प्राइम टीम, नई दिल्ली। भारत प्रोटीन की कमी वाला देश है। शाकाहारी के लिए दूध और इसके उत्पाद तथा मांसाहारी के लिए अंडा और चिकन प्रोटीन का प्रमुख स्रोत बनते जा रहे हैं। देश में पशुओं की दूध उत्पादकता बढ़ाने के साथ कम फीड में चिकन तैयार करने पर लगातार शोध चल रहे हैं। इसमें काफी हद तक कमयाबी भी मिली है। वर्ष 2009 से अभी तक पशुओं की दूध उत्पादकता 35% से 40% बढ़ी है। पशु 300 दिन में पहले 1600 लीटर दूध देते थे, अब 2500 लीटर दे रहे हैं। इसको 3500 लीटर करने का लक्ष्य है। देश की पोल्ट्री इंडस्ट्री भी हर साल 8% से 10% की दर से बढ़ रही है। जागरण एग्री पंचायत के दूसरे सत्र का विषय ‘डेयरी और पशुपालन से किसानों की आय बढ़ाना’ था। इसमें आईसीएआर के मेरठ स्थित केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान (ICAR-CIRC) के डायरेक्टर डॉ. अशोक कुमार मोहंती, ICAR-NDRI करनाल में एनिमल बायोकेमिस्ट्री डिवीजन के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और हेड डॉ. सुनील कुमार ओंटेरु और पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया के ट्रेजरर तथा ऑल इंडिया पोल्ट्री ब्रीडर्स एसोसिएशन के एक्जीक्यूटिव मेंबर रिकी थापर ने हिस्सा लिया। सत्र को मॉडरेट किया जागरण न्यू मीडिया के सीनियर एडिटर एस.के. सिंह ने। चर्चा के दौरान विशेषज्ञों ने कहा कि उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक हर स्तर पर इनोवेशन की जरूरत है ताकि उत्पादन लागत कम हो और आमदनी बढ़े।

मॉडरेटरः दूध उत्पादन तो बढ़ रहा है, लेकिन उत्पादन बढ़ने की दर घट रही है। यह 2017-18 में 6.62% थी जो 2022-23 में सिर्फ 3.83% रह गई। यह कम क्यों हुई और इसे बढ़ाने के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं?

डॉ. अशोक कुमार मोहंतीः उत्पादन तेजी से बढ़ता है तो उसको बरकरार रखना मुश्किल हो जाता है। इसलिए शुरू में तो ग्रोथ रेट अधिक दिखती है, लेकिन बाद में उसके बढ़ने की दर कम हो जाती है। हालांकि कुल उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। अभी भारत में 19 करोड़ गायें हैं। उनमें से 74% देसी नस्ल की और बाकी 26% क्रॉस ब्रीड हैं, लेकिन 74% देसी गायें सिर्फ 37% दूध देती हैं। हमारा प्रयास इनकी उत्पादकता बढ़ाना है। भारत में 6-7 प्रमुख ब्रीड हैं। साहिवाल, गिर, रेड सिंधी, थारपारकर, कांकरेज आदि। ब्रीड डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में हम अच्छे सांड का सीमेन लेते हैं और उससे पैदा होने वाली बछिया का उत्पादन देखते हैं। उससे आगे फिर जन्म लेने वाली बछिया का उत्पादन स्तर और अधिक होगा। इसे प्रोजेनी टेस्टिंग कहते हैं, इसे हम पूरे देश में चला रहे हैं। वर्ष 2009 से अभी तक पशुओं की उत्पादकता 35% से 40% बढ़ गई है। पशु 300 दिन में पहले 1600 लीटर दूध देते थे, अब 2500 लीटर दे रहे हैं। इसको 3500 लीटर करने का लक्ष्य है।

केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान में क्रॉस ब्रीड गायों पर भी काम हो रहा है। पहली बार देश में होल्सटीन और साहिवाल का क्रॉस तैयार किया जा रहा है। कुछ दिनों में यह रजिस्टर्ड ब्रीड हो जाएगी। देश के कुल दूध उत्पादन में गायों का योगदान 52% है और उसमें 57% क्रॉस ब्रीड से आता है। हम जो नई ब्रीड तैयार कर रहे हैं उससे आगे उत्पादन और बढ़ेगा।

मॉडरेटरः दूध की तरह अंडों का भी उत्पादन बढ़ रहा है, लेकिन प्रोडक्टिविटी में गिरावट आई है। इसका क्या कारण है?

रिकी थापरः पोल्ट्री इंडस्ट्री हर साल 8% से 10% की दर से बढ़ रही है, जबकि कृषि की ग्रोथ सिर्फ दो प्रतिशत है। प्रधानमंत्री किसानों की आय दोगुनी करने की बात कहते हैं। एनिमल हसबेंडरी से किसान अपनी आय दोगुनी कर सकते हैं। चाहे वह पोल्ट्री हो, डेयरी, एक्वा फार्मिंग या बीकीपिंग हो। अभी पोल्ट्री इंडस्ट्री में 60 लाख लोग काम कर रहे हैं। हर साल 5.5 अरब ब्रॉयलर का उत्पादन होता है। अगर हम लेयर्स (अंडा देने वाली मुर्गी) की बात करें तो उनकी संख्या 30 करोड़ सालाना है। पोल्ट्री इंडस्ट्री कृषि को भी सपोर्ट करती है क्योंकि इसमें 65% लागत फीड की है। फीड में 25% सोया मील और 55% से 60% मक्का रहता है।

भारत में प्रति व्यक्ति खपत अंतरराष्ट्रीय स्तर से बहुत कम है। यह 103 अंडे सालाना और 7.4 किलो ब्रायलर चिकन मीट है। इससे पता चलता है कि पोल्ट्री इंडस्ट्री में आगे बढ़ने की कितनी गुंजाइश है। भारत प्रोटीन की कमी वाला देश है, नॉन वेज खाने वालों के लिए अंडा और चिकन प्रोटीन का अच्छा स्रोत है। अब तो अनेक शाकाहारी भी अंडा खाने लगे हैं।

मॉडरेटरः भारत में दूध उत्पादन की लागत अधिक मानी जाती है। लागत कम करने से किसान की आय बढ़ सकती है। इसके लिए क्या काम हो रहा है?

डॉ. सुनील ओंटेरुः डेयरी में उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक हर स्तर पर इनोवेशन की जरूरत है ताकि उत्पादन लागत कम हो और आमदनी बढ़े। भारत में बड़ी संख्या में किसान डेयरी पर निर्भर हैं और उनमें ज्यादातर छोटे किसान हैं, जिनके पास एक या दो पशु होते हैं। अगर किसान अपने मवेशी के व्यवहार को ठीक से समझें तो उनका खर्च कम हो सकता है। उदाहरण के लिए अगर गाय या भैंस के हीट यानी गर्मी में आने की बात करें, तो अक्सर किसान इस हीट स्ट्रेस को नहीं समझ पाते हैं। अगर किसान के पास ऐसा किट हो जिसका इस्तेमाल करके वह जान सके कि उसका पशु हीट स्ट्रेस में है या नहीं, तो इसका उसे लाभ होगा। अगर किसान को पशु के हीट स्ट्रेस में आने का पता नहीं चलता है तो उसे 21 दिनों तक इंतजार करना पड़ेगा, अर्थात उसे 21 दिनों तक दूध नहीं मिलेगा जबकि इस दौरान उसे पशु के रख-रखाव पर खर्च तो करना ही है। हम खासकर छोटे किसानों के लिए ऐसा किट बना रहे हैं जिससे पता चलेगा कि उसका पशु हीट स्ट्रेस में है, भले ही उसमें उसके लक्षण नहीं दिख रहे हों। जांच में लक्षण दिखने पर वह उसका आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन करा सकता है। लार या मूत्र की एक बूंद से यह टेस्ट किया जा सकता है।

बीमारी का समय पर इलाज हो तो उससे भी किसान की लागत कम होगी। मैस्टाइटिस बीमारी से पशुओं की दूध देने वाली ग्रंथि में सूजन आ जाती है, जिसके इलाज में काफी खर्च आता है। हम ऐसा किट तैयार कर रहे हैं जिससे सब-क्लीनिकल मैस्टाइटिस का पता लगाया जा सके। यानी पशु में लक्षण नहीं होने के बावजूद उनमें मैस्टाइटिस हो सकता है। अगर किसान को बीमारी का पता चलता है तो वह तत्काल पशु को डॉक्टर के पास ले जाएं।

सवाल (ऑडियंस): कई बार पशु का गर्भाशय किसी वजह से खराब हो जाता है और गर्भ नहीं ठहरता। उस पशु का कोई उपयोग नहीं रह जाता है। क्या कोई तरीका है जिससे गाय या भैंस का गर्भाशय दोबारा ठीक हो सके?

डॉ. सुनीलः कई बार गाय या भैंस का बच्चे को जन्म देने के बाद उचित इलाज नहीं होता है। उसके यूटेरस में बैक्टीरिया का संक्रमण हो जाता है। शुरू में इसके लक्षण नहीं दिखते हैं, लेकिन इसके कारण आगे उसमें गर्भ नहीं ठहरता है। वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि संक्रमण का समय रहते पता लगाया जा सके ताकि पशु का इलाज किया जा सके, भले ही उसके लक्षण नहीं दिख रहे हों। फिलहाल जांच के कुछ तरीके हैं। पशु के रक्त की जांच से इसका पता लगाया जा सकता है।

डॉ. मोहंतीः इसको तकनीकी भाषा में सब-क्लिनिकल एंडोमेट्राइटिस कहते हैं। दरअसल, गर्भाशय खराब नहीं होता, उसमें इंफेक्शन हो जाता है जिससे गाय या भैंस में प्रेग्नेंसी नहीं हो पाती है। इसके लिए टेस्ट अभी पूरी तरीके से डेवलप नहीं हुआ है। वेटरनरी डॉक्टर एंटीबायोटिक देकर उसका इलाज करते हैं। यह समस्या होने पर सामान्य तरीके से आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन करने पर गाय गर्भवती नहीं होती। इसलिए आजकल नेचुरल लिक्विड सीमेन देते हैं। सामान्य आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन डोज 20 मिलियन का होता है, लेकिन नेचुरल सीमेन में 600 से 800 मिलियन होता है। जब सांड का लिक्विड सीमेन सीधे देंगे तो हो सकता है गाय गाभिन हो जाए।

मॉडरेटरः रिकी जी, बात बीमारी की हो रही है। पोल्ट्री में भी बीमारी फैलने का काफी डर रहता है। हाल में ओडिशा में मुर्गियों की कलिंग चल रही थी। उनमें एवियन इन्फ्लूएंजा बीमारी बार-बार होती है जिससे किसानों को बहुत नुकसान होता है। इसको कैसे कम किया जाए?

रिकी थापरः अगर हम अपनी पोल्ट्री फार्मिंग वैज्ञानिक तरीके से करेंगे, बायो सिक्योरिटी का ध्यान रखेंगे, नियमित रूप से स्प्रे करेंगे तो हम पोल्ट्री के ‘पी फॉर प्रॉब्लम्स’ को ‘पी फॉर प्रॉफिट’ बना सकते हैं। आज हमारा किसान बहुत समझदार है। उसे मालूम है कि एक ब्रॉयलर 35 दिन में दो किलो का हो जाता है। वह अच्छी क्वालिटी की फीड इस्तेमाल करता है, अच्छे चिक्स (चूजे) लेता है। उसके लिए फीड कन्वर्जन रेशियो (कितनी फीड खाकर वह कितने ग्राम का तैयार हुआ) महत्वपूर्ण होता है। अब फार्म लेवल पर बायो सिक्योरिटी काफी अच्छी हो गई है। ज्यादातर लो पैथोजेनिक एवियन इन्फ्लुएंजा संक्रमण बैकयार्ड पोल्ट्री में आता है। हम हर साल 5.5 अरब ब्रॉयलर तैयार करते हैं, लेकिन बैकयार्ड पोल्ट्री में सिर्फ तीन करोड़ तैयार होते हैं। वहां वैक्सीनेशन नहीं होती, उचित देखभाल नहीं हो पाती, वहां ऐसे लो पैथोजेनिक एवियन इन्फ्लुएंजा की समस्या आ जाती है।

वैज्ञानिक तरीके से पोल्ट्री फार्मिंग में चिक्स और फीड देने वाली कंपनी किसान के फार्म पर सर्विस भी देती है। वे बायो सिक्योरिटी का ध्यान रखते हैं, नियमित स्प्रे करते हैं। सैंपल लेकर देखा जाता है कि कौन सा एंटीबायोटिक इस्तेमाल करना है। अब हम भी कोशिश कर रहे हैं कि एंटीबायोटिक कम से कम प्रयोग हो। पोल्ट्री में होम्योपैथी और आयुर्वेद काफी चल रहा है। संक्रमण की समस्या रहेगी, लेकिन वह बैकयार्ड में ज्यादा रहेगी। ऑर्गेनाइज्ड पोल्ट्री में बीमारी का प्रतिशत बहुत कम है।

मॉडरेटरः ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को डेवलप करने में क्या प्रगति हो रही है?

डॉ. सुनीलः अभी हमने उत्पादन लागत घटाने और उत्पादकता बढ़ाने पर चर्चा की थी। मान लीजिए पशु ने एक किलो फीड खाया और 800 मिली दूध दिया। इसका मतलब है कि वह पशु काफी एफिशिएंट है। पोल्ट्री की तरह यहां भी फीड कन्वर्जन रेशियो देखा जाता है। यह पशु के जेनेटिक्स से तय होता है। कम चारा खाकर अधिक दूध देने वाले पशुओं का चयन जेनेटिक तरीके से किया जा सकता है। देसी या क्रॉस ब्रीड में कुछ पशु इस लिहाज से काफी सक्षम हैं। हम उन पशुओं को अगली पीढ़ी के लिए माता-पिता के रूप में चुन सकते हैं, ताकि एक अलग तरह की नस्ल विकसित कर सकें। डीएनए आधारित यह जेनेटिक सेलेक्शन दूसरे देशों में भी किया जा रहा है।

मॉडरेटरः आदर्श फीड कन्वर्जन रेशियो क्या होना चाहिए?

डॉ. सुनीलः यह अलग-अलग होता है। देश में कम उत्पादकता वाले पशु हैं और अधिक उत्पादकता वाले भी। पशु के चयन के लिए कुछ जेनेटिक मार्कर होते हैं। पिछले सत्र में डॉ. मीनेश शाह ने जीनोमिक सेलेक्शन का जिक्र किया था। यह एक तरह का टूल है जिससे हम अच्छे फीड कन्वर्जन रेशियो के लिए सर्वश्रेष्ठ सांड और गाय का चयन कर सकते हैं। इसमें पूरे डीएनए का विश्लेषण किया जाता है। दूसरा तरीका है डायरेक्ट मार्कर। इसमें एक या दो मार्कर के आधार पर विश्लेषण किया जाता है।

मॉडरेटरः अभी तक इसके नतीजे कैसे रहे हैं?

डॉ. मोहंतीः यह अलग-अलग पशुओं में अलग होता है। मान लीजिए 100 पशुओं में 10 ऐसे हैं जो कम चारा खाकर ज्यादा दूध दे रहे हैं। बाकी ऐसे हैं जो ज्यादा खाकर भी कम दूध दे रहे हैं। हम ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को चुनते हैं और उनके जीन का विश्लेषण करते हैं। जैसा कि डॉ मीनेश शाह ने कहा था, जानवर जो चीजें खाते हैं उनमें से अनेक चीजें हम भी खाते हैं। इसलिए हम यह कोशिश कर रहे हैं कि पशु कम खाकर अधिक दूध दें। बेहतर फीड कन्वर्जन रेशियो के लिए रेसिडुअल फीड इनटेक (आरएफआई) शोध हो रहा है। एक समय ऐसा आएगा जब पशुओं की संख्या कम होगी, लेकिन दूध उत्पादन अधिक होगा। यह सिर्फ गाय या भैंस में नहीं, बल्कि सूअर में, पोल्ट्री में भी चल रही है। बकरियों में यह समस्या ज्यादा नहीं है।

मॉडरेटरः आपने गिर, साहीवाल, रेड सिंधी, कांकरेज जैसी नस्लों के नाम लिए थे। किसान नस्ल का चुनाव कैसे करे?

डॉ. मोहंतीः देश में 15 एग्रो क्लाइमेटिक जोन हैं। हर क्लाइमेट में हर जानवर बढ़ नहीं सकता। उत्तर भारत में ज्यादातर साहिवाल और रेड सिंधी होते हैं। पश्चिमी भारत में देखें तो गुजरात गिर और कांकरेज के लिए बेहतर है। साहिवाल ब्रीड पंजाब से शुरू होकर हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तक पाया जाता है। अभी इसे दूसरे प्रदेश में भी ले जाया जाने लगा है।

आपने पूछा कि चयन कैसे करेंगे। पहले तो लोग मानते थे कि यह पशु अच्छा दिखता है तो बढ़िया ही होगा। बाद में पता चलता था कि वह दूध कम दे रहा है। आजकल जीनोमिक सिलेक्शन किया जाता है। इसमें पता होता है कि जो बच्चा हम लेंगे उसका सांड (पिता) कौन है। उस सांड का रिकॉर्ड होगा कि पहले उसके सीमेन से पैदा हुई बछिया कितना दूध देती थी। पशु खरीदते समय उसके पिता का रिकॉर्ड देखिए।

आपने एक और सवाल किया कि किस इलाके में कौन सी नस्ल बेहतर होगी। इसका जवाब कठिन है। लेकिन इतना जरूर कह सकते हैं कि उत्तर भारत का ब्रीड उत्तर भारत में ही बेहतर उत्पादन देगा। जो पशु जिस क्षेत्र के लिए है उसे वहीं रखना चाहिए। आप साहिवाल को दक्षिण भारत में लेकर जाएंगे तो हो सकता है दूध उत्पादन कुछ कम हो। गिर गाय गुजरात में तो अच्छा उत्पादन करती है, लेकिन दूसरी जगहों पर उसका उत्पादन कम हो जाता है। कांकरेज बहुत अच्छा ब्रीड है, उस नस्ल की गाय ज्यादा खाती भी नहीं। वह राजस्थान और गुजरात में बहुत दूध देती है, लेकिन उत्तर भारत में हो सकता है कम दे।

भारत में 70% जानवर नॉन-डिस्क्राइब्ड हैं, उनकी ब्रीड के बारे में कुछ नहीं पता। भारत में 52% गायें नॉन-डिस्क्राइब्ड हैं। उनका आकार छोटा होता है, दूध भी कम देती हैं। अगर साहिवाल, थारपारकर, गीर का सीमेन उनमें इस्तेमाल किया जाए तो जो बछिया होगी वह ज्यादा दूध देगी। कुल मिलाकर देखें तो भैंस, क्रॉस ब्रीड गाय और देसी गाय, तीनों को एक साथ रखेंगे तो किसानों को फायदा होगा।

सवाल (ऑडियंस): आपने कहा कि सांड पर निर्भर करेगा कि उससे पैदा होने वाली बछिया आगे चलकर कितना दूध देगी। हमारे इलाके (राजस्थान) में कहा जाता है कि उसमें नानी का स्वभाव आएगा। यह बात सही है या गलत?

डॉ. मोहंतीः गाय में गुण तो दोनों परिवार के रहते हैं, लेकिन जब हम दूध की बात करते हैं तो प्रोडक्शन परफॉर्मेंस सीमन से देखा जाता है। स्वभाव तो नानी का आ सकता है, नाना का भी आ सकता है क्योंकि जीन तो उनका है ही। सीमन की एक ब्रीडिंग वैल्यू होती है। जिसकी ब्रीडिंग वैल्यू अधिक होगी, उससे पैदा होने वाली बछिया के ज्यादा दूध देने की संभावना होगी।

मॉडरेटरः पोल्ट्री की लगभग 75% डिमांड शहरी इलाकों में है। देश में शहरीकरण बढ़ रहा है और लोगों की आय भी बढ़ रही है। दूसरी तरफ हमारा पोल्ट्री एक्सपोर्ट भी बढ़ रहा है। क्या हमारा पोल्ट्री उत्पादन उस गति से बढ़ रहा है या कुछ अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है?

रिकी थापरः जैसा मैंने पहले कहा, हम सालाना 8 से 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं। आने वाले समय में हमारी ग्रोथ और बढ़ेगी क्योंकि शहरीकरण बढ़ रहा है। ब्रॉयलर मीट और अंडों की डिमांड ज्यादा है। खास तौर पर जब से ऑनलाइन खरीदारी के ऐप आए हैं। शहरों में लोगों की इनकम भी बढ़ी है। इनकम बढ़ने पर व्यक्ति सेहत को लेकर सजग हो जाता है। वह सेहतमंद खाना चाहता है। प्रोटीन की जरूरत को देखते हुए अंडों और चिकन की खपत बढ़ रही है। इसमें एनिमल हसबेंडरी डिपार्टमेंट का भी बहुत सहयोग है। मिडडे मील में भी अब अंडों को रखा जा रहा है। इस तरह आने वाले समय में खपत और बढ़ेगी।

पड़ोसी देशों श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर को यहां से निर्यात भी हो रहा है। हम मस्कट, ओमान भी भेज रहे हैं। यहां से शिपमेंट का टाइम काफी कम होता है। अगर वे देश ब्राजील या अमेरिका से मंगवाते हैं तो 30 से 45 दिन लगते हैं, जबकि हम तीन दिन में एयरलिफ्ट करके उनको दे सकते हैं।

इसको प्रमोट करने के लिए सरकार ने एनिमल हसबेंडरी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड बनाया है। कोई अगर नई यूनिट लगाता है तो इस फंड से उसे ब्याज में 3% की छूट मिलती है। पशुपालन मंत्री ललन सिंह, राज्य मंत्री एसपी सिंह बघेल, सचिव अल्का उपाध्याय और जॉइंट सेक्रेटरी डॉ. ओपी चौधरी सबका पोल्ट्री इंडस्ट्री को पूरा सहयोग है। हम उनका धन्यवाद करते हैं।

सवाल (ऑडियंस): मैं उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूं। हम भैंस खरीदने किसी मेले या बाजार में जाते हैं तो बेचने वाला व्यापारी हमें मुर्रा नस्ल की बता कर देता है। हम चार पशु लेकर आए तो उनमें से दो अच्छी निकलती है। खाना तो सब एक जैसी खाती हैं लेकिन कोई 5 लीटर दूध देती है तो कोई 12 लीटर। क्या शरीर की बनावट से उसे पहचान सकते हैं?

डॉ. मोहंतीः सही चुनाव तो जेनेटिक तरीके से ही किया जा सकता है। चेहरा देख कर आप सटीक नहीं बता सकते। फिर भी, पहचान देखें तो मुर्रा भैंस की सींग घुमावदार होती है, उसके चेहरे पर ज्यादा बाल नहीं होते। एक्सपर्ट भी यही देख कर अंदाजा लगाते हैं। लेकिन वास्तव में जेनेटिक एनालिसिस से ही पता चलता है कि उसमें मुर्रा का कितना अंश है और दूसरी नस्ल का कितना। इसलिए खरीदने से पहले सांड के सीमन की ब्रीडिंग वैल्यू पूछिए। वैल्यू ज्यादा है तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि भैंस अधिक दूध देगी।