जन कम करने के उपायों पर भी बात की। सिराज हुसैन ने कहा कि भारत में कृषि सरप्लस अभी बहुत कम है। किसी साल सरप्लस होता है तो किसी साल नहीं। जब तक ज्यादा सरप्लस नहीं होगा तब तक सरकार का कंट्रोल रहेगा। उन्होंने दलहन और तिलहन पर अधिक जोर देने की जरूरत भी बताई। चर्चा के मुख्य अंशः-

ममता प्रधान- सरकार के तीन-चार ऐसे कदम बताइए जिनके अच्छे नतीजे आए हैं, किसानों को उनका लाभ मिला हो।

सिराज हुसैन- तमाम कोशिशों के बावजूद हमारे ज्यादातर किसान अभी गरीबी में हैं। सरकार ने 2019 में सिचुएशन असेसमेंट सर्वे कराया था। उसके नतीजे बताते हैं कि देश के कई राज्यों में किसानों की महीने की आमदनी 10,000 रुपये से भी कम है। बिहार में यह 7,500 रुपये, झारखंड में 4,900 रुपये, छत्तीसगढ़ में 9,677 रुपये है। यह डेटा पांच साल पुराना है और इस दौरान आमदनी कुछ बढ़ी भी होगी, लेकिन किसानों की आय दोगुनी तो नहीं हुई है।

जहां तक कामयाब योजनाओं की बात है, तो मेरे विचार से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना उनमें प्रमुख है। इसमें किसानों को बहुत कम प्रीमियम देना पड़ता है- रबी में 1.5%, खरीफ में 2.5% और कॉमर्शियल क्रॉप में 5% प्रीमियम देना है। बाकी प्रीमियम सरकार देती है। तमाम मुश्किलों के बावजूद यह योजना बहुत अच्छी है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात जैसे राज्यों में जहां अक्सर सूखा पड़ता है, यह योजना काफी हद तक कामयाब रही है।

दूसरी है प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना। इसे 2014 में सरकार ने लागू किया था। मध्य प्रदेश में यह योजना बहुत कामयाब रही है। 2014 में 99 ऐसे सिंचाई प्रोजेक्ट थे जो तकरीबन 70% पूरे हो चुके थे। उस वक्त राज्य का सिंचित क्षेत्र 45% था, अब यह बढ़कर 52-53 प्रतिशत हो गया है। इसको 60% तक ले जाने का इरादा था। इसमें हम पूरी तरह कामयाब नहीं हुए हैं। 99 में से 55-56 प्रोजेक्ट पूरे हुए हैं और बाकी अलग-अलग चरणों में हैं। ऐसे प्रोजेक्ट को पूरा करना भी काफी मुश्किल होता है।

तीसरा है प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड। आप देख रहे होंगे कि दालों के दाम 200 रुपये किलो तक पहुंच गए हैं। हम लोगों ने सोचा था कि अगर ऐसा लगे कि किसी फसल के दाम आगे बढ़ेंगे तो सरकार उसे बाजार भाव पर खरीदेगी, जो एमएसपी से अधिक भी हो सकता है, और उसका बफर स्टॉक बनाएगी। बाजार में दाम बढ़ने पर वह उसे रिलीज करेगी। सरकार इसमें प्याज भी खरीदती है। सरकार ने 20 लाख टन दालों का भी बफर स्टॉक बनाया।

ये ऐसी पहल हैं जो पिछले 10 साल में हुई हैं। उससे पहले नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट बना था, जिसके तहत अभी 81 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो अनाज दिया जा रहा है। यह भी सरकार की बहुत कामयाब पहल है। इसकी वजह से कोविड के समय जब दुनिया के कई देशों में काफी दिक्कतें हुईं, हम अपने 81 करोड़ लोगों तक अनाज पहुंचा सके।

सवाल (ऑडियंस) - प्राइस स्टेबलाइजेशन की पहल पूरी तरह सफल नहीं हुई। इससे अनेक किसानों की समस्याएं बढ़ीं, उनकी फसल पूरी खरीदी नहीं गई। अनाज गोदामों की भी स्थिति अच्छी नहीं थी जिससे नुकसान हुआ। बाजार में सरकार का हस्तक्षेप भी कम होना चाहिए।

सिराज- मैं नहीं समझता कि दालों का बफर स्टॉक बनाने की नीति नाकाम रही है। यह जरूर है कि बफर स्टॉक से किसी खास वर्ष में नुकसान हो सकता है। इस स्कीम का मकसद था कि बाजार में दाम बहुत ज्यादा बढ़ने की आशंका हो तो सरकार उस कमोडिटी को स्टॉक कर सकती है।

जहां तक सरकार के हस्तक्षेप की बात है, तो बाजार को उस हद तक ही रेगुलेट किया जाना चाहिए कि वह अच्छे तरीके से काम कर सके। लेकिन हमें देखना होगा कि हमारा कृषि सरप्लस बहुत मार्जिनल है। किसी साल सरप्लस होता है तो किसी साल नहीं। जब तक ज्यादा सरप्लस नहीं होगा तब तक सरकार का कंट्रोल रहेगा। उदाहरण के तौर पर देखें तो चावल में हम वास्तव में सरप्लस की स्थिति में हैं। लेकिन 2021-22 और 2022-23 के मानसून में कमी होने से (दाम बढ़ने पर) सरकार को गैर-बासमती चावल निर्यात पर पाबंदी लगानी पड़ी, बासमती चावल पर न्यूनतम निर्यात मूल्य लगाना पड़ा और पारबॉयल्ड राइस पर 20% एक्सपोर्ट ड्यूटी लगाई गई। सरकार का नियंत्रण किस हद तक होना चाहिए यह बड़ा मुद्दा है, लेकिन मैं समझता हूं कि हमारा सरप्लस भरोसेमंद नहीं है। जलवायु परिवर्तन की वजह से इसमें और दिक्कतें आ रही हैं। इसलिए सरकार का नियंत्रण शायद और कुछ दिनों तक रहेगा।

दुनिया में पहली बार एनडीडीबी ने भैंस का जीनोमिक चिप्स विकसित किया

ममता- ऑपरेशन फ्लड से पहले भारत में दूध का सालाना उत्पादन सिर्फ दो करोड़ टन था जो अब 23 करोड़ टन हो गया है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है और एक-चौथाई दूध का उत्पादन करता है। लेकिन न्यूजीलैंड तथा यूरोप के अनेक देशों में उत्पादकता काफी अधिक है। हम इस अंतर को कैसे पूरा कर सकते हैं?

मीनेश शाह- मानव आबादी और पशुओं की संख्या दोनों में हम दुनिया में नंबर एक हैं। मनुष्य और पशु कहीं न कहीं खाद्य के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। भारत में पशु आहार बिल्कुल अलग है। न्यूजीलैंड या दूसरे विकसित देशों में पशुओं को अनाज खिलाया जाता है, भारत में अगर पशुओं को अनाज खिलाएंगे तो मनुष्य की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। इसलिए हमने बहुत ही सावधानीपूर्वक ‘लो इनपुट लो आउटपुट’ मॉडल चुना है। दूसरे देशों में ‘हाई इनपुट हाई आउटपुट’ मॉडल है। अगर हम अपना मॉडल बदलेंगे तो कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं।

भारत में करीब 8 करोड़ किसान डेयरी सेक्टर में हैं। इनमें से 80% छोटे और सीमांत किसान हैं। उनके पास दो-तीन पशु होते हैं और जमीन भी एक एकड़ से कम होती है। ऐसे किसानों के लिए डेयरी आजीविका का अच्छा साधन है। इन छोटे किसानों ने मिलकर ही भारत को दुनिया में नंबर एक बनाया है। औसत उत्पादकता में भले ही हम पीछे हैं, लेकिन उत्पादन बढ़ने की दर हमारी अच्छी है।

ग्रोथ के लिए हमने वैज्ञानिक तरीके अपनाए हैं। पशु प्रजनन, पशु स्वास्थ्य और उनका पोषण तीनों में हमने वैज्ञानिक तरीके लागू किए हैं। हमारा फोकस साहिवाल, गिर, कांकरेज जैसी देसी नस्लों पर है। इनमें रोग प्रतिरोधी क्षमता होती है और वे हीट स्ट्रेस अच्छी तरह ले सकते हैं। जर्सी गायों में वह क्षमता नहीं होती है।

ब्रीडिंग के लिए शुरू से हमने आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन को अपनाया। अभी हम सेक्स सॉर्टेड सीमेन को बढ़ावा दे रहे हैं। इस तरह आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन से बछिया होने की संभावना 80% से 85% रहती है। इससे भी आने वाले समय में देश में दूध उत्पादन में बढ़ोतरी होगी।

हम प्रोजेनी टेस्टिंग प्रोग्राम चला रहे हैं, जो अनेक विकसित देशों में भी है। इससे भी दूध उत्पादकता बढ़ रही है। इसके अगले कदम के रूप में हम जीनोमिक सेलेक्शन में गए हैं। दुनिया में पहली बार एनडीडीबी ने भैंस का जीनोमिक चिप्स विकसित किया है, घरेलू नस्ल की गायों का भी किया है। उससे पता लगा सकते हैं कि तीन-चार साल बाद गाय कितना दूध देगी।

इसी तरह, नेशनल डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम लाया गया। एफएमडी और ब्रुसेलोसिस बीमारियां किसान को बहुत नुकसान पहुंचाती हैं। उनकी रोकथाम के लिए हम देश के सभी पशुओं का वैक्सीनेशन मुफ्त में कर रहे हैं। इन उपायों से हमें पूरी उम्मीद है कि सात-आठ साल में विश्व उत्पादन में भारत का हिस्सा एक-तिहाई हो जाएगा।

संतुलित आहार से मीथेन उत्सर्जन 15% कम होगा, 2050 तक डेयरी क्षेत्र नेट जीरो होगा

ममता- प्रोडक्टिविटी और सस्टेनेबिलिटी क्या दोनों एक साथ चल सकती हैं?

मीनेश- यह सही है कि जब हम सबसे बड़ा दूध उत्पादक बनने की बात कहते हैं तो हमारे बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां पशु भी सबसे ज्यादा हैं। पशु मीथेन का उत्सर्जन करते हैं जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इस बात के लिए हमेशा भारत की आलोचना की जाती रही है। पिछले कुछ सालों से हम सस्टेनेबिलिटी पर काम कर रहे हैं। इसमें हमारा प्रयास कम पशु के साथ दूध उत्पादन बढ़ाना है। इसलिए प्रोडक्टिविटी बढ़ाना ही एकमात्र उपाय है।

पशु का खाना संतुलित करने से मीथेन उत्सर्जन 15% कम हो जाता है। सरकार की योजना के तहत हमने करीब 10 लाख पशुओं पर इसका प्रयोग किया। देश में पशुओं को खिलाए जाने वाले सभी तरह के आहार का विश्लेषण किया। हमारे पास सबका न्यूट्रिशनल प्रोफाइल है। किसान जब बताता है कि वह अपने पशु को क्या-क्या खिलाता है, तो हम विश्लेषण करके बता सकते हैं कि कौन सी चीज कितना खिलाएं। इस तरह आहार संतुलन से मीथेन उत्सर्जन कम करने में मदद मिल रही है। अब इसे पूरे देश में लागू कर रहे हैं। भारत सरकार और एनडीडीबी ने मिलकर ई-गोपाला ऐप डेवलप किया है। किसान एंड्रॉयड फोन पर खुद यह विश्लेषण करके पशु को संतुलित आहार दे सकते हैं। हम ऐसी फीड पर भी काम कर रहे हैं जिन्हें खिलाने से मीथेन उत्सर्जन कम होगा।

गोबर से भी वातावरण में काफी मीथेन गैस जाती है। बायो गैस प्लांट से इसे कम किया जा सकता है। दो-तीन पशु से जितना गोबर निकलेगा उसे बायो गैस प्लांट में डाल कर पूरे परिवार की जरूरत (जैसे खाना बनाने में) पूरी की जा सकती है। गोबर के बचे हिस्से से ऑर्गेनिक खाद बनाई जाती है। इस काम में हमने महिलाओं को जोड़ा है। वे बायो गैस प्लांट में गोबर के बचे हिस्से को खरीदती हैं और उससे ऑर्गेनिक खाद बना कर बेचती हैं।

आठ करोड़ परिवारों में इस तरह छोटे प्लांट लगाने में बहुत समय लगेगा। इसलिए हम सेंट्रलाइज्ड प्लांट भी बना रहे हैं। वाराणसी में 100 टन क्षमता वाला प्लांट लगाया है। दूध प्रोसेसिंग प्लांट में ईंधन के तौर पर डीजल की जगह इसी प्लांट की गैस का इस्तेमाल कर रहे हैं। बनासकांठा में भी ऐसा ही प्लांट लगाया गया है। वहां निकलने वाली मीथेन गैस को कंप्रेस किया जाता है और उसका प्रयोग वाहनों में करते हैं। सरकार की भी योजना है कि सीएनजी में बायो सीएनजी मिलाना जरूरी होगा। इस तरह उम्मीद है कि हम 2050 तक नेट जीरो डेयरी को हासिल कर लेंगे।

भारत का दूध दूसरे किसी भी देश में बिकने वाले दूध जितना अच्छा

सवाल (ऑडियंस)- दूसरे देशों में भारत के दूध की क्वालिटी पर सवाल उठाए जाते हैं। भारत के दूध को कैसे ग्लोबल ब्रांड बनाएं?

मीनेश- हमारा दूध दूसरे किसी भी देश में बिकने वाले दूध जितना ही अच्छा है। बिना किसी सबूत के इसे खराब बताया जाता है। भारत में ज्यादातर लोग लैक्टोवेजिटेरियन हैं। हमारे खाने में दूध किसी न किसी रूप में रहता ही है। 1970 में जब ऑपरेशन फ्लड शुरू हुआ तब भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 115 ग्राम के आसपास थी, जो अब लगभघ 450 ग्राम हो गई है। विश्व औसत 350 ग्राम के करीब है।

दुनिया में हर जगह देखा गया है कि लोगों की आय बढ़ने के साथ खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम और प्रोटीन की बढ़ने लगती है। भारत में भी यही हो रहा है। यहां भी शहरीकरण के साथ लोगों की आय बढ़ रही है। यहां दूध लोगों के लिए प्रोटीन का बड़ा स्रोत है। नॉनवेज नहीं खाने वालों के लिए प्रोटीन का सबसे अच्छा स्रोत संभवतः दूध ही है। अभी हम दूध उत्पादन बढ़ा रहे हैं, तो डिमांड भी बढ़ रही है।

निर्यात से पहले हमें यह देखना होगा कि अपने लोगों की जरूरत पूरी करें। जब उत्पादन अधिक होगा और किसानों को दाम कम मिलेंगे तब हमें वैल्यू एडेड प्रोडक्ट बनाने और निर्यात के बारे में सोचना पड़ेगा। हालांकि हम उस पर भी अभी से विचार कर रहे हैं। अभी विश्व बाजार में हमारी हिस्सेदारी एक प्रतिशत के आसपास है। इसे 2047 तक 10 प्रतिशत तक ले जाने पर काम कर रहे हैं। उसमें क्वालिटी को लेकर कोई समस्या आएगी तो उसका समाधान भी करेंगे।

सवाल (ऑडियंस)- बाजार में ऑर्गेनिक दूध को लेकर अनेक दावे किए जा रहे हैं। उपभोक्ता कैसे पता लगाए?

मीनेश- सरकार ने हाल ही नेशनल कोऑपरेटिव ऑर्गेनिक लिमिटेड (NCOL) का गठन किया है। यह मल्टी स्टेट कोऑपरेटिव है। इसका उद्देश्य दूध समेत सभी तरह के कृषि उत्पादों को ऑर्गेनिक की छत के नीचे लाना है। एक बेहतर सिस्टम हो जिससे उपभोक्ता को पता चले कि हमें ऑर्गेनिक कैसे खरीदना है। दूध के मामले में यह मुश्किल है क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि पशु को कैसा आहार दे रहे हैं। आज ऐसी बहुत कम जगह है जहां आप वास्तव में ऑर्गेनिक दूध उत्पादन कर सकते हैं। भारत सरकार, एफएओ और एनडीडीबी मिलकर ऑर्गेनिक के मानक बना रहे हैं, अभी इसका कोई मानक नहीं है। इसलिए उपभोक्ताओं को मार्केटिंग के हर दावे पर यकीन नहीं करना चाहिए।

दलहन-तिलहन को बढ़ावा देना जरूरी

ममता- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत लोगों को अनाज उपलब्ध कराया जा रहा है। इसका महंगाई और किसानों को उनकी उपज की कीमत पर क्या असर देखते हैं?

सिराज- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सरकार सिर्फ गेहूं और चावल उपलब्ध कराती है और इन्हीं की खरीद भी करती है। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत हम प्रोटीन का वितरण नहीं करते, यह वितरण पोषण के लिहाज से पर्याप्त नहीं है। कुछ राज्य अपनी तरफ से राशन की दुकानों के माध्यम से दाल बेचते हैं। जहां तक किसानों की बात है तो गेहूं और चावल के किसानों को ही फायदा मिलता है क्योंकि सरकार उनसे यही खरीदती है।

मध्य प्रदेश में आज सोयाबीन के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे हैं। वहां किसान अगले साल सोयाबीन की जगह धान उगाने की बात कह रहे हैं। पिछले साल विधानसभा चुनाव के समय राजनीतिक दलों ने धान खरीद पर बोनस देने का वादा किया, उसे लागू भी किया गया, लेकिन उन्होंने दालों या तिलहन पर बोनस का वादा नहीं किया। जब राजनीतिक दल सिर्फ धान पर बोनस देने का वादा करेंगे तो किसान भी वही उगाएंगे। जरूरी है कि सरकार दालों के उत्पादन को भी सपोर्ट करे। सरकार ने दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य काफी बढ़ाया है, यह इस दिशा में प्रयास है। लेकिन दालों की उत्पादकता भी कम है। मानसून अच्छा रहने के कारण इस साल किसानों ने दालों की बुवाई अधिक की है। खासकर तूर (अरहर) और मूंग की। अब अगर इन दालों के दाम गिरते हैं तो जाहिर है किसान निराश होंगे।

किसान का सुझाव

हम तो यह देखते हैं कि किस फसल का दाम ज्यादा है। जिसका दाम अधिक होता है अगले साल उसी की बुवाई कर देते हैं, लेकिन अगले साल उसके दाम गिर जाते हैं। जैसे पिछले सीजन में जीरे का दाम बढ़ा तो राजस्थान में हमने जीरे की बुवाई अधिक की, लेकिन इस साल दाम गिर गए। इसकी कोई नीति हो, हमें बताया जाए कि क्षेत्र के हिसाब से कौन सी फसल अच्छी हो सकती है। उत्तर की पैदावार की दक्षिण में खपत हो जाए, पश्चिम की पैदावार की पूरब में खपत हो जाए और भाव भी अच्छे मिलें।

सवाल (ऑडियंस)- गांव में बायोगैस प्लांट लगाने के लिए सरकार क्या मदद देती है?

मीनेश- इसके लिए वॉटर सैनिटेशन विभाग की एक गोवर्धन स्कीम है। उसमें किसान गोबर गैस के छोटे प्लांट लगा सकते हैं। एमएनआरई की स्कीम में भी इसका प्रावधान है। बड़े प्लांट के लिए एनडीडीबी ने अपनी सब्सिडियरी एनडीडीबी मृदा लिमिटेड बनाई है। जापान की सुजुकी कंपनी भी इसमें निवेश करने वाली है। हमारी कोशिश है कि गांव के स्तर पर ही सीएनजी बने और वहीं वाहनों में इसका उपयोग हो। अभी गांव वालों को सीएनजी भरवाने के लिए शहर में आना पड़ता है। अभी बनासकांठा में पांच प्लांट लग रहे हैं। उसके बाद बाकी जगहों पर भी ऐसे प्लांट लगाए जाएंगे।