नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण बार-बार लगने वाले मौसम के झटके मौद्रिक नीति के लिए चुनौतियां पैदा करते हैं। इससे आर्थिक वृद्धि के लिए भी जोखिम भी पैदा होते हैं। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति रिपोर्ट – अप्रैल 2024 में कहा गया है कि वैश्विक औसत तापमान बढ़ रहा है और चरम मौसम की घटनाओं (ईडब्ल्यूई) में भी वृद्धि हो रही है। वैश्विक ताप वृद्धि का आर्थिक और सामाजिक प्रभाव तेजी से स्पष्ट हो रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन ने मौसम के झटकों की संख्या और तीव्रता को बढ़ा दिया है, जिससे मौद्रिक नीति के लिए चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। एक तरफ जहां जलवायु परिवर्तन ने हमारे स्वास्थ्य पर असर डाला है तो दूसरी तरफ हमारी इकोनॉमी की सेहत को भी क्लाइमेट चेंज प्रभावित कर रहा है। जर्मनी के पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिकों ने अपने एक नए अध्ययन में सामने आया कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के अधिकांश क्षेत्रों में कमाई में 20 से 25 फीसदी की गिरावट आ सकती है तो वहीं नेचर पत्रिका में छपा एक शोध बताता है कि इससे काम की उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले सालों में जीडीपी पर प्रभाव पड़ सकता है।

आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1901 के बाद से किसी भी अन्य 20-वर्षीय समय अंतराल की तलना में पिछलेबीस वर्षों के दौरान बढ़ोतरी काफी तेज रही है। न्यूनतम और अधिकतम तापमान के दृष्टिकोण से 1901-2021 के दौरान वार्षिक औसत तापमान में प्रति सौ सालों में 0.63 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी देखी गई, जबकि अधिकतम तापमान में प्रति सौ सालों में 0.99 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। न्यूनतम तापमान में प्रति 100 वर्षों में 0.26 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। 1901 के बाद से भारत में 15 सबसे गर्म वर्षों में से 11 वर्ष 2007-2021 के दौरान रहे हैं। इसके अलावा 1901 के बाद से 2022 और 2021 रिकॉर्ड तौर पर पांचवें और छठे सबसे गर्म वर्ष रहे हैं, जिसमें वार्षिक औसत तापमान 1981-2010 के औसत स्तर से क्रमश:0.51 डिग्री सेल्सियस और 0.44 डिग्री सेल्सियस ऊपर है। 1901 के बाद से 2016 भारत के लिए अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है।

आरबीआई की रिपोर्ट की अनुसार यदि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियन के मुकाबले 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है, तो ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों के साथ भारत को आर्थिक विकास में कमी का उच्च जोखिम का सामना करना पड़ता है। भारत में बढ़ते तापमान और मानसूनी वर्षा के बदलते पैटर्न के माध्यम से प्रकट जलवायु परिवर्तन से अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद का 2.8 प्रतिशत नुकसान हो सकता है और 2050 तक इसकी लगभग आधी आबादी के जीवन स्तर पर असर पड़ सकता है।

बढ़ा आर्थिक नुकसान

2019 में जलवायु संबंधी घटनाओं के कारण भारत को लगभग 69 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ। 2019 के दौरान भारत में बाढ़ ने लगभग 14 राज्यों को प्रभावित किया, जिससे करीब 1.8 मिलियन लोगों का विस्थापन हुआ और 1800 मौतें हुई। कुल मिलाकर, 2019 में मानसून के दौरान तीव्र वर्षा से लगभग 12 मिलियन लोग प्रभावित हुए, जिससे लगभग 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान होने का अनुमान है।

काम की उत्पादकता पर असर

नेचर जनरल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में मौसम में हो रहे परिवर्तन की वजह से तीस फीसद काम का घाटा उठाना पड़ता है। मौसम वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अगर यहीं हालात बनें रहे तो आने वाले समय में यह नुकसान बढ़ सकता है। भारत में इसकी वजह से काम में 14 वर्किंग दिन (आकलन 12 वर्किंग घंटों के आधार पर) का नुकसान हो जाता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग्लोबल वॉर्मिंग की मौजूदा स्थिति के अनुसार सालाना 100 बिलियन घंटों का नुकसान होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिपोर्ट में वर्किंग घंटों का आकलन दिन में 12 घंटों के आधार पर किया गया है। अध्ययन में इसे सुबह सात बजे से लेकर शाम सात बजे तक माना गया है। निकोलस स्कूल ऑफ द इंवायरनमेंट, ड्यूक यूनिवर्सिटी के ल्यूक ए पार्संस ने ई-मेल के माध्यम से बताया कि भारत का लेबर सेक्टर काफी बड़ा है। ऐसे में इसका घाटा भी अधिक होगा। पार्संन ने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग में अगर आने वाले समय में दो डिग्री का ईजाफा होता है तो काम की क्षति दोगुनी यानी 200 बिलियन घंटे सालाना हो जाएगी। इससे करीब एक माह के वर्किंग घंटों का नुकसान हो जाएगा जो एक बड़ा घाटा होगा। इसका सीधा असर किसी देश की इकोनॉमी पर भी पड़ेगा। पार्संस ने चेताते हुए कहा कि मौजूदा हालातों में जिस दर से ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी हो रही है उसको ध्यान में रखते हुए हमने 4 डिग्री तापमान में बढ़ोतरी का आकलन किया है। इस स्थिति में भारत को 400 बिलियन वर्किंग घंटों का नुकसान होगा। पार्संस ने कहा कि इसके कारण भारत को 240 बिलियन डॉलर की परचेजिंग पावर पेरिटी (क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के जरिए यह पता लगाया जाता है कि दो देशों के बीच मुद्रा की क्रयशक्ति में कितना अंतर या समता है। यह करेंसी एक्सचेंज रेट तय करने में भी भूमिका निभाती है।) का नुकसान उठाना पड़ता है। अत्यधिक गर्मी और नमी की स्थिति के कारण श्रम के घंटों की हानि के कारण 2030 तक भारत की जीडीपी का 4.5 प्रतिशत तक जोखिम हो सकता है। इसके अलावा, यदि कॉर्बन उत्सर्जन की वर्तमान दर को नियंत्रित नहीं किया हया तो गर्मी की लहर 25 गुना अधिक समय तक रह सकती है, अर्थात 2036-2065 तक गंभीरता में वृद्धि हो सकती है।

इंफॉर्मेटिक्स रेटिंग्स के चीफ इकोनॉमिस्ट डा. मनोरंजन शर्मा कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज एक बड़ी समस्या है। अब यह विश्वव्यापी घटना बन चुकी है। यह इकोनॉमी को प्रभावित कर सकती है। 

गर्मी का असर पड़ा है कीमतों पर

आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि दिसंबर 2019 में प्याज की कीमतों में मुद्रास्फीति 327 प्रतिशत तक बढ़ गई। बेमौसम बारिश के कारण नवंबर 2020 में आलू की कीमतें 107 फीसद तक बढ़ी और जून 2022 में गर्मी की लहर और चक्रवात के कारण फसल क्षति के कारण टमाटर की कीमतों में 158 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

वैश्विक स्तर पर आय में 19 फीसद की हो सकती है कमी

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते 2050 तक वैश्विक आय में 19 फीसद तक की कमी हो सकती है। नेचर की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह कमी 22 फीसद तक की हो सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक वायुमंडल में मौजूद ग्रीनहाऊस गैसों और सामाजिक-आर्थिक जड़ता के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था औसतन 19 प्रतिशत आय में कमी की ओर अग्रसर है। इस कमी का असर लगभग सभी देशों में देखने को मिलेगा। भारत में यह आंकड़ा वैश्विक औसत से तीन प्रतिशत अधिक है। अगर कॉर्बन उत्सर्जन में आज से ही भारी कटौती कर ली जाए, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में 19 प्रतिशत की आय की कमी होना तय है। जर्मनी के पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपेक्ट रिसर्च के वैज्ञानिकों ने इसका आकलन किया है। अध्ययन के लेखक मैक्सिमिलियन कोट्ज का कहना है कि अधिकांश क्षेत्रों, जिनमें उत्तरी अमेरिका और यूरोप भी शामिल है, में आय में भारी कमी होने का अनुमान है। दक्षिण एशिया और अफ्रीका सबसे अधिक प्रभावित होंगे।

सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट के विवेक चट्टोपध्याय के मुताबिक प्रदूषण आपकी उत्पादकता को प्रभावित करता है क्योंकि अगर आप सेहतमंद नहीं होंगे तो कार्यक्षेत्र में बेहतर नहीं कर पाएंगे। विवेक कहते हैं कि वायु प्रदूषण को घटाने के लिए सरकार अगर सही कदम उठाए और इसको नियंत्रित कर सकें तो इससे जीडीपी को होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। रिसर्च के मुताबिक भारत के अधिकांश राज्यों में कमाई को होने वाला यह नुकसान 20 से 25 फीसदी के बीच रह सकता है। वहीं हिमाचल प्रदेश, उत्तरखंड, और अरुणाचल प्रदेश में इस नुकसान के 10 से 20 फीसदी के बीच रहने का अंदेशा है।

नुकसान लाखों करोड़ डॉलर में होगा

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट- इंडिया की क्लाइमेट प्रोग्राम डायरेक्टर उल्का केलकर ने कहा, “ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। छोटे आइलैंड देशों के लिए खतरा अधिक है। ये देश उत्सर्जन कम करते हैं, इसलिए उत्सर्जन कम करने का दारोमदार विकसित देशों पर है। जलवायु संकट का असर इन छोटे और विकासशील देशों पर ज्यादा हो रहा है। तूफान-बाढ़ जैसी आपदाओं से निपटने के लिए उन्हें अपने स्तर पर खर्च करना पड़ रहा है। इसलिए इन देशों का ‘क्लाइमेट कर्ज’ लगातार बढ़ रहा है। विकासशील देश लॉस एंड डैमेज (जान-माल को नुकसान) का भी मुआवजा चाहते हैं, जबकि विकसित देश इस पर चर्चा ही नहीं करना चाहते।”

इस साल बाढ़ से भीषण तबाही के बाद पाकिस्तान ने भी लॉस एंड डैमेज फंडिंग की बात कही है। विकासशील देशों की तरफ से लगातार बढ़ते दबाव को देखते हुए अमेरिका और यूरोप इस विषय पर चर्चा के लिए तो राजी हुए हैं, लेकिन यह संभावना कम ही है कि वे फिलहाल पैसा देने पर भी राजी होंगे। उन्हें डर इस बात का है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान आने वाले वर्षों में लाखों करोड़ डॉलर में पहुंच जाएगा। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद उपजे खाद्य और ऊर्जा संकट को देखते हुए वे देश फिलहाल अपनी अर्थव्यवस्था को ही संभालने में लगे हुए हैं।

ओईसीडी के अनुसार विकसित देशों ने 2020 तक अधिकतम 83.3 अरब डॉलर की मदद राशि दी थी। 2021 में यह राशि 85.5 और 2022 में 94.5 अरब डॉलर रहने की उम्मीद है। अगले वर्ष इसके 100 अरब डॉलर पहुंचने का अनुमान है।

प्रदूषण भी बिगाड़ रहा इकोनॉमी

प्रदूषण आपकी सेहत बिगाड़ने के साथ ही आपकी जेब भी ज्यादा जला रहा है। रिसर्च जर्नल लांसेट में छपी एक रिसर्च के मुताबिक प्रदूषण के चलते जीडीपी को होने वाला नुकसान राज्यों के हिसाब से बदलता रहता है। जैसे कम प्रति व्यक्ति जीडीपी वाले राज्य उत्तर प्रदेश (जीडीपी का 2.15 फीसद ) , बिहार (1.95 फीसद ), राजस्थान (1.70 फीसद ), मध्यप्रदेश (1.70 फीसद ) और छत्तीसगढ़ (1.55 फीसद ) में राज्य की जीडीपी को ज्यादा नुकसान हो रहा है।

ज्यादा प्रति व्यक्ति जीडीपी वाले राज्यों को कम नुकसान हुआ है। जैसे पंजाब को 1.52 फीसद और उत्तराखंड को 1.50 फीसद। राज्यों की जीडीपी को होने वाला यह नुकसान .67 से 2.15 फीसद के बीच है। वहीं दिल्ली (62 डॉलर) और हरियाणा (53.8 डॉलर) में प्रति व्यक्ति आर्थिक नुकसान ज्यादा है। । यह अध्ययन इंडियन स्टेट लेवल डिजीज बर्डन इनिसिएटिव की ओर से किया गया है।

देश में वायु प्रदूषण से हर साल 16.7 लाख लोगों की मौत होती है और अर्थव्यवस्था को करीब 2.6 लाख करोड़ रुपये (जीडीपी का 1.4 फीसद) का नुकसान होता है। यानी वायु प्रदूषण जीवन और जेब दोनों पर भारी पड़ रहा है।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने नेट जीरो कॉर्बन को लेकर सुझाए ये सुझाव

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत समेत दुनिया के शहर यह लक्ष्य कैसे हासिल कर सकते हैं। इस रिपोर्ट का नाम है- ‘नेट जीरो कार्बन सिटी: एन इंटिग्रेटेड एप्रोच’। इस रिपोर्ट में एक वैश्विक ढांचे और एक एकीकृत ऊर्जा दृष्टिकोण की सिफारिश की गई है। इसमें स्वच्छ विद्युतिकरण, स्मार्ट डिजिटल तकनीक और एफिशिएंट बिल्डिंग पर जोर दिया गया है। वहीं, पानी, कचरे और सामग्रियों के लिए सर्कुलर इकोनॉमी को अपनाना होगा। इन सबके जरिए ही शहरों को भविष्य के जलवायु और स्वास्थ्य संबंधी संकटों का सामना करने के लिए तैयार किया जा सकता है।

चुनौती क्या है

शहर में दुनिया की 50 फीसद आबादी रहती है। ये शहर दुनिया की 78 फीसद ऊर्जा का उपभोग करते हैं और दो-तिहाई कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। शॉपिंग मॉल, एसयूवी और बढ़ते एसी से ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके चलते जलवायु परिवर्तन भी तेजी से हो रहा है। वहीं एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक शहरों की आबादी कुल आबादी की 68 फीसद हो जाएगी। अगर हमने उपभोक्ता उपकरणों, जैसे एसी को बेहतर नहीं बनाया। मतलब अगर वे कम ऊर्जा में बेहतर ढंग से काम नहीं करेंगे तो 2030 तक ही बिजली की मांग में 50 फीसद की वृद्धि हो जाएगी।

तीन हैं लक्ष्य

नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए तीन मोर्चों पर काम करना होगा। पहली, ज्यादातर ऊर्जा अक्षय स्रोतों (पवन और सौर ऊर्जा) से हासिल करनी होगी। दूसरा, कार, सार्वजनिक यातायात और सारे हीटिंग सिस्टम को बिजली से चलाना होगा। तीसरा, हमें ज्यादा सक्षम तंत्र की जरूरत है। इसमें सब कुछ शामिल हैं- कारखाने, घर, परिवहन और उपभोक्ता उपकरण। सभी अधिक ऊर्जा कुशल और परस्पर जुड़े होने चाहिए। इसके लिए स्मार्ट एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर जरूरी है। स्मार्ट ऊर्जा बुनियादी ढांचे में एक किफायती, सुरक्षित बिजली वितरण ग्रिड, स्मार्ट मीटर और ई-मोबिलिटी चार्जिंग स्टेशन शामिल हैं।

डिजिटलाइजेशन

कार्बन का उत्सर्जन रोकने के लिए डिजिटलाइजेशन जरूरी है, जैसे-ऐसी तकनीक जिससे बिल्डिंग की कूलिंग और लाइटिंग को नियंत्रित किया जा सके। डिजिटल टूल से किसी फैक्ट्री को भी ज्यादा सक्षम तरीके से चलाया जा सकता है।

उत्सर्जन कम होने से भारत को होगा फायदा

भारत में ऊर्जा दक्षता से जुड़ा निवेश का अर्थशास्त्र मजबूत है। एसी की गुणवत्ता में सुधार किया जा रहा है। नए घर और ऑफिस की इमारतों को नए मानकों के आधार पर बनाया जा रहा है। वहीं ग्रीड ऑप्टीमाइजेशन पर जोर दिया जा रहा है, ताकि ट्रांसमिशन और वितरण में होने वाले बिजली के नुकसान को कम किया जा सके। इससे 2025 तक भारत का कार्बन उत्सर्जन 151 एमटी घट जाएगा। प्रदूषण घटने से 2030 तक 13 बिलियन डॉलर का फायदा होगा। वहीं 268 बिलियन लीटर पानी की खपत कम होगी।