किसान कितनी भी अच्छी फसल उगा ले, इस बात की गारंटी नहीं होती कि उसे इससे अच्छी आय भी हो जाएगी। क्योंकि ज्यादातर मामलों में ऐसा होता है कि अच्छी पैदावार होने पर फसल की कीमत इतनी गिर जाती है कि किसान को फायदा होने की जगह नुकसान हो जाता है। हम हर साल किसानों द्वारा टमाटर, प्याज, लहसुन जैसी फसलों को सड़क पर फेंकने की खबरें देखते हैं। यह बात साबित हो चुकी है कि मंडी की परंपरागत व्यवस्था किसानों को अच्छी कीमत दिलाने में कारगर नहीं है। ऐसे में कृषि उपज के लिए मार्केटिंग चैनल की जरूरत महसूस की जाती रही है और इस दिशा में अलग-अलग प्रयास भी हुए हैं। जागरण एग्री पंचायत में कमोडिटी एक्सचेंज एनसीडीईएक्स के एमडी एवं सीईओ अरुण रस्ते, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड के कुलपति प्रो. राकेश मोहन जोशी और एमएसपी एवं कृषि सुधारों पर प्रधानमंत्री उच्च अधिकार प्राप्त समिति के सदस्य बिनोद आनंद ने इस विषय पर अपने विचार रखे। जागरण प्राइम के सीनियर एडिटर स्कन्द विवेक धर ने सत्र को मॉडरेट किया।

मॉडरेटर: पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन ने पहले सेशन में जिक्र किया था कि फ्यूचर मार्केट से यह संभव हो रहा था कि किसानों को फसल की भविष्य की कीमत का अंदाजा लग जाए। लेकिन कमोडिटी फ्यूचर मार्केट को महंगाई की वजह मानते हुए प्रमुख फसलों के वायदा कारोबार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ऐसी हालत में कमोडिटी एक्सचेंज किसानों को उनकी उपज का बेहतर दाम दिलाने में कैसे मदद कर सकते हैं?

अरुण रस्ते: आपने तो मेरी दुखती रख पर हाथ रख दिया (हंसते हुए)। मैंने जून 2021 में जब एनसीडीईएक्स ज्वाइन किया तो अपना पहला दौरा मैंने मध्यप्रदेश में किया था। मुझे नहीं लगा था कि वहां किसी किसान को एनसीडीईएक्स के बारे में कुछ ज्यादा पता होगा। जब मैं एक किसान से मिला तो उसने कहा कि हम एनसीडीईएक्स को जानते हैं।

किसान ने कहा कि हम दो चीजें करते हैं। जब मैं घर जाऊंगा तो शाम को देखूंगा कि मानसून केरल में कहां तक पहुंचा है। केरल में पहुंचने के 20 दिन बाद मानसून मध्यप्रदेश में आ जाता है। दूसरा, मैं मंडी में जाकर आपका टिकर देखता हूं कि एनसीडीईएक्स में अक्टूबर में सोयाबीन का क्या भाव मिल रहा है। यदि वह भाव पिछले साल के भाव से ज्यादा हुआ तो मैं सोयबीन बोऊंगा, यदि कम हुआ तो सोयाबीन नहीं बोऊंगा।

तो उस समय किसान के पास जो रेफरेंस पॉइंट होता था, वह आज की तारीख में उसके पास उपलब्ध नहीं है। आज आप सभी लोग देख रहे होंगे कि सोयाबीन के दाम एमएसपी के नीचे चल रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि किसान के पास रेफरेंस पॉइंट नहीं है।

अगर किसान को यह पता चल जाए कि चार महीने बाद मुझे क्या दाम मिलने वाला है, तो वो तय कर सकता है कि उस फसल को बोए या नहीं। मैं चाहता हूं कि जागरण के माध्यम से कृषि मंत्री तक यह बात पहुंच जाए।

मॉडरेटर: आपने एमएसपी का जिक्र किया। इसी से जुड़ा सवाल है। हरियाणा और पंजाब के किसानों का एक बड़ा धड़ा मांग कर रहा है कि 100% फसलों की खरीदी एमएसपी पर हो। ये कितना व्यावहारिक है?

बिनोद आनंद: दुनिया के किसी भी कोने में, कोई भी विकसित देश हो, कोई भी फसल आप बता दें, जिसे वहां की सरकार शत प्रतिशत खरीदती हो। अभी फिलहाल 10 फीसदी फसलाें की खरीदी एमएसपी पर हो रही है। 15 फीसदी खरीदी एक आदर्श स्थिति है। लेकिन कौन सी फसल खरीदी जानी है, वो कुछ लोग तय नहीं करेंगे। कौन सी फसल खरीदी जानी है वो पूरे भारत के किसान तय करेंगे।

मॉडरेटर: समस्याएं तमाम हैं, लेकिन एक बात तो तय है कि ज्यादातर मामलों में किसान को उसकी फसल की सही कीमत नहीं मिलती है। एमएसपी पर शत प्रतिशत फसल नहीं खरीद सकते हैं, लेकिन कोई तो उपाय हो जिससे किसान को उसकी उपज की वाजिब कीमत मिले।

बिनोद आनंद: बिल्कुल। ऐसा होना चाहिए। इसकी कवायद जारी है। लेकिन जो बीमारी 70 साल से थी, वो एक साल में तो ठीक नहीं हो सकती। सबसे पहली बात तो ये है कि खरीदारी की व्यवस्था में पारदर्शिता होनी चाहिए। हमारे यहां मंडियों में प्राइवेट सेक्टर आ गया तो बहुत बड़ी आफत हो गई। चलिए ठीक है, प्राइवेट सेक्टर को ना लाएं। अब हमने कोऑपरेटिव इकनॉमिक फ्रेमवर्क में इसका समाधान ढूंढा है। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि 2028 तक जब ढाई लाख के आसपास पैक्स में वेयरहाउस बन कर तैयार हो जाएंगे, पैक्स को मिनी मंडी घोषित किया जाएगा और किसानों के पास फसल बेचने के लिए विभिन्न विकल्प होंगे तो उन्हें उपज की अपने आप बेहतर कीमत मिलने लगेगी।

मॉडरेटर: ऐसे समय में जब ज्यादातर प्रमुख फसलों की फ्यूचर ट्रेडिंग पर प्रतिबंध है, ऐसा कौन सा तरीका है जिससे किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिल सके?

अरुण रस्ते: प्राइस रियलाइजेशन की बात करें तो अगर किसान एक महीना देरी से अपनी फसल मार्केट या मंडी में ले जाता है तो उसका प्राइस रिलाइजेशन ज्यादा होगा। लेकिन ऐसा करने के लिए वेयरहाउसिंग और कोल्ड स्टोरेज की जरूरत होगी। किसान के पास वेयरहाउसिंग रिसीप्ट को भी मॉनेटाइज करने का विकल्प है, लेकिन अभी तक यह पॉपुलर नहीं है। जब यह पॉपुलर होगा तो किसान के पास होल्डिंग कैपेसिटी होगी।

पिछले कुछ सालों में ई-नाम और ओएनडीसी जैसी चीजें डेवलप हुई हैं। ई-नाम में पिछले कुछ सालों में करीब ढाई लाख करोड़ का ट्रांजैक्शन हुआ है। करीब 1 करोड़ 75 लाख किसान इससे जुड़े हैं। मैं मानता हूं कि यह कुल किसानों का महज 5 फीसदी है। जब यह आंकड़ा 50 फीसदी हो जाएगा तो इसका फायदा ज्यादा से ज्यादा किसानों को मिलने लगेगा।

ओएनडीसी या ई-नाम के जरिए जब एफपीओ बेचना शुरू करते हैं तो 46 से 69 फीसदी किसानों के पास डायरेक्ट पैसा आ जाता है। बीच की सप्लाई चेन की लंबाई जितनी कम करते जाएंगे किसान को उतना ज्यादा पैसा मिलना शुरू हो जाएगा।

मॉडरेटर: जब भी हम कृषि निर्यात की बात करते हैं तो इसे ट्रेडर्स या कंपनियों के नजरिए से देखा जाता है। क्या कोई तरीका है कि किसान भी निर्यात के इकोसिस्टम का हिस्सा बनकर इसका फायदा उठा सकें?

प्रो. राकेश मोहन जोशी: इसके दो-तीन तरीके हैं। एक तो मल्टीस्टेट कॉऑपरेटिव ऑर्गेनाइजेशन और इनका जो एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन है वो एक बहुत ही अच्छी पहल है, जिसके अंदर छोटे किसान भी एक्सपोर्ट कर सकते हैं। कृषि निर्यात के लिए एपीडा है ही, इसके अलावा कई बोर्ड हैं जो निर्यात में मदद करते हैं। जैसे कि टी बोर्ड, कॉफी बोर्ड, कैशु बोर्ड, स्पाइस बोर्ड और आजकल एक टरमरिक बोर्ड नया बनाया है।

किसानों के लिए निर्यात उतना महत्वपूर्ण नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि घरेलू बाजार में या विदेशी बाजार में कहां उसे ज्यादा अच्छी कीमत मिल रही है। जहां ऊंची कीमत मिल रही हो, उपज वहीं बेचना चाहिए।

मॉडरेटर: एफपीओ का कांसेप्ट भी पिछले कुछ समय से काफी चर्चा में है। किसान एफपीओ के साथ किस तरह से जुड़ सकते हैं और किस तरह इसका फायदा उठा सकते हैं?

अरुण रस्ते: किसान साथ में आकर एनजीओ, कोऑपरेटिव या कंपनी किसी भी फॉर्मेशन में एफपीओ बना सकते हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, महाराष्ट्र में एक सह्याद्री फार्म्स एफपीओ है। करीब 18000 किसान उससे जुड़े हुए हैं। 2015 से वो चल रहा था पर पिछले तीन सालों से उसके ऑपरेशन में गति मिली है। इसमें 18 हजार किसानों ने तय किया है कि हम कब क्या बोएंगे, यह सब एक साथ करेंगे। इससे जो इनपुट लगेगा जैसे फर्टिलाइजर या बीज वो भी एक साथ लेते हैं। एफपीओ उसे खरीदता है और अपने सदस्यों में बांट देता है। इसमें यह फायदा होता है कि आप फर्टिलाइजर कंपनी या बीज कंपनी के साथ मोलभाव कर सकते हैं। इसी तरह उपज बेचने के समय बैंक से लोन लेकर आप होल्डिंग कर सकते हैं और कीमत अच्छी मिलने पर उपज बेचकर बेहतर कीमत हासिल कर सकते हैं। अगर इस मॉडल को अच्छे से लागू किया जाए यह काफी सफल मॉडल हो सकता है।

मॉडरेटर: हमने प्रतिबंधों की बात तो कर ली, लेकिन क्या किसी नई कमोडिटी पर ट्रेडिंग आप शुरू करने जा रहे हैं?

अरुण रस्ते: किसानों के लिए हम 2 सितंबर से एक नया प्रोडक्ट लांच कर रहे हैं, जिसे कपासिया तेल या कॉटन सीड आयल कहते हैं। इसके अलावा, आजकल मौसम में जो तेज बदलाव हो रहे हैं यह किसान को बहुत ज्यादा तकलीफ दे रहे हैं। इसके लिए वेदर फ्यूचर्स होना बहुत जरूरी है। उस पर भारतीय मौसम विभाग के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। बहुत जल्दी हम इसको लॉन्च कर देंगे। तीसरा, हम कार्बन क्रेडिट्स पर काम कर रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा हमारे छोटे किसानों को होगा।

मॉडरेटर: जब 2016 में ई-नाम की शुरुआत हुई तो इसका कांसेप्ट ये था कि इंटरस्टेट ट्रेड से किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी। लेकिन 8 साल बाद भी इंटरस्टेट ट्रेड 5 फीसदी या उससे भी कम है। इसमें क्या कमी रह गई?

बिनोद आनंद: ई-नाम जिस पवित्र सोच के साथ शुरू किया गया था वह था “वन नेशन, वन मंडी”। लेकिन इसके लिए बजट सिर्फ 200 करोड़ रुपए का दिया गया। 200 करोड़ रुपए में वन नेशन, वन मंडी तो नहीं बन सकती। इसकी वजह से योजना की शुरुआती गति अच्छी नहीं रही। दूसरा, बदलाव बहुत जल्दी स्वीकार नहीं किया जाता। कई बड़े राज्य शुरू में इससे जुड़ने से इनकार करते रहे। इस वजह से भी वांछित परिणाम नहीं मिले।

और भी कुछ खामियां हैं। बहुत से किसानों को ई-नाम के बारे में पता ही नहीं है। 

ई-नाम पोर्टल पर ट्रेडिंग कितने बजे होती है, कैसे ट्रेडिंग की जाती है, कैसे लॉग इन होता है, उनको यह सब नहीं मालूम। ई-नाम में आढ़तिए ज्यादा रजिस्टर्ड हैं। अब इनमें सुधार किया जा रहा है। कई जगहों पर जब प्याज का भाव ऊपर-नीचे होता है तो ई-नाम को ट्रेडिंग ही करने नहीं दिया जाता। अब इन सब पर काम हो रहा है और व्यवस्था किसानों के हिसाब से बनाई जा रही है।