जागरण एग्री अवार्ड पाने वाले किसानों ने बताए नए प्रयोग, कैसे मोती, खजूर और ड्रैगन फ्रूट से बढ़ी उनकी कमाई
जागरण एग्री पंचायत के एक सत्र में उन किसानों के साथ चर्चा की गई जिन्हें अवार्ड के लिए चुना गया था। इनमें मोतियों की खेती करने वाले अशोक मनवानी खजूर की खेती करने वाले सदूला राम चौधरी इनोवेटिव किसान नरेंद्र सिंह मेहरा और ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले छत्तीसगढ़ के वैभव चावडा शामिल थे। उन्होंने बताया कि उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कैसे उनका समाधान निकाला।
जागरण प्राइम, नई दिल्ली। जागरण एग्री पंचायत के एक सत्र में उन किसानों के साथ चर्चा की गई जिन्हें अवार्ड के लिए चुना गया था। इनमें मोतियों की खेती करने वाले अशोक मनवानी, खजूर की खेती करने वाले राजस्थान के सदूला राम चौधरी, कृषि में कई इनोवेशन करने वाले उत्तराखंड के नरेंद्र सिंह मेहरा और ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले छत्तीसगढ़ के वैभव चावडा शामिल थे। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि अब तक की यात्रा में उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और उन्होंने कैसे उनका समाधान निकाला। चर्चा के मुख्य अंश-
मॉडरेटर - अशोक जी, आपको मोती की खेती का आइडिया कहां से आया?
अशोक मनवानी - मैंने एक ब्रिटिश आर्टिकल में इसके बारे में पढ़ा था। मैं 27 साल से मोती की खेती कर रहा हूं। मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से मोती की प्राकृतिक खेती की पढ़ाई की है। सीप के करीब 300 प्रोडक्ट हमने बनाए हैं। मछली के तालाब के साथ मोती की खेती आसानी से की जा सकती है। कोई भी इसे कर सकता है। एक मोती में 20 से 30 रुपये का खर्च लगता है और दो साल का समय लगता है।
मॉडरेटर - सदूला राम जी, आपने खजूर की खेती किस तरह शुरू की?
सदूला राम - मैं बाड़मेर का रहने वाला हूं। हमारा रेगिस्तानी इलाका है और यह खजूर की खेती के लिए मुनासिब है। हम एक बार गुजरात गए तो देखा वहां कच्छ में खजूर की खेती होती है। उन दिनों राजस्थान में कृषि में नवाचार की बहुत बात हो रही थी। ऐसी ही एक बैठक में मैंने सुझाव दिया कि अगर कच्छ में खजूर की खेती हो सकती है तो बाड़मेर में भी हो सकती है। मेरी बात वहां के लोगों को पसंद आई। इस तरह इसकी शुरुआत हुई। हमारे इलाके में जहां तक अरब सागर की हवाएं आती हैं वहीं तक खजूर की खेती होती है, उससे आगे नहीं।
खजूर का पौधा महंगा होता है। इसकी खेती हर आदमी नहीं कर सकता। इसके पेड़ की कीमत 5000 से लेकर 7000 रुपये तक होती है। राज्य सरकार ने हमें सब्सिडी दी। दुनिया में खजूर की 400 से 500 वैरायटी हैं। मेरे पास 14-15 वैरायटी के करीब 800 पेड़ हैं। खजूर में सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि इसमें नर और मादा अलग होते हैं। इनका कृत्रिम पॉलिनेशन करना पड़ता है। हर साल और हर पेड़ पर करना पड़ता है। यह प्रक्रिया 20-25 दिन चलती है। कुछ पेड़ के फल बहुत अच्छे, मीठे होते हैं तो कुछ पेड़ों में फल ही नहीं आता। खजूर पकने में 7 महीने लगते हैं। यह प्राकृतिक तरीके से पकता है, इसमें किसी केमिकल का इस्तेमाल नहीं होता।
मॉडरेटर - नरेंद्र जी, आपने कृषि में कई तरह के इनोवेशन किए हैं। उनके बारे में बताइए।
नरेंद्र सिंह मेहरा - मैं किसान परिवार से हूं। हमारे दादाजी पिताजी को शुद्ध जमीन देकर गए थे, उसमें कोई केमिकल नहीं था। लेकिन पिताजी के समय हरित क्रांति के दौरान रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग हुआ। उससे हमारी जमीन लगातार खराब होती गई। मेरे मन में विचार आया कि भूमि, जो हमारी माता है, अगर जहरीली हो जाएगी तो उसमें पैदा होने वाला अनाज भी जहरीला होगा। वहीं से प्राकृतिक खेती का विचार आया।
मैं उत्तराखंड के हल्द्वानी का रहने वाला हूं। वहां एक समय सब्जियों की बहुत खेती होती थी। लोगों ने गेहूं और धान छोड़कर टमाटर की खेती शुरू कर दी। उन दिनों टमाटर पाकिस्तान को निर्यात होता था और अच्छे दाम मिलते थे। मुझे लगा कि भूख तो सिर्फ सब्जियों से नहीं मिटेगी, उसके लिए अनाज चाहिए। फिर मैं आरआर-21 की पछेती किस्म के गेहूं की बुवाई शुरू की। उनमें एक पौधा ऐसा था जो बाकी से बिल्कुल अलग था। मैंने उसे पर निशान लगा दिया। वहीं से इसकी खेती शुरू हुई। आज धीरे-धीरे बढ़ते हुए वह बड़े इलाके में बोया जा रहा है। पीपीवीएफआरए (Protection of Plant Varieties and Farmers' Rights Authority) ने उसका पेटेंट मेरे नाम कर दिया।
इसी तरह, पानी बचाने के मकसद से धान की सीधी बिजाई के लिए हमने एक तरीका निकाला, जिसमें गोंद कतीरा का इस्तेमाल होता है। एक एकड़ खेत में 5 किलो गोंद कतीरा डाला जाता है। यह गोंद खेत में नमी बरकरार रखने का काम करता है। मैंने धान की उन 12 प्रजातियों के बीज तलाशे जिन्हें कभी बोया जाता था। कुछ बीज दूसरे राज्यों से भी मंगाए। उन बीजों को मैंने अनुसंधान संस्थानों में जमा किया है।
मुझे पता चला कि पिथौरागढ़ में 300 साल पहले गन्ने की खेती होती थी और किसान उससे गुड़ बनाते थे। 2022 में भी करीब 150 किसान छोटे स्तर पर गन्ने की खेती कर गुड़ उत्पादन कर रहे थे। किसी रसायन का इस्तेमाल नहीं होने के कारण वह पूरी तरह जैविक गुड़ था। गन्ना विकास विभाग ने अपने अधिकारी भेजे। उन्होंने मुझे उसका बीज तैयार करने का जिम्मा दिया। वह बीज मेरे ही खेत में तैयार किया गया। उसे सैंपल के तौर पर अनेक जगहों पर बांटा गया। दो साल में ही उस गन्ने की खेती बड़े इलाके में होने लगी है। गुड़ बनाने से महिलाओं को रोजगार भी मिल रहा है।
मैंने एक बार हल्दी के पौधे लगाए और उसमें पानी की जगह जीवामृत जैसी घर में बनाई जाने वाली चीजें दीं। दो साल बाद एक गांठ से 25 किलो हल्दी निकली। यह विश्व रिकॉर्ड मेरे नाम दर्ज है।
मॉडरेटर - वैभव जी, ड्रैगन फ्रूट आज भी बहुत लोगों के लिए नया है, लेकिन आपके परिवार ने बहुत पहले इसकी खेती शुरू कर दी थी। इसका आइडिया कैसे आया?
वैभव चावडा - मेरे परदादा जी ने रायपुर (छत्तीसगढ़) में 15 एकड़ में सब्जी की खेती शुरू की थी। आज हम तीन राज्यों में अपनी और लीज की 600 एकड़ जमीन पर सब्जियों और फलों की खेती कर रहे हैं। हम लोग चार पीढ़ी से खेती कर रहे हैं और हमारी खास बात बदलाव और नई चीजों को अपनाने की रही है।
मेरे पिताजी ने 2014 में ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू की। उन्हें किसी नर्सरी में इसका पौधा मिला था। उस समय भारत में इसकी खेती नहीं होती थी। किसी किसान या यूनिवर्सिटी में जाकर उसका तरीका नहीं समझ सकते थे। इसलिए जो भी चुनौतियां आती गईं, हम अपने स्तर पर उनका निराकरण करते गए। 10 साल पहले पौधे लगाने के दो साल बाद 200 किलो फल का उत्पादन हुआ था। लेकिन अब जो दो साल पहले हमने पौधे लगाए थे, उनसे करीब सात टन का उत्पादन हुआ। इस तरह उत्पादन में इतना अंतर आया है।
आम तौर पर लोग ड्रैगन फ्रूट को कैक्टस की प्रजाति समझते हैं और मानते हैं कि इसमें पानी की जरूरत कम पड़ेगी। हमने भी पहले ऐसी जगह पौधे लगाए जहां पानी की कमी थी। लेकिन पौधा ज्यादा फल-फूल नहीं रहा था। खेत के पास से एक पाइपलाइन गुजरती थी, जिसमें लीकेज था। उसके आस-पास के पौधे काफी हरे-भरे थे और उनमें फल भी ज्यादा लगे। उससे पता चला कि कम पानी में पौधा तो शायद बच जाए, लेकिन उसमें फल उत्पादन अधिक नहीं होगा। अभी हम प्रति एकड़ औसतन 12 टन उत्पादन ले रहे हैं।
हम इसे और बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। हमें पता चला कि वियतनाम सबसे ज्यादा ड्रैगन फ्रूट का उत्पादन करता है। वहां पूरे साल उत्पादन होता है। हमने सोचा क्यों न वहां जाकर देखें। हम वहां गए तो देखा कि बड़े-बड़े खेतों में इसकी खेती होती है। वहां रात में भी खेतों में बड़ी-बड़ी लाइटें लगाकर कृत्रिम तरीके से पौधों के लिए सीजन क्रिएट कर रहे थे। छत्तीसगढ़ में अक्टूबर-नवंबर तक ही इसकी खेती होती है। वहां से सीख लेकर हम भी अपने यहां ट्रायल करने जा रहे हैं।
मॉडरेटर - अभी बात हुई बदलाव की, नई चीजों को अपनाने की। अशोक जी, आप क्या बदलाव करने जा रहे हैं?
अशोक मनवानी - अभी-अभी मुझे मेरी एक समस्या का हल मिल गया। मेरा मोती इस बार चार साल बाद आया। मैं परेशान था कि इस अवधि को कैसे कम किया जाए। वियतनाम में लाइट लगा कर खेती की बात से मुझे भी लग रहा है कि मोती की खेती में समय घटा कर दो साल कर सकता हूं। नई खोज को पकड़ने का यही लाभ होता है। हम अभी चीन से मोती आयात करते हैं। भारत में सबसे ज्यादा मोती बिहार में पाए जाते हैं। दूसरी जगहों पर भी इसकी खेती करके हम आयात कम कर सकते हैं।
मॉडरेटर - सदूला राम जी, आप बड़े पैमाने पर खजूर की खेती कर रहे हैं। उसमें क्या बदलाव देखे आपने?
सदूला राम - बदलाव खजूर के बाई प्रोडक्ट में कह सकते हैं। यूएई सरकार ने हमें 2021 में आमंत्रित किया था। वहां खलीफा इंटरनेशनल डेट फार्म अवार्ड का आयोजन किया गया था। जैम, अचार जैसे खजूर के अनेक बाई प्रोडक्ट बनते हैं। भारत में इसकी फैक्ट्रियां बहुत कम हैं। धीरे-धीरे खजूर की खेती बढ़ेगी तब शायद इंडस्ट्री विकसित हो। खजूर का मार्केट बनने के लिए जरूरी है कि लोगों को इसकी विशेषताओं का पता चले। खजूर खाने से तुरंत एनर्जी मिलती है। खजूर की अलग-अलग वैरायटी के अलग पैसे मिलते हैं। मैं 100 रुपये से 2000 रुपये किलो तक के भाव बेचता हूं।
खजूर का फल तीन साल बाद आता है। भारत में खजूर कम होने की वजह यह है कि यह जुलाई में पकता है और उसी समय मानसून पूरी तरह सक्रिय हो जाता है। खजूर कहती है ‘माय फीट इन वाटर एंड माय हेड इन फायर’। मतलब इसे गर्मी चाहिए। खजूर की खेती धैर्य का काम है। खेती में जो शांति और सुकून मिलता है वह दूसरी चीजों में नहीं मिलता।
मॉडरेटर - नरेंद्र जी, आप तो लगातार इनोवेशन करते आ रहे हैं। आप अगला चेंज क्या करने जा रहे हैं?
नरेंद्र सिंह मेहरा- कृषि यहां तक पहुंची है तो उसके पीछे इनोवेशन ही है। वैसे तो कहते हैं कि जब तक कोई काम हो नहीं जाता उसकी चर्चा होनी नहीं चाहिए। लेकिन आपने पूछा है तो मैं इसी मंच से बता देता हूं। अभी आप एक लहसुन (पूरी गांठ) से 10-12 पौधे तैयार कर सकते हैं। मैं जिस विधि पर काम कर रहा हूं, उसमें मुझे एक लहसुन से करीब 150 बीज मिल गए हैं। ये आकार में छोटे हैं। लेकिन अगर यह प्रयोग सफल रहा तो लहसुन के बीज की लागत बहुत कम हो जाएगी।
मॉडरेटर - वैभव जी, आप ग्राफ्टेड नर्सरी पर भी काम कर रहे हैं। उसके बारे में थोड़ा बताइए।
वैभव चावडा - कई बार आपने देखा होगा कि बैंगन या टमाटर के पौधे बड़े होने के बाद मुरझा कर मर जाते हैं। पर्याप्त पानी देने पर भी ऐसा लगेगा कि इसको पानी नहीं मिल रहा है। हमारे यहां यह बड़ी समस्या बन गई थी। पता चला कि यह एक बीमारी है बैक्टेरियल विल्ट (Bacterial wilt) जो मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से होती है।
मॉडरेटर - बैक्टेरियल विल्ट बीमारी के बारे में भी लोगों को बताइए।
वैभव चावडा - जमीन में अच्छे और खराब, दोनों तरह के बैक्टीरिया होते हैं। खराब बैक्टीरिया पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। बैक्टेरियल विल्ट में बैक्टीरिया जड़ और तने के बीच घर बना कर बैठ जाते हैं। पौधों के पत्तों से खाना बन कर जब नीचे आता है, तो बैक्टीरिया उसे रोक कर खुद उसे खाने लगता है। बीच में बैक्टीरिया होने से जड़ों से पानी भी ऊपर नहीं जा पाता है। इससे पौधे को पानी नहीं मिल पाता और वह मर जाता है।
हम इसके समाधान पर काम करने लगे। हमने पाया कि कुछ जंगली पौधों में उस बैक्टीरिया के लिए प्रतिरोधी क्षमता होती है, लेकिन उन पौधों में फल नहीं लगते। हमने उस जंगली पौधे और किसी सब्जी (जैसे टमाटर) के पौधे की नर्सरी तैयार की। जंगली पौधे का जड़ का हिस्सा (रूट स्टॉक) रखा और ऊपर का हिस्सा अलग कर दिया। उसी तरह टमाटर के पौधे का जड़ वाला हिस्सा फेंक दिया और ऊपर वाला हिस्सा रखा। फिर उन दोनों को जोड़ दिया। इससे पौधे में एक तरह की प्रतिरोधी क्षमता बन गई। हमने इस तरह ग्राफ्टिंग की तकनीक का बैंगन, टमाटर और मिर्च में सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। तीनों के लिए रूट स्टॉक अलग होता है। हमारी नर्सरी के पौधे लेने वाले किसानों ने बैंगन का 30 प्रतिशत अधिक उत्पादन होने की जानकारी दी है।
सवाल (ऑडियंस) - मुझे ड्रैगन की खेती के बारे में जानना है कि उसमें प्रति एकड़ कमाई कितनी है?
वैभव - हम खेती भी करते हैं और साथ ही ड्रैगन फ्रूट की नर्सरी भी उपलब्ध कराते हैं। इसमें समस्या है कि इसकी खेती सीमेंट के पोल के सहारे होती है। इसलिए यह थोड़ा खर्चीला है। शुरू में ही प्रति एकड़ लगभग 3.5 से 4 लाख रुपये का खर्च आता है। जहां तक उत्पादन की बात है तो हमने दूसरे साल में ही 7 टन उत्पादन लिया। इसका बाजार काफी ऊपर नीचे होता है। आपको 50 रुपये से 200 रुपये तक कोई भी भाव मिल सकता है। औसत देखें तो हमें ₹60 किलो का भाव मिल रहा है। चौथे पांचवें साल तक उत्पादन अधिकतम स्तर पर पहुंच जाता है। मैंने 12 टन तक का उत्पादन लिया है। यह मैं रायपुर (छत्तीसगढ़) में अपने इलाके की बात कह रहा हूं, जहां तापमान 42-43 डिग्री तक जाता है। बेंगलुरु में भी ड्रैगन फ्रूट की खेती अच्छी होती है जहां तापमान मुश्किल से 35 डिग्री से ऊपर जाता है। वहां उत्पादन 18 टन तक होता है।
सवाल (ऑडियंस) - सीमेंट के पोल की जगह क्या बांस के पोल लगा सकते हैं?
वैभव - यह सवाल बहुत से किसानों का रहता है कि सीमेंट के पोल की जगह बांस के पोल या लोहे की पाइप लगा सकते हैं? क्या पोल के ऊपर सीमेंट की चखरी की जगह टायर लगा सकते हैं? ड्रैगन फ्रूट का पौधा 20 से 25 साल तक चलता है। ड्रैगन की खेती के लिए पोल जरूरी है। बांस या लोहा 25 साल तक नहीं रहेगा। वह 5-6 साल में सड़ जाएगा। उस समय ड्रैगन फ्रूट का उत्पादन अधिकतम स्तर पर होगा। मान लीजिए 12 टन का उत्पादन हो रहा है और अगर पौधा गिर गया तो क्या होगा। वह पौधा ही खत्म हो जाएगा।